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कहाँ खो गया देशप्रेम?

chandravilla
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देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन का एक प्रसंग पढ़ा था,जो इस प्रकार था;शास्त्री जी ने अपने सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश एक स्वयंसेवी संस्था के सदस्य के रूप में इलाहबाद से किया था.एक कर्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक के रूप में पूर्ण मनोयोग से कार्यरत रहते थे.,परन्तु समाचारपत्रों आदि में पब्लिसिटी से उनको परहेज था.साथी स्वयंसेवक पूछते कि आपको अपना नाम सामने आने से कष्ट क्यों होता है तो उनका उत्तर था ( उन्होंने लाला लाजपतराय के शब्द दोहरा दिए जो उन्होंने संस्था के कार्य की दीक्षा देते हुए कहे थे) “लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं,एक बढ़िया संगमरमर है जिसके मेहराब और गुम्बद बने हैं, दुनिया उन्ही की प्रशंसा करती है.दुसरे हैं नीवं के पत्थर ,जिनकी कोई प्रशंसा नहीं करता”
जिस भारत भू के लाल इतने संस्कारित,सद्विचारों की पूंजी से धनवान रहे हों,जिन्होंने देश में अन्न का भंडार कम होने पर स्वयं सप्ताह में एक समय का भोजन त्यागा,परिणामस्वरूप देशवासिओं ने भी अपने प्रिय नेता का अनुसरण करते हुए एक समय के भोजन त्यागने का संकल्प लिया.उस धरा पर कैसे अकाल पड़ गया महा विभूतियों का कि एक ओर तो हमारे नेतागण देश को लूट कर कंगाल करने में जुटे हैं,( नित नए घोटालों के रूप में कोई न कोई उदघाटित होता ही रहता है.) दूसरी ओर झूठे नाम के लिए कुछ भी करेगा कि तर्ज पर कुछ भी अनर्गल बोल देना फिर अपने कथन को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करने की दुहाई देना.एक दिन दिग्विजयसिंह की जिह्वा फिसलती है और वो अपना विचार व्यक्त करते हैं कि,करकरे ने उनको फोन से बताया कि उनको हिन्दू आतंकवादियों से खतरा है,अगले दिन वो कहते हैं कि उनके कथन का मंतव्य ये नहीं था.उनके विचार (मै तो राष्ट्रद्रोह की संज्ञा ही दूंगी ) हमारे शत्रुओं के होंसलें बुलंद करें या देश की नीतियों पर प्रश्नचिंह लगाये उनके लिए महत्वहीन है.कभी चिदम्बरम जी विवादित बयां देते हैं. कभी शिवराज पाटिल .केवल सत्तारूढ़ दल नहीं विपक्षी दल भी नित नवीन मुद्दे छेड़ते रहते हैं जो प्राय विवादित होते हैं. .
आखिर ये सब क्या दर्शाता है?क्या ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सदुपयोग है. यदि कोई वाह्य देश हमारे विरुद्ध कुछ बोलता है तो हमे तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ता जब तक व्यक्तिगत न हो.क्या ये हमारा देशप्रेम है.?क्यों आज तक हमारी भावना ये नहीं बन सकी कि देश की हानि हमारी निजी है,देश का अपमान हर भारतीय की छवि को कलंकित करता है. हमारे विचार भिन्न होते हुए भी देश हित के लिए हमें सदा एक ही रहना है. यदि संसद में वेतन भत्तों का विषय हो तो सदन एकमत हो जाता है परन्तु देश हित की बात पर नहीं.संसद न चलने पर सम्पूर्ण सत्र व्यर्थ हो जाए,देशवासियों के गाढे पसीनों की कमाई बह जाए किसी को चिंता नहीं.अपने दल के शक्तिप्रदर्शन के समय चाहे देश की संपत्ति को कितनी ही क्षति पहुंचे किसी की जेब पर तो प्रभाव नहीं पड़ता.
” यथा राजा तथा प्रजा” के अनुसार आज देश के लिए मर मिटने की भावना भी बलवती नहीं रही सफलता के कितने ही उत्तुंग शिखर पर हम पहुँच जाए,यदि हम अपनी .जड़ को (देश हित)प्रधानता नहीं देते यदि हम लकड़ी के बंधे गट्ठर की तरह एक नहीं हैं तो हम से बड़ा कृतघ्न कोई नहीं .यही कारण है इतनी समृद्ध विरासत से संपन्न होते हुए भी हम विश्वपटल पर यथेष्ट स्थान,सम्मान प्राप्त नहीं कर सके हैं. अपने देश प्रेम को जाग्रत करिये.मत भूलिए कि हमारी पहचान देश से ही है.

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