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जिस थाली में खाया उसी में छेद! धिक्कार. jagran junction forum

chandravilla
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मेरा ये आलेख ऐसे देश विरोधी व्यक्ति,नेताओं व लेखक-लेखिकाओं की भर्त्सना है,जो देश का खाकर देश की जड़ें खोदते हैं.
बचपन से एक कहानी पहले स्वयं पढी ,फिर बच्चों को भी सुनायी.है,शायद आप सबने भी पढी सुनी होगी.परन्तु विषय से सम्बद्ध है,अतः यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.
दो बिल्लियों जो अच्छी मित्र थीं, को एक रोटी मिली ,बिल्लियाँ उस रोटी को परस्पर बाँट कर खाने व अपनी क्षुधा मिटने की सोच रही थीं कि एक वानर जो बड़े ध्यान से देख रहा था,अवसर देख कर उस वानर ऩे दोनों बिल्लियों को एक दूसरे के विरुद्ध चढ़ा दिया ये कह कर कि दूसरी बिल्ली तो तुम्हारी रोटी अकेले ही हज़म करना चाहती है.परिणाम वही , ,दोनों बिल्लियों में झगडा  होने लगा. पेड़ पर बन्दर बैठा  जो आग लगाकर तमाशा देख रहा था,इसी प्रतीक्षा में था कि रोटी मै हड़प लूं. ,और  उसको अवसर भी मिल ,गया ,उन को लड़ता देख कर चतुर .बन्दर मीठी मीठी बातें करता हुआ बिल्लियों के पास पहुंचा और बोला ,लड़ो मत लाओ तुम्हारा झगडा सुलझा दूं, आपस में लडती  ,बिल्लियों ऩे उस पर विश्वास कर लिया,और बन्दर के कहे अनुसार एक तराजू उसको ला दी.नियत में खोट तो बंदर की था ही,आधी आधी रोटी तराजू के दोनों पलड़ों पर रखी और जिधर अधिक थी उधर से एक बड़ा टुकड़ा तोड़ कर मुख में रखा और खा गया.अब दूसरी ओर की रोटी अधिक हो गयी थी,इस बार उधर का टुकड़ा खा गया,सारी रोटी समाप्त  हो गयी थी बस  अंतिम टुकड़ा बच रहा था बन्दर बोला ये मेरी विवाद सुलझाने की फीस और वो भी हड़प गया.
प्रदूषित राजनीति का यह प्रमुख तत्व है,जिसमें नेता रूपी बन्दर  जनता रूपी बिल्लियों को परस्पर लडाई में उलझाते  है,कभी धर्म का नाम लेकर ,कभी साम्प्रदायिकता का मुद्दा उठाकर ,कभी भाषा ,कभी प्रांत और ऐसे विभिन्न विषयों को विवादित बनाकर परोसते हैं,और स्वयं आनन्द लेते हैं.
अंग्रेज इसी तकनीक को अपना कर हमारे शासक बन हमारे ऊपर राज करते रहे और जाते जाते भी अपनी करनी से नहीं चूके और एक स्थाई घाव हमें दे गये .अंग्रेजों को संभवतः  आभास था कि भारतीयों में इतनी क्षमता है कि पुनः उठ खड़े होंगें.अतः हमारी भारत भूमि के दो टुकड़े कर गये, जम्मू काश्मीर का विवाद उलझा दिया हमारे ही तत्कालीन नेताओं के कारण और हम ,परस्पर भिड़े रहें और  समस्त ध्यान आपसी लडाई झगड़ों   पर केन्द्रित बनाये रहे,.उनका उद्देश्य भारत कभी भी सर उठाकर पूर्व की भांति खड़ा न हो सके.लगभग पूर्ण हो गया.
अंग्रेज अपनी ये विशेषता अपने अनुवर्ती भारतीय सत्ताधारियों को भी सिखा गये और इतना पारंगत बना दिया कि इन सत्ताधारियों ऩे समस्त मुद्दे ही विवादित बना डाले .प्रारम्भ से ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर विभिन्न राज्यों में विवाद हुआ जो सभी एक प्रकार से सत्ताधारियों द्वारा ही प्रायोजित रहा है,जम्मू काश्मीर का मुद्दा ऐसा उलझाया कि वो सुलझा ही नहीं.आरक्षण का मुद्दा और उसमें जुड़ते नित नूतन अध्याय …………………….कहाँ तक इतिहास को देखा जाय.
