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जीवन का संध्या काल और उपेक्षा?

chandravilla
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(कुछ समय पूर्व एक लेखमाला के रूप में घरेलू हिंसा के शिकार पत्नी,पति,बच्चों तथा वृद्धों पर लेख लिखे थे,वृद्धों पर लिखा लेख पता नहीं सर्वर की कमी से या मेरी त्रुटि से गायब हो गया था,तब से पुनः लिखने का विचार था.परन्तु अन्य विषयों पर लिखने के चक्र में ऐसी उलझी कि लिख न

सकी.अभी एक बहुत ही समझदार,परिपक्व विचारों वाले वृद्ध दम्पत्ति से भेंट हुई तो फिर इस विषय पर लिखने का मन बना और विचारार्थ लेख प्रस्तुत है.)
! मानव जीवन की चार अवस्था (बाल,युवा ,प्रौढ़,वृद्ध) (प्राय) परमात्मा से दीर्घ आयु का वरदान लेकर आने वाले सभी मानवों के जीवन में आती हैं. जीवन का संध्याकाल या वृद्धावस्था जहाँ एक समय में विश्राम करने,अपने परिवार के साथ रहने तथा प्रभु को स्मरण करने में सरलता से व्यतीत हो जाती थी ,आज वही अधिकांश परिवारों में स्थिति दुसह बनती जा रही है.यही कारण है कि शत वर्ष तक जीवन की कामना करना अब वरदान नहीं अभिशाप बन रहा है.(अधिकांश जनों के लिए)
!आखिर इस परिवर्तन का क्या कारण हैं ,यही विचारणीय विषय है——-
परिवारों का घटता आकार
सम्बन्धों में बढती व्यक्तिवादिता या परिवर्तित सोच
जीवन शैली में परिवर्तन
महानगरीय जीवन
पाश्चात्य विचारधारा का प्रभाव आदि आदि………..
! हमारे` धर्मशास्त्रों में मानव जीवन की चतुर्थ अवस्था को संन्यास लेने की अवस्था निर्धारित किया गया,जो एक आदर्श व्यवस्था है,परन्तु संयमित जीवन,निरोगी काया,स्व प्रवृत्ति तथा दृढ इच्छा शक्ति के बल पर ही यह व्यवस्था संभव है.
!संतान के जन्म के पश्चात अपना सुख-दुःख सब कुछ विस्मृत कर उसके पालन-पोषण में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले अधिकांश माता-पिता आज दर दर की ठोकरें खाने ,परिवार में रहते हुए अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हैं.आधुनिक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न फ्लैट्स ,अपार्टमेंट्स भाग-दौड़ की जिन्दगी में सब कुछ खो गया है
! परिवार में बुजुर्गों की छाया में रहना ,उनके अनुभवों से लाभ उठाना,(बड़ों की सेवा करने से ही परलोक सुधरता है जैसी सोच) सर्वप्रथम तो परिवारों में है नहीं,और यदि है भी तो कुछ सौभाग्यशाली परिवारों में ही यह सद्वृत्ति मिलती है.आश्चर्य तो तब होता है,माता-पिता को अपना सबकुछ मानने वाले संस्कारों से सम्पन्न संतान को बोझ दिखने लगते है माता-पिता.
! जीवन के संध्याकाल में प्राय जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है,उनमें प्रमुख हैं,शारीरिक अक्षमता,असाध्य रोगग्रस्तता,आर्थिक विपन्नता और भावनात्मक समस्याएँ .अपने स्वर्ण जीवन काल में अपने संगी-साथी ,कहीं भी आने-जाने में सक्षमता,आर्थिक आत्मनिर्भरता और इन सबके साथ अपने ढंग से जीवन जीना आदि स्थितियां लगभग प्रतिगामी हो जाती हैं.व्यक्ति के पास समय अधिक होता है,और काम कम

