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उमा-शिव,राधा-कृष्ण,गोपिकाएं -कृष्ण,वैदेही-राघव,रति-अनंग ,मीरा-श्याम आदि के अलौकिक ,दिव्य प्रेम की गाथाओं से परिपूर्ण हमारे ग्रन्थ -पुराण प्रेम के अढाई आखर से जहाँ हमें सराबोर कर देते हैं, लैला-मजनू,हीर-रांझा,देवदास-पारो आदि के लौकिक प्रेम की गाथाओं से भी हमारा परिचय पुस्तकों,पत्रिकाओं,नाटकों व फिल्मों के माध्यम से होता रहा है.जन्म से पूर्व व जन्म लेते ही बच्चे व माँ के मध्य ममता का प्रेम का अटूट बंधन(जो प्रेम का पवित्र रूप है) स्थापित हो जाता है. परिवार में पिता,दादी-बाबा,भाई-बहिनों,मित्रों,गुरुजनों ,प्रकृति और न जाने कितने ही अन्य रिश्तों से प्रेम का सूत्र जुड़ा रहता है. उम्र की डगर पर चलते न जाने कितने ही राही मिलते हैं ,किसी न किसी रूप में उन पुरुष-महिला साथियों से भी जुड़ते हैं,मित्रता भी होती है ,मैत्री का सम्बन्ध प्रेम में भी कभी कभी परिणित हो जाता है. परन्तु कभी प्रेम मिलन में परिणित हो जाता है तो कभी विविध विवशताओं के चलते दोनों प्रेमी जुदा राहों पर चलने को विवश हो जाते हैं.
प्रेम के छोटे से व सरल शब्द ने इतने व्यापक अर्थों को अपने में समेटा हुआ है कि प्रेम को परिभाषित करना असंभव सा ही प्रतीत होता है.कोई प्रेम को त्याग-बलिदान का पर्याय मानता है,कोई सम्मान को प्रेम समझता है ,कहीं प्रेम भक्ति के पावन रूप में दृष्टिगोचर होता है तो जूनून या दीवानगी को भी प्रेम का चरम माना जाता है, किसी व्यापारी का सारा प्रेम अपनी धन दौलत को दिन दूनी रात चौगुनी करने में है तो कवि का अपनी रचनाओं से,चित्रकार अपनी तुलिका व रंगों के सहारे से वो कह कह देता है जो शायद जुबान कभी न कह सके.चालक अपनी गड्डी या वाहन को अपनी प्रेयसी मान लेता है.कोई प्रेम के कारण आद्वितीय रचनाएं कर महान साहित्यकार बन गया तो किसी ने एक दुसरे के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी.
फिल्मों ,व सस्ते साहित्य, आधुनिकतम संचार साधनों के रंग में डूबी युवा पीढी (अपवादों को सम्मिलित न करें) पहली नज़र में दीवानगी का दम भरते हुए , उपहारों के आदानप्रदान,साथ घूमने-फिरने,महंगे परिधानों में सजे शारीरिक सहज आकर्षण को प्रेम का नाम दे कर अपने को आधुनिक मान बैठती है हैं .घूमना फिरना,ऐश करना,और कभी धुआं उड़ाने व ,शराब व नशे के अन्य साधनों का सहारा लेकर अपने तथाकथित आनंद या गम को सेलिब्रेट करना इनका एक सूत्री कार्य क्रम बन जाता है. नित नए सम्बन्धों को मित्रता का नाम देने वाले इन युवाओं को जो सभी मर्यादाओं का उल्लंघन करना ही प्रेम मानते हैं ,तथा अगले ही दिन “तू नहीं और सही,और नहीं और सही” मित्रता व प्रेम के नाम पर कलंक कहना ही उपयुक्त होगा.
तुतलाती भाषा में तथा पूरे वाक्य न बोल सकने की अबोध आयु में आज का शिशु “आयी लव यू ” तथा “लव यू टू” सीख कर थोडा बड़ा होता है .इन शब्दों को बोलना कोई बुरा नहीं, अन्य लोगों के साथ फिल्में या अन्य सभी कार्यक्रम देख कर कब इन शब्दों के अर्थ उसके लिए बदल जाते हैं ,पता नहीं चल पाता. इन समस्त मनोरंजन के साधनों में उसके लिए उपरोक्त वाक्य बोलने का अर्थ अपने माँ-पापा,बहिन-भाई या अन्य परिवार जनों को प्रसन्न करना नहीं होता,यहाँ आयी लव यू लडकी या लड़के को कहते हुए देखता है और अश्लील गीत गाते व दृश्य देखते हुए उसके लिए प्रेम का अर्थ यहीं तक सीमित हो जाता है,बढ़ती नाज़ुक उम्र के साथ यही विद्या सीखता हुआ नादान बच्चा किशोर बनता है . किशोर से युवा बनते बनते अधिकाँश युवा अपने तथाकथित प्रेम को बाजारू बना देते हैं.तथा अश्लीलता का मुलम्मा चढ़ाये इसी को जीवन मान बैठते हैं. और फिर जब तक वह जीवन के यथार्थ का सामना करने योग्य होते हैं तो एक भिन्न दुनिया उनके सामने होती है जहाँ प्रेम का ज्वर उतर जाता है और कहीं तंदूर में राख बना दिया जाता है प्रेम को, तो कहीं फ्रीजर में लाश सुरक्षित रखी जाती है और प्रेम के टुकड़े टुकड़े कर पहाड़ी से फ़ेंक दिया जाता है.दिन रात लडाई झगडे ,मारपीट और गाली गलौज हत्या-आत्महत्या के साथ विवाह टूटते हैं.
प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रेम की यह उद्दात भावना आज दिन प्रतिदिन दूषित होने का कारण आखिर क्या है,?सही अर्थों में देखा जाय तो आज हमारी मनोवृत्ति,सोच ,वातावरण ,उपभोक्तावाद तथा बाज़ार ने प्रेम का नखलिस्तान खड़ा किया है.आज प्रेम शर्तों पर आधारित है,स्वार्थ जो प्रेम का कट्टर वैरी है आज हावी है.आज का प्रेम “प्रेम न बाड़ी उपजे प्रेम न हाटी बिकाय “नहीं है अपितु प्रेम के मापदंड बाज़ार तय करता है,मानो गरीब होना प्रेम के लाईसेंस में अपात्रता है.और यही कारण है कि ऋतू राज बसंत जो प्रेम की ऋतु है तथा प्रकृति भी इस प्रेम ऋतु का भरपूर श्रृंगार स्वयम करती है में हम केवल एक दिन प्रेम पर्व के रूप में मनाते हैं. पुष्पों व उपहारों का (जिनसे बाज़ार पटा पड़ा है) आदान-प्रदान कर हर्षित होते हैं,समाज से जबरन अनुमति मीडिया दिला ही देता है.
क्या यही प्यार है??????????????????? प्रेम जिस पर मर मिटना ही जीवन माना जाता है उसका ये स्वरूप हमें कहाँ ले जा रहा है.
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