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बचपन के दिन हैं उमर खेलने की ……(कराहता बचपन)

chandravilla
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बाल श्रम निषेध दिवस पर अबोध बच्चों का बचपन संवारने की अपील
ग्रीष्मावकाश में परिवार के साथ पर्वतीय पर्यटन के लिए जा रहे थे.रमणीय दृश्य,हिमाच्छादित पर्वत शिखर ,सुन्दर जल प्रपात ,पहाडी नदियाँ ,सीढ़ीदार खेत ऊंचे पेड़,भेड़ बकरियां देखते हुए सब मग्न थे.एक स्थान पर भीड़ और कुछ अप्रिय सा दृश्य दिखाई दिया तो टैक्सी रूकवाई.पता चला एक छोटे से पहाडी होटल पर भीड़ लगी थी,कारण पूछने पर ज्ञात हुआ सात-आठ वर्ष के एक लड़के की पिटाई होटल मालिक ने की थी, क्योंकि ग्राहकों को Child-Labour-In-India-01चाय देने जाते समय ठोकर लग जाने के कारण वह बच्चा गिर गया.गर्म चाय तो उस पर गिरनी ही थी ,कप ग्लास भी फूट गए ..उसके जलने से तो मालिक को फर्क नहीं पड़ा बर्तनों का नुकसान होने से वह आपा खो बैठा तथा उस मासूम की पिटाई कर दी.ग्राहक तथा आस-पास के लोगों की भीड़ वहां एकत्र हो गयी और होटल मालिक को बुरा भला कहना शुरू कर दिया ,एक दो लोग हाथ भी छोड़ने को तैयार बैठे थे,परन्तु गर्म चाय से जले उस बच्चे की प्राथमिक चिकित्सा करने पर किसी का ध्यान न गया.इससे भी आश्चर्यजनक किन्तु विडम्बनापूर्ण दृश्य वह था.जब कहीं से पता चलने पर उस बच्चे की माँ वहां आ गयी.माँ होटल वाले के समर्थन में खड़ी थी और क्षमा याचना कर रही थी कि वह उसके बच्चे को माफ़ कर दे.भीड़ थोड़ी ही देर में तीतर बीतर हो गयी मालिक द्वारा आश्वासन मिलने पर कि वह उसके लड़के को नौकरी से नहीं हटाएगा माँ बच्चे को वहीँ छोड़ चली गयी.
उपस्थित सब लोगों को माँ का रुख स्वाभाविक रूप से अच्छा नहीं लग रहा था परन्तु सब को आगे जाना था अतः अपने मार्ग पर हम और अन्य सभी लोग चल दिए.बहुत देर तक हम परस्पर यही चर्चा करते रहे .मैं भी इसी ऊधेढ़ बुन में मंथन कर रही थी क्या वास्तव में माँ दोषी थी ,अपने बच्चे से प्यार नहीं था,स्वार्थी थी,?कभी उस मासूम का पिटाई व जलन से प्रभावित चेहरा घूम रहा था.माँ का बच्चे के कष्ट से दुखी होना तो स्वाभाविक था परन्तु बीमार माँ,नशे के लत से पीड़ित पिता तथा और २-३ छोटे बहन भाई का पेट पालने की समस्या के बोझ तले बच्चे का दर्द दब गया था.
ये एक घटना है परन्तु विश्व की नहीं केवल भारत की बात करें तोसरकारी आंकड़ों के अनुसार २ करोड़ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार तो लगभग ५ करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं. कारण निर्धनता..Below poverty line परिवार ,जिनमें परिवार की सदस्य संख्या तो अधिक होती ही है , खराब स्वास्थ्य ,कुपोषण, गंदगी आदि समस्याएँ भी घेरे रखती हैं’.खाने वाले अधिक कमाने वाले कम “परिणाम स्वरुप बच्चों को छोटी आयु में ही काम पर लगा दिया जाता है.अनेक स्थानों पर तो विवशता वश बड़े बच्चे को किसी भी फैक्ट्री मालिक या रईस गृहस्वामी के हाथ बेच दिया जाता है.ये स्वामी बच्चों से थोडा सा खाना दे मनमाना काम करातें हैं.१८ घंटे या उससे भी अधिक काम करना,आधे पेट भोजन,और मनमाफिक काम न होने पर पिटाई यही उनका जीवन बन जाता है .केवल घर का काम नहीं इन बालश्रमिकों को पटाखे बनाना,कालीन बुनना,वेल्डिंग करना,ताले बनाना,पीतल उद्योग में काम करना,कांच उद्योग,हीरा उद्योग ,माचिस,बीडी बनाना,खेतों में काम करना( बैल की तरह),कोयले कि खानों में.पत्थर खदानों में,सीमेंट उद्योग,दवा उद्योग में मजूरी तथा होटलों व ढाबों में झूठे बर्तन धोना आदि सभी काम मालिक की मर्जी के अनुसार करने होते हैं . इन समस्त कार्यों के अतिरिक्त कूड़ा बीनना,पोलीथिन की गंदी थैलियाँ चुगना,आदि अनेक कार्य हैं जहाँ ये बच्चे अपने बचपन को नहीं जीते नरक भुगतते हैं परिवार का पेट पालते हैं. इनके बचपन के लिए न माँ की लोरियां हैं न पिता का दुलार,न खिलोने हैं न स्कूल न बालदिवस . इनकी दुनिया सीमित है तो बस काम काम और काम,धीरे धीरे बीडी के अधजले टुकड़े उठाकर धुआं उडाना,यौन शोषण को खेल मानना इनकी नियति बन जाती है.