! प्राय परिवारों के ढांचें में ३-४ रूप विद्यमान रहते हैं -कृषि,व्यापार आदि पर आधारित परिवार.जो वंशानुगत चले आ रहे हैं,परन्तु ऐसे परिवारों की संख्या अब बहुत अधिक तो नहीं है,परन्तु ऐसे परिवारों में छोटे-मोटे झगड़ों के बाद भी प्राय जीवन व्यतीत हो जाता है.क्योंकि सदस्य पर्याप्त होने पर कुछ सीमा तक भावनात्मक समस्याएं कम होती हैं.(यद्यपि सम्पत्ति विवाद से समस्याएं बहुत अधिक होती हैं.)
! शहरों में रहने वाले परिवारों में अब लगता है,दिल भी संकुचित हो गये हैं,जो स्थान की कमी तथा महंगाई का रोना रोते हैं दुःख तो तब होता है,जिन माता-पिता ऩे अपनी बहुमूल्य वस्तुएं बेचकर,अपनी भविष्यनिधि से धन उधार लेकर तथा ऋण लेकर भी बच्चों की आवश्यकताएं,पढाई का व्यय वहन किया था,उन माता-पिता को जली कटी सुनायी जाती हैं,,उनको अहसास कराया जाता है कि अब उनका बोझ ढोना पड़ रहा है, वो निकम्मे हैं आदि आदि……………,कई बार तो छोटी छोटी दैनिक आवश्यकताओं के लिए तरसना पड़ता है उनको,,मेहमानों के आने पर उनको उपेक्षित अजनबी की तरह रहना पड़ता है.बच्चों से आत्मीयता बढ़ाने के लिए तरसते माता-पिता के पास बच्चों को जाने नहीं दिया जाता परिणाम स्वरूप बच्चे भी उनकी उपेक्षा करते हैं.और इससे भी बड़ा नैतिकता का पतन जब उनको घर से बाहर निकाल दिया जाता है
! महानगरों में रहने वाले बच्चों के समक्ष कुछ तो हैं ही कठिनाई, कुछ अकेले रहना ही अच्छा लगता है आज़ाद जीवन जीने की चाह में या तो परिवार वृद्धि के विषय में सोचना नहीं,और यदि बच्चे हैं भी तो उनको शिशु पालन गृहों (क्रेच) में या आयाओं के भरोसे छोड़ना स्वीकार है परन्तु माँ-बाप को साथ रखना गंवारा नहीं.यदि पति पत्नी दोनों ही काम पर जाते हों तो ऐसी परिस्थिति में बुजर्गों के लिए वहां रहना भावनात्मक दृष्टिकोण से तो दुष्कर ही.है.
जिन वृद्ध दम्पत्ति के संदर्भ में लिखा है उनसे या उन जैसे अन्य लोगों से मिलने पर ऐसी बहुत सारी समस्याएं सामने आती हैं
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!समस्या का एक दूसरा पक्ष भी है जहाँ बच्चों के भरसक प्रयास,अनुग्रह के बाद भी माता -पिता अपना स्थाई घर छोड़ कर जाना नहीं चाहते ,कुछ लोगों को अपने धन दौलत का अहंकार भी रहता है.और ऐसी स्थिति में अपराध बोध से ग्रस्त होना पड़ता है उनके बच्चों को.उन लोगों का तर्क होता है,हम अपने घर में आज़ादी से रहते हैं ,वहां जाने से हमको उनकी तरह रहना होता है.इससे भी बड़ी समस्या होती है,जब वृद्ध पति-पत्नी में से एक शेष रह जाता है,ऐसी स्थिति में दुश्वारियां बहुत बढ़ जाती हैं.विशेष रूप से भावनात्मक .
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!समस्या जटिल और दुखद है आवश्यकता है उसका सकारात्मक हल खोजने की.ये नहीं भूलना चाहिए कि शाश्वत युवावस्था का वरदान किसी के पास नहीं है,आज अपने माता-पिता का अपमान,उपेक्षा कर जो बीजारोपण हम कर रहे हैं वही हमारे समक्ष भी आने वाला है यदि उनकी आवश्यकताओं को थोडा कष्ट उठाकर भी पूर्ण किया जा सकता है,तो करना चाहिए.व्यस्तता के कुछ क्षणों में कुछ पल उनके लिए निकाल कर उनके सुख-दुःख की बातें सुनकर उनको अपनेपन का अहसास कराया जा सकता है.अवकाश के दिन यदि उनको कहीं ले जाना संभव है तो अच्छा है,अन्यथा घर में कुछ समय साथ व्यतीत किया जा सकता है.यदि समयाभाव के कारण उनकी देखरेख के लिए कोई सेवक या सेविका भी रखनी पड़ती है तो भी समय मिलने पर उनके कुछ काम यथासम्भव स्वयं कर देने से उनको बहुत अच्छा लग सकता है. .हमारे सभी धर्म ग्रंथों में यही शिक्षा दी जाती है कि सेवा निरर्थक नहीं जाती.संस्कार के माध्यम से ही स्थिति में सुधार हो सकता है,अन्यथा तो अन्धकार ही अन्धकार है.
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! मेरा अनुरोध बुजुर्ग पीढी से भी है उनको भी बच्चों की विवशता समझनी चाहिए.जीविकोपार्जन हेतु बच्चे बाहर हैं तो उनके साथ रहने में उनकी विवशता समझते हुए, उनके साथ समायोजन करके ही जिन्दगी को हंसी खुशी बिताया जा सकता है.यदि बच्चों के साथ रहेंगें तभी आगामी पीढी का जुड़ाव संभव है,अन्यथा तो वो भी आपको नहीं अपना सकेंगें. ऐसे बहुत से परिवार हैं ,जहाँ छोटे बच्चे कभी कभी मिलने दादी बाबा को मेहमान समझते हैं.यथासंभव अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी जिम्मेदारियों में सहयोग दे कर भी जीवन को सहज बनाया जा सकता है.शारीरिक क्षमता के अनुसार थोडा बहुत बाज़ार का या घर के काम में सहयोग दिया जा सकता है,
————————————————————————————————- अंत में केवल इतना ही कहना चाहूंगी कि माता-पिता का ऋण हमारे ऊपर होता है,जिससे उऋण तो नहीं हुआ जा सकता परन्तु गुनाह से बचा जा सकता है,अपना उत्तरदायित्व समझ उनकी देख रेख करिए तथा सम्मान व भाक्व्नात्मक संबल प्रदान करिए.

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