वर्तमान में लोकपाल का जो मुद्दा आज एक ज्वलंत मुद्दा है,कोई नया नहीं ४ दशक से अधिक समय से राजनीतिज्ञों ने इसको उलझाये रखा और आज भी नियत कुछ साफ़ नहीं दिख रही है.
उपरोक्त विषय में सबसे दुखद तो ये है कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए ये स्वार्थी,कुटिल नेता देश के विरुद्ध कुछ भी कर सकते हैं.राजनीति में ऐसे उदाहरण तो इतने हैं कि उनकी ,गणना करना भी कठिन है,परन्तु अभी शाही इमाम का उदाहरण,उमर अब्दुल्ला का जघन्य अपराधी अफज़ल का समर्थन करता बयान,अरुंधती राय जैसी देशविरोधी लेखिका,उदित राज जैसे तथाकथित दलित समर्थक नेता भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन को भी हिन्दू-मुस्लिम,दलित-अगड़े-पिछड़े के विवादों में उलझा कर अपनी राजनीति का दांव खेलने से नहीं चूकते.उन सबसे अधिक पीड़ादायक कांग्रेस सरकार का ऐसे बयानों के प्रत्युत्तर में चुप्पी साधना,कभी देशविरोधी रुष्ट न हो जाएँ और उनका वोट बैंक न लूट जाय.
परिवार में मतभेद होना कुछ असामान्य बात नहीं,क्योंकि पूर्ण विचार साम्य असंभव है,और प्रगति को भी अवरुद्ध करता है.एक परिवार में यदि चार पुत्र-पुत्री हैं तो उनमें मतभेद स्वाभाविक हैं,परन्तु यदि परिवार से बाहर कोई व्यक्ति उनके विरोध का लाभ उठाना चाहता है,तो उस लाभ अर्जित करने वाले को परिवार द्रोही के अतिरिक्त क्या संज्ञा दी जा सकती है? वैसे दोषी तो वो परिवार के सदस्य भी हैं,जो ऐसे परिवार विरोधियों की शिक्षा को तो ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं.और अपने परिवार की जड़ें कमजोर बना देते हैं.इसी प्रकार व्यक्तिगत मतभेदों का लाभ उठाने वाले व्यक्ति, नेतागण या सरकार कभी भी देशभक्त नहीं हो सकते.
अंत में ऐसी परिस्तिथियों में आवश्यकता है,मूर्ख बनती जनता में चेतना जागृत करने की.यदि जनता जागृत हो या तो ऐसे देशविरोधियों के हाथों में न खेल कर उनको करारा जवाब दे.इमाम बुखारी हों या कोई भी धर्माचार्य,अरुंधती राय जैसी विकृत मानसिकता वाली लेखिका ,जिनका उद्देश्य प्रचार प्राप्त करना है, ऐसे अनर्गल प्रलापों के माध्यम से वो स्वयं को सुर्ख़ियों में लाकर सफल हो जाती हैं,चाहे अन्ना हजारे को गाली देनी हो या देश के विरुद्ध विष वमन करना हो.यही बात इन धर्माचार्यों की है,वो भली भांति जानते हैं,कि ऐसे पाठ पढ़कर या फतवे जारी कर ही वो स्वयम को शीर्ष पर बनाये रख सकते हैं.ऐसे धर्माचार्य कभी नहीं चाहते कि उनके पिछड़े अनुयायी शिक्षित हों,जागें क्योंकि ऐसे में उनकी गद्दी डोल जाती है.यही कारण हैं कि निर्विवादित विषयों को विवादित बनाकर वो गद्दी का सुख भोगते रहते हैं.
अरुंधती राय के घिनौने कृत्यों पर मैं पहले भी लिख चुकी हूँ ,यदि किसी की रूचि हो तो “कोई पुरस्कार चाहिए क्या” पढ़ सकता है.

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