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बैठे बैठे दो भाइयों की कहानी याद आयी सोचा आपलोगों के साथ शेयर की जाए ,तो कुछ ज्ञान वर्धन हो.
दो भाई स्वभाव में एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत, बड़ा भाई जहाँ अति सज्जन.आस्तिक,दयालु व् सत्यनिष्ठ था छोटा चंचल ,नास्तिक,स्वार्थी तथा मनमौजी स्वभाव का था.बड़ा भाई अत्यधिक परिश्रमी था,इतने परिश्रम के बाद भी आजीविका ही चल पा रही थी उसकी.छोटे पर भाग्यलक्ष्मी की अनुकम्पा थी.उसके जीवन की गाडी बिना परिश्रम करे सुगमता से चल रही थी.बेचारा बड़ा भाई संतोषी जीव होने के कारण परेशान नहीं होता था.वह ये सोच कर संतोष कर लेता था कि मेरे पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप मेरी स्तिथी विपन्न है.छोटा भाई उसका मज़ाक भी उडाता था कि क्या दिया तुमको तुम्हारे भगवान् ने,मेरी ऐश देखो.
एक बार दोनों भाई साथ साथ कहीं जा रहे थे.अचानक बड़े भाई के पांव में ठोकर लगी और उसके पैर में बड़ा सा घाव हो गया जिसके कारण उसके लिए चलना फिरना भी दूभर हो गया. थोड़ी देर बाद छोटा भाई किसी पत्थर से टकराया. टक्कर जोर से लगी थी अतः वह नीचे बैठ गया,देखा तो जिस पत्थर से वह टकराया था वहां एक मोटा सा पर्स पड़ा था,उसकी बांछें खिल गयी. उसने पुनः बड़े भाई को ताना मारा, कुछ नहीं देगा तुम्हारा भगवन तुमको ,छोड़ दो ये धर्म करम.बड़ा भाई इस बार विचलित हो गया पहुंचा एक पहुंचे हुए संत के पास.अपनी व्यथा उनके सामने रख रोने लगा.इससे आगे का कहानी का भाग विचारणीय है.
संत ने ध्यान लगा कर उसको बताया कि ये फल तुम दोनों को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के परिणामस्वरूप मिल रहे हैं.लेकिन अब तुम्हारे भाई कि वर्तमान कर्मों के प्रभाव से उसके पुण्य कर्मों का क्षय हो गया है तथा तुम्हारे सत्कर्मों ने तुम्हारे पुराने पापों का दुष्प्रभाव नष्ट कर दिया है अतः अब तुमको दुश्वारियों का सामना नहीं करना पडेगा.बड़े भाई का संताप संत की शिक्षा से नष्ट हो गया.
ये कथा बड़े लोगों से बहुत बार मैंने सुनी है ,आप लोगों ने भी सुनी होगी.मानव को अपने पूर्व जन्मों का फल हिन्दू धर्म के अनुसार अवश्य ही मिलता है.
इस कथा को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज समाज में यही सब हो रहा है.भ्रष्टाचारी,कुकर्मी सत्ता का सुख भोगते हैं,अपार संपत्ति के स्वामी बने बैठे हैं.सर्वत्र उनका बोलबाला है.दूसरी ओर सरल सत्पथगामी अनेक कष्टों को भुगतते हैं और मजबूरी वश उन पापियों की शरण में उनको जाना पड़ जाता है. इन्ही समस्त परिस्तिथियों को देखते हुए मुझको बचपन में देखी एक पिक्चर के गाने कि पंक्तियाँ याद आ गयी “रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा हंस चुगेगा दाना तिनका कव्वा मोती खायेगा.”
यदि ये भगवन का न्याय है तो क्या ये सही है.अगर परिश्रम किया जाए फल न मिले,सज्जन लोगों को इतना कष्ट भुगतना पड़े तो ..क्या व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित नहीं होगा? सत्पथ गामी भी अनुचित मार्ग पर चलने की नहीं सोचेंगे.समाज की वर्तमान व्यवस्था से क्या न्याय से विश्वास नहीं उठेगा.
मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला इसलिए जागरण मंच पर आ बुद्धिजीवियों की शरण में हूँ.
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