Child-Labour-In-India-08 वेल्डिंग के कारण आँखें अल्पायु में गवां बैठना ,फैक्ट्री के धुंए में निकलते खतरनाक अवशेषों को श्वास के साथ शरीर का अंग बना लेना,जहरीली गैसों से घातक रोगों फेफड़ों का केंसर टी.बी.आदि का शिकार बनना,यौन शोषण के कारण AIDS या अन्य यौन रोगों के कारण सारा जीवन होम कर देना भरपेट भोजन व नींद न मिलने से अन्य शारीरिक दुर्बलताएँ ,कहाँ तक इनकी समस्याओं को गिना जाए ये तो अनगिनत हैं.Child labor 02
ऐसा नहीं कि केवल लड़के ही बाल श्रमिक हैं लड़कियां भी इन कार्यों में लगी है.घरों में ऐसे लड़के लड़कियां आपको प्राय मिल जायेंगे जो घरेलु कार्य करते हैं उत्पीडन उनका भी होता है.विभिन्न प्रकार के उद्योग धंधों में लड़कियां कार्यरत हैं बाकी सभी समस्याओं के साथ यौन उत्पीडन उनकी दिनचर्या का एक अंग बन जाता है.
ऐसे बाल श्रमिकों से सम्बंधित एक अन्य समस्या है ,बहुत बार इन बच्चों को तस्करी आदि कार्यों में भी लगा दिया जाता है.मादक द्रव्यों की तस्करी में व अन्य ऐसे ही कार्यों में इनको संलिप्त कर इनकी विवशता का लाभ उठाया जाता है.बच्चों को मुस्लिम देशों में बेच देने की घटनाएँ भी होती हैं जहाँ बच्चों को मनोरंजन का साधन मान खिलौने बना दिया जाता है वहां के शेखों के लिए.
इन समस्त समस्याओं पर विचार करने के बाद देखते हैं की समस्या का समाधान क्या है?निर्विवाद रूप से निर्धनता उन्मूलन इसका एकमात्र समाधान और प्रमख उपाय है.इस क्षेत्र में तो भूमिका सरकार की ही हो सकती है.कठोरतम नियमों का पालन कर कुछ सीमा तक उत्पीडन को कम किया जा सकता है परन्तु गरीबी के रहते पेट पालने के लिए इन बच्चों या इनके मात-पिता के पास अन्य कोई विकल्प नहीं.
सरकारी नियम कानूनों की बात करें तो १४ वर्ष से कम आयु के बच्चों को काम पर लगाना या रखना अपराध है.योजनाएँ सरकार द्वारा समय समय पर बनती हैं, लागू भी की जाती हैं पर अन्य योजनाओं और कार्यक्रमों की भांति सफल मात्र कागजों में ही होती हैं.स्वयं सेवी संगठनों “प्रथम” “चेतना” ” क्राई “‘ बचपन'”आदि द्वारा किये प्रयासों को अधिक सफलता न मिलने का कारण भी यही होता है.भूखे पेट की आग जब तक शांत नहीं होगी ,इनका बचपन कभी नहीं मुस्कुरा सकता मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती हुए बिना सब नियम क़ानून व्यर्थ की कवायद है.
हम विकास शील होने का भी दावा कैसे कर सकते हैं जब तक हमारा भविष्य,हमारे नौनिहाल पेट पालने के लिए मजदूरी करने को विवश हैं.अतः सभ्य समाज के अंग होने के कारण हम सभी का दायित्व है कि इनके साथ न्याय हो
मेरे विचार से तो महती भूमिका सरकार कि ही हो सकती है,परन्तु बुद्धिजीवी समाज से मेरा विनम्र आग्रह है कि देश की भावी पीढ़ी का बचपन बचाने के उपाय सुझाएँ और अपने बच्चे की तरह उन बच्चों का भविष्य संवारें.

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