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राम तेरी दुनिया में कोई न सुखी (नहीं है निरोगी काया)

chandravilla
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सही है परम पिता परमात्मा की इस दुनिया में कौन सुखी है,जब सर्वप्रथम सुख निरोगी काया के स्वामी हम नहीं हैं. ! बाज़ार से सामान खरीदारी के लिए जाते समय मेडिकल स्टोर पर रुकना पड़ा. कुछ आवश्यक दवाएं लेने के लिए, तो स्टोर पर इतनी भीड़ कि कई सेल्समेन होने पर भी प्रतीक्षा करनी पडी.इससे पूर्व अन्य जो भी सामान खरीदा वहां नोर्मल भीड़ थी और आस-पास कई स्टोर होने पर भी इतनी भीड़…… दवाएं खरीदी भी इस प्रकार जा रही थी जैसे महीने भर का राशन लिया जाता है,जैसे तीन पत्ते एक दवा के चार पत्ते दूसरी के यहाँ तक कि सीरप आदि की शीशी भी एक से अधिक. सोचा तो पता चला कि कतिपय अँगुलियों पर गिनने योग्य जनों को छोड़कर अधिकतर सभी की यही जीवन शैली है.महीने भर का राशन घर में भले ही कम या अधिक आये पर दवाईयां थोक में .अंतर आर्थिक क्षमता का भले ही हो, पर थोड़ी थोड़ी कर कई बार में आयें या एक बार में आपके मासिक व्यय का एक बड़ा भाग औषधियों के नाम वैसे भी यह व्यय तो निश्चित है इसके अतिरिक्त आकस्मिक रोग या दुर्घटना आदि . .एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में दवाओं पर होने वाले व्यय का ८४% अपनी जेब से खर्च किया जाता है.,तथा १५०० रु का व्यय औसतन प्रति व्यक्ति इस रिपोर्ट के अनुसार होता है.न जाने कितने लोग रोगों की चपेट में आकर दुर्लभ कहे जाने वाले मानव जीवन ,से हाथ धो बैठते हैं. होम्योपथी या अन्य वैकल्पिक उपचारों या साधनों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है.मेरा अभिप्राय यूनानी,रेकी,अक्यूप्रेशर ,अक्यूपंक्चर,चुम्बकीय चिकित्सा आदि अनेकों उपचार विधियों से है.
इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय यह भी है कि दवा उत्पादन में चौथा स्थान और २०० देशों को औषधि निर्यात करने के बाद भी आवश्यक औषधियां हमें बाहर से मंगानी पड़ती हैं जिसके कारण उनकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है,तथा आम आदमी की पहुँच से दूर रहती हैं.इस कारण भी हमारा ग्रामीण वर्ग नीम हकीम व तंत्र-मन्त्र के जाल में फंसता है तथा अपने जीवन को संकट में डाल देता है..
प्रश्न उत्पन्न होता है कि” पहला सुख निरोगी काया” ” सर्वे सन्तु निरामया” ” जान है तो जहाँ है”शरीरं आध्य खलु धर्मसाधनम” ” health is gone something is gone”आदि …………… में विश्वास रखने वाले हमारी इस अवस्था के लिए कौन उत्तरदायी है? कोई भाग्यशाली परिवार ही संभवतः ऐसा बचता है जहाँ ब्लड प्रेशर,मधुमेह,ह्रदय रोग,श्वास संबंधी रोग आदि (अब इनको आम रोग कहा जा सकता है) का कोई भी रोगी न हो .इन सबसे बढ़कर कैंसर , हेपेटाईटिस,टी.बी.किडनी व लीवर के रोग ,आंत्रशोथ आदि जान लेवा रोग अपने पैर पसारते ही जा रहे हैं.मानसिक अवसाद जो न जाने कितनी ही समस्याओं का जनक है ,आर्थराईटिस,चर्मरोग नेत्र रोग,गला कान आदि , कहाँ तक इन मानवजाति के शत्रुओं की गणना की जाए ,प्रतिवर्ष अपना शिकार बनाने वाले स्वाईन फ्लू,बर्डफ्लू ,मलेरिया,वायरल आदि रोग भी प्राणघातक हैं.
इन रोगों में कुछ वंशानुगत या अन्य कारणों से भले ही हों परन्तु अधिकांश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं.आज व्यक्ति एक मृग तृष्णा में जी रहा है,अपने शरीर पर ध्यान देने का समय किसी के पास नहीं.बस पैसा पैसा और पैसा जिनके पास है उन्हें पैसा कमाने की धुन और जिसके पास कम है उसको परिवार का पेट पालना कुछ न कुछ कारण सर्वत्र है.हम ये भूल जाते हैं,कि पैसा बहुत कुछ है सब कुछ नहीं आज सर्वाधिक उपेक्षित है शरीर ,वह शरीर, जिसके कारण आप सब कार्य कर पा रहे हैं. ,शरीर ही नहीं तो पैसे का क्या उपयोग,धनार्जन करना आवश्यक है परन्तु इस कार्य के लिए जो प्रमुख साधन है अर्थात शरीर उसकी इतनी उपेक्षा………….भोजन करने का समय नहीं ,भोजन में ग्रहण किये जाने वाले पदार्थ,फास्टफूड का आदि होना,हर खाद्य पदार्थ में मिलावट,शुद्ध हवा व जल का अभाव,पैदल चलना नहीं,मध्यम परिवारों में भी कम से कम दूरी व छोटे से छोटे काम के लिए दोपहिया या चारपहिया वाहनों का उपयोग, सुविधाभोगी जीवन,मानसिक श्रम आवश्यकता से अधिक , शारीरिक श्रम ,नगण्यअत्यधिक महत्वाकांक्षाएं ,नकारात्मक प्रतिस्पर्धा .
आवश्यकता है अपनी जीवन शैली में परिवर्तन की,थोडा समय स्वयं को देने की,अपनी सोच सकारात्मक बनाने की तथा अपनी परिस्तिथि के अनुसार खान-पीन में सुधार की. एक कहावत मेरी माँ कहती थी “जब दांत थे तो चने नहीं और अब चने हैं तो दांत नहीं” मानवजीवन पर लागू होने वाली शत प्रतिशत वास्तविकता है यह.आज अधिकांश लोगों के रोगी होने का कारण ही अधिक या अखाध्य पदार्थों का खाना और अति निर्धन वर्ग का खाने को न मिलना या कुपोषण.शरीर को समय दीजिये योग या जो भी उपाय आपके अनुरूप हो,करिए प्रातः सायं भ्रमण को जाने का समय निकालिए.,वैकल्पिक उपचारों को भी यथासंभव अपनाएँ तथा दवाओं के नकारात्मक प्रभावों से अपने शरीर की रक्षा करिए.याद रखिये जान है तो जहाँ है.

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