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एक कहावत सुनी है;”कव्वा चला हंस की चाल………….” इसके शब्द बदल रही हूँ “अपनी राह भूल गए गलत राह पर चल के “चलिए देखते हैं कौन भूला ?क्या भूला? किसकी राह?
पिछले कुछ वर्षों से लग रहा है कि हम बहे जा रहे हैं एक ही ओर. अंधानुसरण करते हुए ,आगापीछा सोचे बिना भाग रहे हैं जैसे कि यदि पीछे मुड कर देखा था तो पता नहीं क्या खो बैठेंगें.सच सबको कुछ तथाकथित आधुनिकता का ज्वर सा चढ़ा है.सर्वप्रथम तो कोई रोकने वाला नहीं सब उसी राह के पथिक बन रहे हैं,जो बनने से थोडा हिचक रहा है,उसको पुरातनपंथी,पिछड़ा,दकियानूसी,लकीर का फ़कीर,कुँए का मेंढक और न जाने क्या क्या कहा जाता है.अतः वो भी वापस अपने हाथ- पाँव खींच लेता है.
एक समय था,समाचारपत्र में यदि कोई ऐसा समाचार होता था,या कोई ऐसा चित्र जो जरा भी आपत्तिजनक हो तो प्रयास ये रहता था कि बच्चे के सामने न रखा जाए या बच्चा न देखे.माता-पिता की उपस्तिथी में बच्चे भी थोडा लिहाज रखते थे.यदि कोई धूम्रपान करता हो या मद्यपान तो बचकर.परन्तु अचानक एक बाढ़ सी आयी और सब इसके साथ बहते चले गए,कुछ ही वर्षों में सब बदल गया.हमारा रहनसहन,वस्त्रविन्यास,खानपान,कुछ सीमा तक सोचविचार,हमारी पसंद-नापसंद, मानदंड यहाँ तक कि जीवन मूल्य भी बदल रहे हैं.आज पिता-पुत्र एक साथ ही चीयर्स कर जाम टकरा पीते हैं तो लेट नाईट पार्टीज ,डिस्को ,रेव पार्टीज न जाने क्या क्या.
पुत्री,पुत्रवधू जो घर की लक्ष्मी हैं,इस दौड़ में और आगे निकल सबको पछाड़ना चाहती हैं.माता-पिता या अन्य परिवारजन सब कुछ देख कर कुछ नहीं कर पाते है और पता नहीं मन से या फिर बेमन से कहते हैं “हम एन्जॉय कर रहे हैं.”वैसे तो सच पुछा जाए तो परिस्तिथि वश माता पिता का साथ ही बहुत कम संतानों को मिल पा रहा है.छोटे बच्चों की किलकारियां घर के आंगनों में अब कम हो रही हैं,बच्चे यदि हैं भी तो आया के हवाले या फिर शिशु पालन गृह में. एक समय कहा जाता था कि परिवार के संस्कार बच्चों में आते हैं पर वो संस्कार आये कैसे. सर्वप्रथम तो परिवारों का सिकुड़ता आकार,उस पर स्वतंत्र रहने के लिए बैचेन युवा पीढी.(अपवादों को न गिना जाए) संस्कार आयें कहा से ? आयेंगें तो उनके, जिनके हाथों में वो पल रहे हैं. कभी कभी तो लगता है ये हो क्या गया है सब बदल रहे हैं.
त्यौहार मनाने का स्वरुप बदल रहा है,आज त्यौहार एंजोयमेंट के लिए मनाये जा रहे हैं.गणेशोत्सव,दुर्गापूजा,होली सब त्योहारों को मनाया तो जाता है और अधिक धूमधाम से परन्तु उनमे होने वाले आयोजनों में अश्लील,भद्दे नृत्य गीत आदि की धूम होती है.गणेशजी, पर कितना चढ़ाव चढ़ा,कितने किलो सोना चांदी एकत्र हुआ,कौन कौन स्टार कलाकार कब आने वाले है,इसी प्रकार दुर्गा पूजा के पंडालों का भव्य होता स्वरुप . करवा चौथ हो कोई भी त्यौहार ऐसा लगता है उपभोतावाद हम सब पर बुरी तरह हावी है.
देखने में ऐसा लगता है कि ये केवल महानगरों का ही दृश्य है,नहीं आज छोटे शहरो यहाँ तक कि कस्बों पर भी प्रभाव आसानी से देखा जा रहा है.
इस काल को कुछ लोग बदलते दौर की संज्ञा प्रदान करते हैं.परन्तु अपनी संस्कृति-सभ्यता के विरुद्ध पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर क्या हम ये सिद्ध कर रहे हैं कि हमारी संकृति-सभ्यता पिछड़ी थी जिसको पुराने चोले की तरह उतार हम मस्तिष्क से भी दासता को स्वीकार कर रहे हैं.
प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर हमारा ब्रेनवाश इतनी शीघ्रता से कैसे हुआ.टी.वी. फिल्मों आदि माध्यम भी एक मूल कारण है इन सब के पीछे. उपभोतावाद की संस्कृति हमको इस गुलामी की और धकेल रही है और हम आँखे मूंदे चलते जा रहे हैं
मैं परिवर्तन का विरोध नहीं कर रही हूँ.परिवर्तन सृष्टि का नियम है.परिवर्तन नहीं होगा तो हम जड़ बन जायेंगें.उन्नति करना ,जीवन में आगे बढ़ना हमारा लक्ष्य सदेव होना चाहिए.कहीं से,किसी भी स्त्रोत से कोई भी श्रेष्ट गुण ग्रहण करना,नूतन सीखना आवश्यक है परन्तु अपने अंदर हीनता को लाकर नहीं.यदि विज्ञान ,चिकित्सा कम्पूटर आदि अन्य क्षेत्रों में हम पाश्चात्य अविष्कारों से कुछ सीख आगे बढ़ते हैं तो वो प्रगति है,विकास है,उत्थान है परन्तु केवल वाह्य चकाचोंध में अपनी आँखें बंद कर अन्धानुकरण कर अपनी चाल ही बदल डालना तो पतन,अवनति,व् जड़ता का द्योतक है.
हम क्यों भूलते हैं कि हमारे अंदर विश्व को नेतृत्व देने की क्षमता है.अपने श्रेष्ट को विकसित कर आगे बढ़ हम अपनी सामर्थ्य का उपयोग कर अपना अनुकरण करने को बाध्य करें.नाम तो याद नहीं आ रहा परन्तु पंक्तियाँ याद आ रही है किसी रचनाकार की “खुदी को कर बुलंद इतना “
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