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काले हैं तो क्या हुआ (और भी हैं राहें)

chandravilla
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अधोलिखित पत्र कोई काल्पनिक कथा नहीं ,एक परिचित परिवार की वास्तविक कहानी है.दो जुड़वां बेटियां रंग-रूप का बहुत अंतर .स्वाभाविक सी समस्या और विशेष रूप से तुलना .कपड़ों का चुनाव करना हो या कुछ और एक बोझ सा रहता था लडकी पर.कब तक सहन किया जाए?उसकी तो भगवान् ने दूसरी राह निकल दी और उसने अपनी लगन से पा भी लिया उसको.लडकी कि भावनाएँ और उदगार पत्र के रूप में;

आदरणीया माँ ,
आज मैं बहुत खुश हूँ ,मेरी खुशियाँ सातवें क्या उससे भी उंचा होता हो तो वहां पहुँच गयी हैं.मेरी इन खुशियों का श्रेय तो आपको ही है ,आप मेरी जन्मदात्री हो,मेरी पालक हो,न जाने कितने कष्ट उठायें हैं बचपन से आज तक मेरी खातिर.कभी दादी की ,कभी अन्य रिश्तेदारों की और कभी पड़ोसियों की और न जाने किस किस की बातें आपको सुननी पडी हैं. आपने सब सहन किया कोई चारा नहीं था आपके पास.आप भी विवश थीं आखिर ऊपर वाले ने मुझको बनाते समय रंग का पक्षपात कर दिया और दीदी को गोरी मुझको सांवला बना दिया हम दो बहनें साथ साथ धरती पर आयीं पर रंग अलग जो कोई देखता दीदी को प्यार करता और मेरे साथ हल्का सा हाथ लगा चला जाता.दोनों साथ रोते एक को तुरंत गोदी में उठाया जाता दूसरी रोते रोते स्वयं चुप हो जाती.थोड़े बड़े हो गए उसके लिए घर में सुन्दर बार्बी जैसी गुडिया आती और मुझको कुछ भी पकड़ा दिया जाता.मैं दीदी के साथ बड़ी होती रही और सारे परिवार और कभी कभी आपकी भी उपेक्षा का दंश झेलती रही.समझ नहीं पाती थी कि एक ही काम करने पर मेरी सहोदरा को इतना सराह जाता है और मुझको बस फार्मल से शब्दों का प्रयोग कर छुट्टी पा ली जाती थी.इसके लिए दोषी आपको नहीं बता रही हूँ क्योंकि समाज के दृष्टिकोण के सामने सयुंक्त परिवार में आपका बस नहीं था..
अब मैं ये समझने योग्य बड़ी हो गयी थी कि इस सब भेदभाव का कारण मेरी बहिन का गोरा रंग और सौन्दर्य था,मुझको बनाते समय विधाता के पास रंग बचा नहीं था.स्कूल साथ साथ जाते थे.शिक्षिकाओं के स्नेह का भाजन बनने का सौभाग्य भी दीदी को ही मिलता था नाटक में उसको देवी,महारानी या मालकिन का और मुझको तो काली समझ नौकरानी का पार्ट दिया जाता था.सहेलियां भी दीदी की ही ज्यादा थी मेरी तो एक दो गिनती कि थीं.नम्बर परीक्षा में मेरे अधिक आते थे पर परिवार में कभी कभी प्रशंसा मिलती थी.कालेज की पढ़ाई शुरू हो गयी थी और ये सब देखते सुनते पक गयी थी मैं .
शायद हर अति के बाद भगवान् भी कोई राह अच्छी सुझा देता है,अतः मैं अपने तक सीमित हो कर रह गयी तथा सहेलियां मौजमस्ती सब भूल पढ़ाई में झोंक दिया स्वयं को.चूँकि ध्यान एक ही ओर था अतः कालेज में टॉप किया.आप सबसे प्रार्थना की और कोचिंग के लिए दिल्ली चली गयी I A S की तैयारी के लिए.मुसीबतें तो यहाँ भी सहीं पर अब में आदि हो चुकी थी इन सबकी.और आज ईश्वर की कृपा से यहाँ भी सफलता हाथ लगी और अब में प्रशिक्षण के बाद उच्चतम पद भी प्राप्त कर सकूंगी.
.दीदी की शादी हो चुकी है.मैंने सोच लिया था कि जब दीदी की शादी के समय ही मुझको इतनी उपेक्षा मिल रही है तो अपनी शादी में तो और भी परेशानियां आयेंगी.जानती थी कि परिवार तो अपना दायित्व पूर्ण करने के लिए कहीं भी बाँध देगा. सीमा से अधिक धन दहेज़ में देकर भी शायद आप मेरी शादी मेरे लिए अच्छा ,मेरे अनुरूप साथी नहीं ढूंढ पायेंगे.क्योंकि बदसूरत लड़के और उनके परिवार वालों की बहु सुन्दर व गोरी चाहिए.मैं और अधिक अपमान झेलने के लिए तैयार नहीं थी.अतः निश्चय कर लिया था कि शादी तभी करूंगी जब कोई उपयुक्त साथी मिलेगा.शादी तो अभी दूर की बात है अभी तो में पूरी तरह आत्मनिर्भर बनने जा रही हूँ.मुझको अकेडमी की ओर से सम्मानित किया जाएगा ,अकेडमी की ओर से निमत्रण पत्र पहुँच जाएगा ,आपसब मेरी इस खुशी में सम्मिलित होने जरूर आयें.दीदी कोभी सूचना दे दी है.
ये तो एक उदाहरण है परन्तु इस प्रकार की समस्याएँ जीवन में आती ही हैं,लड़का हो या लड़की कोई भी पीड़ित हो सकता है.सब जानते हैं ये समस्याएँ अपने हाथ में नहीं फिर भी समाज तो समाज है ……… रंग-रूप,शारीरिक विकृति,निम्न जाती या कोई अन्य पारिवारिक समस्या जिसके कारण समाज में बहुत कुछ झेलना पड़ता है पीड़ित द्वारा .ऐसे में अवसाद का शिकार हो कभी कभी अपना जीवन ही खराब कर लिया जाता है.जीवन का सकारात्मक पक्ष उज्जवल बनायें ,अपने गुणों को निखारें तथा शिखर पर पहुंचें.जो अपने हाथ में नहीं ,नियति है उसमें तो हमारा हस्तक्षेप नहीं हो सकता परन्तु अपनी राह अपनी परिस्तिथि के अनुसार चुन आगे बढ़ा जा सकता है. अपना भाग्य स्वयं बनाएं .स्वामी विवेकानंद का कथन “STAND UP BE BOLD AND KNOW THAT YOU ARE THE CREATOR OF YOUR DESTINY ”

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