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लस्सी है या लस्सी दा जामण (बदलते स्वाद)

chandravilla
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बहुत समय पूर्व दूरदर्शन पर एक कहानी देखी थी जिसमे पंजाब का रहने वाला एक नवयुवक पहली बार बम्बई (उस समय तो यही नाम था मुम्बई का) पहुँचता है.मस्तमौला युवक जब ढाबे या होटल में खाना मंगाता है तो लस्सी मंगाता है,बैरा उसके सामने एक छोटे से कांच के ग्लास में ला देता है.महानगरीय सभ्यता से अनजान युवक आश्चर्य चकित हो पूछता है,”ये लस्सी हैया लस्सी दा जामन”
ये कोई हंसी में उड़ा देने वाली बात तो है नहीं.दूध,दही,घी की नदियों वाले देश में हमारे सारे पौष्टिक पेय लुप्तप्राय हैं और उनका स्थानापन्न हो गया है पेप्सी,थम्सअप ,कोकाकोला,लिम्का,स्प्राईट और ना जाने क्या क्या.सुनीता नारायणन या इसी विचारधारा वाले कुछ लोगों ने थोड़े दिन के लिए अभियान प्रारम्भ किया भी था स्वास्थय के शत्रु इन पेय पदार्थों की विरुद्ध, परन्तु न जाने क्यों वो सब ठप हो गया,.लस्सी,छाछ ,दूध,शिकंजवी,कोकम ,नीरा नारियल पानी गन्ने का रस तथा इसी प्रकाए के अन्य पेय जो ऋतुओं के अनुसार तथा विभिन्न राज्यों की जलवायु के अनुसार हमारे पसंदीदा होने के साथ स्वास्थ्य उपयोगी भी थे कुछ लोगों तक सीमित रह गए हैं.कुछ समय तक जब इन कोल्ड ड्रिंक्स के विरुद्ध अभियान चला तो फ्रूटी,रियल ,ट्रोपिकाना आदि ब्रांड नामों से ज्यूस बाज़ार में छाने लगे और हमारे फ्रीज्स में स्थान बना लिया.परन्तु शर्करा बहुल इन ज्युसेस से कोई लाभ नहीं मिल पाता स्वाद के अतिरिक्त.रक्त में शक्कर का स्तर बढ़ा मधुमेह जैसे रोगों को न्योता देते हैं ये पदार्थ,शरीर का वज़न जो बढ़ता है.वो अलग. आज जितने शौक से हमारी युवा पीढी इन सब कोल्ड ड्रिंक्स की दीवानी है लगता नहीं कि निकट भविष्य में कोई सुधार संभव है और तो और माता-पिता भी दूधमुहें बच्चों को इन कोल्ड ड्रिंक्स का रसास्वादन करा गर्व का अनुभव करते हैं कि उनका बच्चा इतना बुद्धिमान है कि दूध उसको नहीं अच्छा लगता पेप्सी या फेंटा का दीवाना है. .
इन समस्त दुष्परिणामों से बचाने में जहाँ तक सरकारी स्तर पर प्रयासों की बात है वो कल्पना करना ही व्यर्थ है क्योंकि सरकार तो पब संस्कृति को ही प्रोत्साहन देने में गुरेज नहीं करती ,तो इस मीठे जहर से से कैसे बचा सकती है.ऐसा नहीं है कि इस दिशा में सरकारी प्रयास संभव नहीं.यदि इन देसी पेय पदार्थों को प्रचार के माध्यम से लोकप्रिय बनाया जाए तो सब संभव है परन्तु इसके लिए जिस दृढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है वो कहाँ से आये.,अतः जैसे भी हो सकारात्मक प्रयासों द्वारा सचेत तो आगामी पीढी को करना ही होगा.आज कल तो माता-पिता भी दूधमुंहे बच्चों के मुख से ये कोल्ड ड्रिंक लगा इस गर्व का अनुभव करते हैं कि उनका शिशु अभी से स्वाद पहचानता है तथा उसको ये पसंद है. मेरे विचार से स्कूल्स इस विषय में अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं.सर्वप्रथम तो टीचर की बात बच्चे को जल्दी समझ में आती है और केन्टीन में कोल्ड ड्रिंक्स के स्थान पर देसी पेय पदार्थों को बढ़ावा दिया जाए तो कुछ भला तो होगा ही.हाँ आवश्यकता है गुणवत्ता पर ध्यान देने की. यद्यपि ठंडा दूध छाछ आदि मिलता तो है पर प्रचार के अभाव में इतना लोकप्रिय नहीं है.अतः परिवार,स्कूल्स,स्वयंसेवी संगठनों,तथा सरकारी प्रयासों से हम न केवल मीठे जहर से बचा सकते हैं ,अपने देश में छोटे स्तर पर कुटीर काम धंदों के रूप में कम शिक्षित लोगों की आय बढाने में भी योगदान दे सकते हैं. बस थोडा सा परिश्रम और फायदा ज्यादा

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