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चार कदम हम चलें तो दो आप भी

chandravilla
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समाज में पीढी अन्तराल सदा ही रहा है.लगभग २५-३० वर्ष बाद नवीन पीढी का आगमन होता है,जो अपने साथ नवीन विचारों को लेकर आती है,स्वाभाविक रूप से पुरानी पीढी उन विचारों को स्वीकार नहीं करती और कहीं न कहीं टकराव होता है.यह समस्या कोई नयी नहीं है,यहीं पर समायोजन का फेविकोल दोनों को जोड़ता है,फेविकोल का जोड़ जितना पक्का होता है,उतना ही समायोजन हो जाता है .काफी समय पूर्व तक नयी पीढी तुलनात्मक रूप से समायोजन कर ही लेती थी. .कारण था उनका पारिवारिक व्यवसाय या खेती बाड़ी से ही जीविकोपार्जन करना.शिक्षा का प्रचलन बहुत अधिक था नहीं और यदि कुछ लोग पढ़ते -लिखते भी थे तो भी स्त्री जाति की शिक्षा सामान्य परिवारों में कम होने या अन्य निर्भरताओं के चलते संयुक्त परिवार की ही व्यवस्था थी.संयुक्त परिवारों में मुखिया का ही आदेश सर्वमान्य होता था.और इच्छा -अनिच्छा से सब उसको स्वीकार करने को बाध्य थे. सबके दुःख सुख में सभी भागीदार होते थे.,.
! समय में परिवर्तन के साथ उद्योगीकरण व नगरीकरण के कारण कृषि पर निर्भरता घटने लगी और व्यक्ति के आजीविका के साधन भी परिवर्तित हुए.आमजन आजीविका की तलाश में नगरों की ओर उन्मुख हुआ और परिवारों का ढर्रा बदलने लगा.जहाँ संयुक्त परिवारों में २-३ पीढी अपने परिवारों सहित संयुक्त रूप से रहती थीं ,द्वितीय स्टेज में रह गये माता-पिता और दूसरी पीढी ,यदि दादी बाबा होते हैं , तो उनकी व्यवस्था के लिए प्राय गाँव का घर होता है,या तो वो वहीँ रहते हैं ,अन्यथा कुछ परिवारों में वो भी साथ रहते हैं. ,
!समय के चक्र के साथ परिवारों के ढाँचे में और परिवर्तन आया तथा प्रोफेशनल शिक्षा या उच्च शिक्षा प्राप्त कर महानगरों की ओर कदम बढे.घरों का आकार छोटा होता गया.और छोटा होता गया परिवारों का आकार.बच्चों को झंझट मानना और शेष सभी लोगों को अपनी स्वतंत्रता में बाधक समझना.,पाश्चात्य या पूर्ण रूप से महानगरीय सभ्यता के रंग में रंगी कुछ प्रतिशत युवा पीढी का दृष्टिकोण था,जबकि कुछ केवल एक या बहुत कम दो बच्चों तक सीमित रहने वाले थे जॉब ,घूमना फिरना,मौज-मस्ती बस यही जीवन.ऐसे में तीसरे या चौथे वो भी एक पीढी पूर्व के सदस्य या अपने भाई बहिन कैसे समायोजित हों.
!बड़ी पीढी छोटे परिवारों के कारण उनके मोह-पाश में तो बंधी है,परन्तु उनमें से बहुत से लोग ऐसे भी हैं,जो समायोजन के लिए तैयार नहीं.कुछ को अपना वातावरण परिवर्तन मंज़ूर नहीं कुछ अपनी जिन्दगी उसी रूप में व्यतीत करना चाहते हैं,जैसे पूर्ववत चली आ रही थी,कुछ को घर छोटे लगते हैं तो कुछ को आत्मीय जनों मित्रमंडली को छोड़ना गंवारा नहीं.
!इसी वर्ग में कुछ लोग ऐसे हैं जो नयी पीढी की जिन्दगी में टोका -टोकी,टीका-टिप्पणी अनावश्यक दखलांदाजी के द्वारा अपना अनचाहा नियंत्रण स्थापित करना चाहते हैं.रहन-सहन का ढंग,वस्त्र-विन्यास,घूमना-फिरना मौज-मस्ती,मित्रमंडली आदि पर कमेन्ट आदि ,बात बात पर अपने स्थान पर वापस लौटने की धमकी देना इनके स्वभाव का अंग बन जाता है.कुछ माता पिता इतने कुटिल भी होते हैं जो परिवारों में खलनायक या खलनायिका का रोल निभाते हैं और उसका चरम होता है पतिपत्नी के सम्बन्धों में दरार डाल देना या प्रयास करना..(शायद ऐसे कृत्यों के पीछे उनकी विकृत सोच या कुंठाएं जिम्मेदार होती हैं) .परिणामस्वरूप टकराव इतना अधिक हो जाता है कि साथ रहना नर्क बन जाता है.और ,दोनों पीढी परेशान हो जाती हैं
!मेरे इससे पूर्व के लेख में प्रतिक्रिया के रूप में एक जटिल समस्या पता चली,जिसको पढ़ कर बहुत दुःख हुआ परिवार में सबसे वरिष्ठ सदस्य का रोल निष्पक्ष होना चाहिए.परन्तु कई बार माता-पिता ही बच्चों में भेद भाव करते हैं,(यद्यपि कहा जाता है कि माता-पिता की दृष्टि में सब समान होते हैं.) और इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार के कारण उनकी स्थिति भी वही हो जाती है कि जिस बच्चे के कारण माता-पिता पक्षपातपूर्ण रुख अपनाते हैं,वही अपना स्वार्थ पूरा होने पर आँखें फेर लेता है,जबकि शेष बच्चों के ह्रदय में उनके पक्षपात पूर्ण व् यवहार के कारण आक्रोश रहता है,विशेष रूप से महिलाओं में .ऐसे में व्यवहारिक रूप से माता-पिता के साथ रहने में मन मिलना आसान नहीं.
एक अन्य समस्या ,जिसकी ओर दुबलिश जी ऩे ध्यान आकृष्ट किया,जिस पर व्यवहारिक दृष्टिकोण से मेरी सोच नहीं पहुँची थी,वह है,लड़कियों को पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा मिलने से उत्पन्न दुश्वारियां ,जिसके चलते भाई बहिन के पवित्र रिश्ते में भी कुछ परिवारों में दरारें आ जाती हैं,और फिर दूरदर्शन के धारावाहिकों में चलने वाली कुटिल पारिवारिक राजनीति प्रारम्भ हो जाती है,जहाँ लडकी या उसके पति द्वारा माता-पिता को भाई भाभी के विरुद्ध भड़काना तथा परिवार को टुकड़े टुकड़े कर देने वाली स्थिति आ जाती है.

