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आपकी बहु किसी की बेटी और आपकी बेटी किसी की बहु है (समझें)

chandravilla
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एक पढ़े लिखे परिवार में अम्माजी से बात हो रही थी ,बातों बातों में कोई बर्तन टूटने की घटना वो अपने परिवार की बता रही थीं.(ध्यान से पढिये) उनकी पुत्री का नाम था भावना और पुत्रवधू का नाम रजनी था.संयोग से बर्तन एक बार पुत्री से टूटा और किसी और दिन पुत्रवधू से .उन्होंने घटना बताते हुए कहा “रजनी ने अचार वाला मर्तबान (बर्नी,जार) तोड़ दिया” कुछ देर बाद वो बोलीं”,भावना से जार टूट गया.” खैर मुझसे चुप न रहा गया ,मैंने पूछा अम्माजी “ऐसा कैसे संभव है कि बहु रजनी ने तोड़ दिया और बेटी भावना से टूट गया” अम्माजी थोडा संकोच में थीं,उन्होंने बात सम्भाल ली.(यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ कि वो अम्माजी एक बहुत अच्छी सास थीं,आज वो इस दुनिया में नहीं हैं.)
उपरोक्त घटना बताने के पीछे भावना है,आम मानसिकता ,जो कहीं न कहीं अवचेतन में रहती है, जिसके कारण जो तादात्म्य होना चाहिए नहीं स्थापित हो पाता बर्तन टूटने की प्रक्रिया तो एक जैसी थी “फिर तोड़ दिया” या “टूट गया” का अंतर कुछ पक्षपात दर्शाता है.और अप्रत्यक्ष रूप में यह छोटा सा …………. दृष्टि का अंतर ही समस्या की जड़ है.यह सही है कि भावना दोषपूर्ण नहीं बस दृष्टिकोण. ! .प्राय.बच्चों को बड़ा होते देख सभी माता-पिता उनके विवाह के स्वप्न देखते हैं. पारम्परिक शुभ मांगलिक कार्यों को सम्पन्न कर हम किसी की बेटी को अपने कुल की शोभा ,लक्ष्मी बनाकर अपने परिवार में लाते हैं. इसी प्रकार लडकी को बड़ा होते देख उसके विवाह की कल्पना जहाँ एक ओर उसके माता-पिता को भावुक बना देती है.वहीँ लडकी को विवाह कर विदा करने की हसरत सदा हृदय में रहती है.स्वयं लडकी भी अपने विवाह की कल्पना में प्राय उमंगों से सराबोर रहती है,जिसमें उसके साजन के अतिरिक्त शेष परिवार जन भी होते हैं.वह केवल पत्नी नहीं,बहु,भाभी.चाची,ताई ,देवरानी ,जेठानी ………….बहुत सारे रिश्ते निभाती है.
कुछ समय पश्चात न जाने परिवार में क्या परिवर्तन आता है कि बहु में दोष ही दोष दृष्टिगत होने लगते हैं और उधर लडकी भी ससुराल पक्ष के प्रति अपना दृष्टिकोण बदल लेती है और कुछ परिवारों में तो ३६ का आंकडा बन जाता है लडकी के मात-पिता भी उसके मस्तिष्क में यही भरते हैं कि ससुराल वाले तो उसके शत्रु हैं.,और लडकी के ससुराल पक्ष के लोग परिवार की हर मुसीबत की जड़ बहू और उसके परिजनों को ही मान लेते हैं.
बहुत माथापच्ची के बाद जो निष्कर्ष सामने आये वही लिख रही हूँ बहु के संदर्भ में यदि विचार करें तो उसके घर में आने से पूर्व ही हम बहुत सारी अपेक्षाएं उससे रखते हैं,जैसे कि काम का बोझ कम हो जाएगा,(जिन परिवारों में दहेज का लालच होता है )वहां दहेज को लेकर आकांक्षाएं रखी जाती हैं कुछ परिवारों में अगली पीढी की शीघ्रता भी कलह का कारण बनती है.एक विषम कारक तथ्य है माँ के लिए व अन्य परिजनों के लिए ,अपने लड़के का प्यार,घर के अन्य सदस्यों के साथ-साथ उसकी पत्नी के लिए बंट जाना.