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मुझे चलते जाना है मुझे चलते……………….(नेताजी सुभाष चन्द्र बोस )श्रद्धा स्मरण

chandravilla
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4210 हाँ आगे ही आगे बढ़ते जाना था उनको ! भारत माँ को दासता के बंधन से मुक्त करने में यूँ तो असंख्य बलिदानी वीरों का योगदान रहा है जिनसे हम कभी उरिन नहीं हो सकते ,उन्ही में से एक हैं सुभाष चन्द्र बोस जिनका २३ जनवरी को ११५ वा जन्मदिवस या ११४वी वर्षगाँठ है.प्रस्तुत लेख में मेरा उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान को स्मरण करना है परन्तु पहले प्रस्तुत है संक्षिप्त जीवन परिचय .
२३ जनवरी १८९७ में श्री जानकी नाथ बोस व श्रीमती प्रभा देवी की जी के बड़े परिवार में उड़ीसा के कटक में उन्होंने जन्म लिया.प्रारभ से ही राजनीतिक परिवेश में पले बढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था.मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा आध्यात्मिक गुरु मानते थे स्वामी जी को. भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ. जब १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी.परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया.. अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी .इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे.
पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे राय बहादुर की उपाधि से विभूषित उनके पिता उनको सिविल सेवाओं में देखना चाहते थे,परन्तु रेंकिंग में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने वाले सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और , भारत लौट आये.भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे.परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मागांधी से मिलने का परामर्श दिया.सुभाष गांधी जी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया.
चितरंजन दास बंगाल में स्वराज दल का गठन कर कांग्रेस द्वारा चलाये असहयोग आन्दोलन का काम संभाल रहे थे.अंग्रेजों का विरोध करने के लिए उन्होंने चुनाव लड़ा तथा अपने कार्यों व लोकप्रियता के बल पर महापालिका का चुनाव जीत कर कोलकाता के महापौर बने .सुभाष की कार्यकुशलता से प्रभावित हो उन्होंने उनको महापालिका का कार्यकारी अधिकारी बनाया.इस कार्य को सुभाष ने परिश्रम व दक्षता से संभाला.उन्होंने सभी मार्गों व प्रमुख स्थानों के नाम भारतीय महापुरुषों या विभूतियों के नाम पर निर्धारित किये तथा स्वतंत्रता संग्राम के बलिदानियों को रोजगार प्रदान कराया .सुभाष की लोकप्रियता इतनी चरम पर पहुँची कि उनको कांग्रेस के गुवाहाटी अधिवेशन में अध्यक्ष चुना गया जबकि उनके विरोध में गांधीजी के प्रिय पट्टाभि सीता रमैय्या प्रत्याशी थे.वरिष्ठ कांग्रेसियों से मतभेद के कारण सुभाष दुखी थे क्योंकि अंग्रेजों की धोखाधड़ी पर विश्वास न कर वो पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे.सुभाष ने इस पद से त्यागपत्र दे दिया.
सुभाष के सत्ता विरोधी कार्यों से त्रस्त ब्रिटिश सरकार ने उनको बंदी बनाकर सर्वप्रथम १९२१ में जेल में डाल दिया.फिर उनको छोड़ा गया, इसके बाद एक क्रांतिकारी साथी गोपीनाथ को फांसी की सजा मिलने से दुखी सुभाष फूट-फूट कर रोये स्वयं उनका अंतिम संस्कार किया अंग्रेजों को उनसे अपने लिए खतरा बढ़ता दिख रहा था अतः उन्होंने उनको बंदी बनाकर मांडले कारावास में डाल दिया.
5 नवम्बर १९२५ को अपने राजनीतिक गुरु देशबंधु चितरंजन दास का शरीरांत उनके लिए बज्रपात के समान था .सुभाष रोगों के चपेट में आ गए,उनका स्वास्थ्य गिर रहा था पर अंग्रेज घबराते थे उनको छोड़ने में परन्तु उनके स्वास्थ्य की गम्भीर अवस्था को देखते हुए अंग्रेजों को उनको मुक्त करना पड़ा. कुछ समय बाद पुनः बंदी बनाये सुभाष को कोलकाता का मेयर बनने पर रिहा करना पड़ा.१९३२ में अल्मोड़ा जेल भेजा गया सुभाष को,स्वास्थ्य की समस्या को देखते हुए पुनः जेल से बाहर आये .इसके पश्चात सुभाष १९३३-३६ तक यूरोप रहे जहाँ स्वास्थ्य की देखरेख के साथ वो अंग्रेजों को भारत से बहिष्कृत करने के जूनून में अंग्रेजों के कट्टर शत्रु शक्तिशाली मुसोलिनी से मिले.