उपरोक्त परिस्थिति में साथ रहना एक प्रकार से असंभव सा ही है.क्योंकि साथ रहने में जिस परिपक्व सोच तथा त्याग की भावना की आवश्यकता है,वह समाप्त हो जाती है,और फिर वही स्थिति हो जाती है,
” रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो छिटकाय टूटे से फिर न जुड़े ,जुड़े तो गाँठ पड़ जाय.” और ये तो गाँठ भी इतनी मजबूत हो जाती है कि जिसको खोलना तो बस …………………
स्थिति और भी भयावह हो जाती है,जब वृद्ध पति-पत्नी में से एक ही शेष रह जाता है,या उनके पास धन नहीं होता जो वो अपने परिवार पर या अन्य विवशताओं में खर्च कर चुके हैं,या फिर वो सम्पत्ति विहीन होते हैं.
इसके सर्वथा विपरीत ऐसे भी परिवार हैं,जहाँ माता-पिता की विवशता है,साथ रहना ,उनका ऐसा अनचाहा हस्तक्षेप भी नहीं होता परन्तु बच्चे उनको बोझ समझते हैं ,उनके ऊपर कुछ भी व्यय करना अनावश्यक खर्च मानते हैं, हर समय छोटे छोटे खर्चों को लेकर तानाकशी चलती है,भले ही अपने मनोरंजन पर उससे कई गुना व्यय कर दिया जाय परन्तु उनकी दैनिक आवश्यकताएं या इलाज पर थोडा सा भी खर्च करना उनको अखरता है माता-पिता को .बहुत अधिक परेशान किया जाता है जिसमें उनके रहन सहन पर टोका टोकी उनके किसी भी के साथ बोलने पर नियंत्रण और उस सबसे बढ़कर भावनात्मक हिंसा ,यहाँ तक कि एक कमरे में बंद वो तरसते हैं प्यार के दो बोल के लिए भी.उनको पीड़ित अजनबी बना दिया जाता है.अर्थात यदि किसी मजबूरी के कारण माता-पिता साथ हैं तो उनके बुझे,निराश चेहरे देखकर आप द्रवित हो जायेंगें.
ऐसे भी परिवार हैं जो महानगरों में भी अपने बच्चों के साथ एक दुसरे के साथ हंसती खेलती जिन्दगी में मग्न हैं.दोनों ही पीढियां शांति-सुखपूर्वक रहती हैं.अर्थात “जहाँ चाह वहां राह.” निश्चित रूप से उनका पारस्परिक समायोजन अच्छा .
!
अंत में प्रश्न है समस्या के समाधान का.जिस प्रकार एक हाथ से ताली नहीं बज सकती उसी प्रकार एक पक्षीय समाधान स्थाई नहीं हो सकता ,कोई यदि कर भी लेता है तो वो अस्थाई या विवशता वाली बात है .माता-पिता व संतान का रिश्ता बहुत पवित्र होता है,बहुत कष्टों से संतान को पला जाता है,अपना तन मन धन लगाकर भी संतान को आत्मनिर्भर बनाने में माता -पिता का योगदान रहता है .विकट परिस्थितियों में साथ रहकर तो दोनों पीढ़ियों का जीवन नर्क ही बनेगा..परन्तु यदि दोनों ओर से पूर्वाग्रहों को भुलाकर कोई रास्ता निकाला जा सकता है तो वही श्रेष्ठ हो सकता है.हाँ जैसा कि मेरे द्वारा ऊपर लिखा गया है,समझदारी,त्याग,संस्कारों व परिपक्वता का फेविकोल दोनों पीढ़ियों के मध्य दरार को समाप्त भले ही न कर सके ,कुछ सीमा तक भर सकता है.
बुजुर्ग लोगों को भी अपनी उपरोक्त वर्णित कुटिल सोच बदलनी होगी, यदि जीवन को सहज बनाना है.और साथ ही यह ध्यान रखना होगा कि बच्चों की व्यस्त जिन्दगी में समायोजन उन्हें भी करना है .उनको उनके जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना होगा
युवा पीढी को भी माता-पिता के प्रति अपने दायित्व के प्रति ध्यान रखते हुए ये सोचना होगा कि हमारे लिए इतने कष्ट माता-पिता ऩे उठाये हैं अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर हमें समर्थ बनाया है,तो हम भी अपने कर्तव्य से पीछे न हटें,कुछ कठिनाई उठाकर भी उसको पूर्ण करें..तथा यथासंभव उऋण हों.(उपरोक्त परिस्थितियां सभी परिवारों में नहीं हैं,अतः अति विकट परिस्थितियों के स्थान पर सामान्य परिस्थिति में अपने कर्तव्य का निर्वाह अवश्य करें.)

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