इन सबके अतिरिक्त सर्वोपरी है हमारी मानसिकता.हर व्यक्ति चाहता या सोचता है कि जो वह करता है वह गलत नहीं दूसरा जब वही कार्य करता है तो अनुचित है………….. .उदाहरणार्थ अपनी पुत्री के परिवार में माँ को हस्तक्षेप करने में सब कुछ सही लगता है,दामाद पुत्री को अपने परिवार वालों पर प्राथमिकता देता है तो अच्छा लगता है,.पुत्री गृहकार्य में दक्ष नहीं है या करती नहीं तो कोई बात नहीं ,परन्तु बहु का गृह कार्य में दक्ष न होना या कम करना उसका अक्षम्य अपराध है.पुत्र यदि बहु को प्राथमिकता देता है तो वह जोरू का गुलाम है और अपनी पत्नी के सिखाने से वह उसके आगे -पीछे घूमता है. ,इसी प्रकार बहु के परिवारजनों का हस्तक्षेप बहुत बड़ा अपराध है. हर माँ यह भूल जाती है कि जिस प्रकार अपने ससुराल में आने पर उसको पति का साथ अच्छा लगता था बहु भी वही चाहेगी और पीढी अन्तराल भी है.दुसरे शब्दों में माँ स्वयं कभी नयी नवेली थी,बहु थी,स्वयं नन्द किसी परिवार की भाभी भी है आदि आदि..
विवाह के बाद कुछ नए उत्तरदायित्व लडकी के कन्धों पर होते हैं,हर लडकी यह समझ नहीं पाती .किसी भी परिजन का कुछ भी समझाया जाना उसको टोका टोकी लगने लगता है,घर का थोडा बहुत कार्य उसको अपने ऊपर अत्याचार लगता है,उसका पति घर के अन्य सदस्यों के साथ उसका समय बांटता है तो वह .पत्नी की उपेक्षा करता है.दुसरे शब्दों में ससुराल में अधिकार मिलने तक सब अच्छा है, कर्तव्य का निर्वाह करना बोझ……… ससुराल में बेटी बनना अधिकार मिलने के संदर्भ में अच्छा है परन्तु किसी के टोकने पर यह भुला दिया जाता है कि मायके में भी तो ऐसी स्तिथि आती थी, डांट तो मायके में भी पड़ जाती थी ..आदि आदि..
आवश्यकता है एक समझ की जिसको हम म्युचुअल अंडरस्टेंडिंग कहते हैं.जब हम किसी की बेटी को अपने परिवार में लाते हैं तो उसको अपने पितृ गृह (जहाँ वह अपने संस्कारों की नीव पड़ने वाले २०-२५ वर्ष बिता कर आयी,है) से सर्वथा भिन्न वातावरण मिलता है रहन -सहन ,खान-पीन,स्वभाव आदि ,कुछ समय तो लगेगा अनुकूलन में नवविवाहित होने पर पारस्परिक समझ विकसित करने में पति-पत्नी को भी समय चाहिए बस परिवारजन यदि बहु को बेटी मानते हुए यह सब समझ सकते हैं तो बल्ले-बल्ले .इसी प्रकार यदि यही सोच लडकी की भी हो और वो इस सत्य को समझ सके कि थोड़े से परिश्रम से सब का मन जीतकर वह सब को अपना बना सकती है,(यद्यपि जॉब पर जाने वाली लड़कियों को परिवार के साथ रहने का अधिक समय नहीं मिल पाता परन्तु परिवार से सम्बन्ध सदा का ही होता है,)सम्बन्ध तो दूर रहते हुए भी मधुर रहने आवश्यक हैं.परिवार की बेटी बने रहने के लिए कुछ कर्तव्य तो उसके भी हैं लडकी के परिवारजनों का उसकी ससुराल में नकारात्मक हस्तक्षेप प्राय विवादों को जन्म देता है.. इन सब के अतिरिक्त स्वयं पुत्र या लड़के की समझदारी पारिवारिक सम्बन्धों को सुखद बना सकता है.

बहुत ही कम सौभाग्यशाली परिवार ऐसे हैं जहाँ सम्बन्धों में माधुर्य है,अतः साथ रहने की परम्परा टूट रही है.ससुराल में बहु को बेटी का स्थान मिलना और बेटी का ससुराल को अपना` घर मान कर चलना खुशियों की बरसात कर सकता है.

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