भारत में रहते हुए यद्यपि गांधीजी द्वारा चलाये विभिन्न आंदोलनों साईमन कमीशन का विरोध,सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी ,परन्तु गांधीजी की कार्यप्रणाली उनको संतुष्ट नहीं कर पा रही थी उनके हृदय में अंग्रेजों को अविलम्ब देश से बाहर करने की ज्वाला धधक रही थी और ,उसके लिए कुछ भी करने को कृतसंकल्प थे.विविध पदों पर रहते हुए सुभाष श्रमिकों को तथा युवाओं को तथा अन्य सभी वर्गों को संगठित करने के लिए प्रयत्नशील बने रहे.
विदेश से लौटने के बाद गांधीजी व सुभाष के मतभेद बढ़ते ही रहे गाँधी जी द्वारा समर्थन न मिलने के बाद भी सुभाष पुनः भारी बहुमत से चुनाव जीते गांधीजी से उनका विरोध भगत सिंह आदि वीरों को फांसी से बचाने को लेकर भी था. ,बापू सुभाष की जीत को सह नहीं पाए और उन्होंने सुभाष की जीत को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. और ये सिद्ध हुआ कि व्यक्तिगत हित ,पूर्वाग्रह,प्रतिष्ठा तथा निजी हठ किस सीमा तक जा सकते हैं.गांधीजी के अनुयायी सुभाष का सहयोग नहीं कर रहे थे,दुखी सुभाष को फिर पदत्याग करना पड़ा.
अब उनके लिए कांग्रेस में रहना संभव नहीं था अतः उन्होंने फारवर्ड ब्लोंक की स्थापना की तथा गांधी जी ने उनको कांग्रेस से निकाल दिया.सुभाष के संगठन ने जी-जान से प्रयत्नशील रहकर अपने अभियान को आगे बढ़ाया.ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बने सुभाष पुनः जेल भेज दिए गए ,परन्तु उनको मुक्त करना अंग्रेजों की विवशता थी एक तो उनका खराब स्वास्थ्य और उनकी लोकप्रियता के भय से.. उनको घर में नजरबन्द कर अंग्रेज राहत की श्वास नहीं ले पाए तथा सुभाष छद्मवेश में अपने साथियों के सहयोग से भारत से बाहर निकल गए तथा अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुंचे. ! “ENEMY OF ENEMY IS YOUR FRIEND”के कूटनीतिक सिद्धांत को मानते हुए ही उन्होंने ये कदम उठाया.यद्यपि हिटलर की भारत में विशेष रूचि न होने के कारण वहां कोई विशेष सहयोग नहीं मिला.इसके पश्चात सुभाष जर्मन पनुदुब्बी में अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर अपने साथी के साथ पूर्वी एशिया के लिए निकले तथा ९० दिवस तक अपने प्राणों को अपनी हथेली पर लिए प्राणघातक समुन्द्र में आगे बढ़ते रहे …..उन्हें तो चलते जाना था… और पूर्वी एशिया पहुँच गये. परन्तु इससे पहले जर्मनी में भी अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जनवरी १९४२ से रेडियो बर्लिन के माध्यम से उन्होंने नियमित रूप से आह्वान किया भारतीयों का तथा सम्पूर्ण विश्व का अंग्रेजों को भारत से बाहर भगाने का. जिसने भारतीयों में नव उत्साह,नव स्फूर्ती का संचार हुआ.सुभाष जर्मनी से सिंगापूर आये और रास बिहारी बोस से पूर्वी एशिया में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की बागडोर संभाली और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का गठन किया ७००० सैनिकों के साथ.इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज की महिला टुकड़ी “झांसी की रानी” रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे.आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया .उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये थी खतरे की घंटी न जाने किस किस के लिए .
नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की.जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो.धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी .परन्तु जैसा की पूर्व लेखों में भी लिखा है जिसकी आवश्यकता धरा पर है उसी की पुकार “वह” करता है.
नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए.और शेष सब रहस्य बन गया और खो गए अनंत में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस.आज तक यह रहस्य रहस्य ही है. अंततः वो हमारे मध्य सशरीर नहीं रहे.परन्तु लाख बाधाएं सामने आने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और वो चलते ही रहे चलते ही रहे ………………..

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