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श्राद्ध मनाना ढकोसला नहीं.i

chandravilla
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श्रद्धा के पर्व श्राद्ध का आगमन हो रहा है.भाद्रपद माह की पूर्णिमा (आश्विन माह की प्रतिपदा )से श्राद्ध प्रारंभ होते हैं,तथा आश्विन की अमावस्या को श्राद्ध समाप्त हो जाते हैं.यद्यपि श्राद्ध को लेकर विभिन्न मत हैं,परन्तु किसी ना किसी रूप में श्राद्ध मानाने की परम्परा हिन्दू समाज में विद्यमान है.हमारे शास्त्रों में श्राद्ध का उल्लेख है.मान्यता है कि इन दिवसों में हमारे पूर्वज हमसे (उनके प्रति )श्रद्धा कि आशा रखते हैं. इसी आधार पर जिन आदरणीय का शरीरांत जिस तिथी को हुआ था उसी दिन किसी ब्राहमण को भोजन करा दान दक्षिणा दी जाती है
इन समस्त कार्यों को करना शास्त्र के अनुरूप है,तथा मानने वाले यथाशक्ति संपन्न करते हैं.मेरे विचार से अपने पूर्वजों का स्मरण करना कोई ढकोसला नहीं माना जाना चाहिए.यूँ तो वर्ष में कभी भी स्मरण किया जा सकता है परन्तु व्यस्तता के कारण संभवता ये व्यवस्था कि गयी होगी.हाँ स्मरणीय तथ्य ये है कि हम पूर्वजों कि स्मृति बनाये रखने के लिए भोजन या दान आदि सत्पात्रों को भी यथाशक्ति दे सकें तो अधिक अच्छा होगा.इसी प्रकार उनके श्रेष्ट विचारों को क्रियान्वित कर हम उनके प्रति श्रध्हा सुमन अर्पित कर सकते हैं.और इस सबसे महत्वपूर्ण ये है कि उनके जीवन काल में उनका यथोचित सेवा,सत्कार कर हम उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकेंगे.प्राय परिवारों में (अपवाद को छोड़ दें)बुजुर्गों के जीवन काल में उनकी अवहेलना होती है तथा मरणोपरांत उनके पसंद का भोजन बना ,वस्त्रादि का दान दिया जाता है.मेरे विचार से यदि उनके जीवन काल में भी उनको सम्मान मिले तो उनकी आत्मा अधिक प्रसन्न होगी साथ ही आगामी पीढी भी शिक्षा ग्रहण करेगी. अन्यथा’ पेड़ बोये बबूल के आम कहाँ से खाएं” वाली कहावत चरितार्थ होती है.

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