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श्रद्धा समर्पण और श्राद्ध

chandravilla
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“श्राद्ध” अर्थात श्रद्धा उनके प्रति जो हमारे आदरनीय, वन्दनीय प्रातः स्मरणीय हैं जिनका हमारे जीवन से कुछ भी नाता रहा है. हमारे पौराणिक विधानों के अनुसार भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या के सोलह दिन “श्राद्ध पक्ष” के रूप में महत्पूर्ण दिवस हैं.हिन्दू संस्कृति पूर्वजन्म के सिद्धांत में विश्वास करती है अतः मान्यता है कि हमारे पूर्वज इन दिनों में हमारे साथ रहते हैं.उनके प्रति श्रद्धा समर्पण दान-पुण्य का विधान है.
पुन्य तिथि प्रतिवर्ष उसी तिथि को मनाई जाती है जिस दिन सम्बन्धित व्यक्ति का मृत्यु के पश्चात अंतिम संस्कार होता है.पुन्य तिथि की मान्यता केवल हिन्दू संस्कृति में ही है ऐसा नहीं अन्य धर्मों व संस्कृतियों में अपने प्रियजनों को स्मरण करने की परम्परा है.पुन्य तिथि स्मरण रखने में त्रुटि हो सकती है क्योंकि हमारी संस्कृति में तीन पीढी के पूर्वजों व प्रियजनों के श्राद्ध सम्पन्न किये जाने का विधान है.संभवतः इन्ही जटिलताओं को देखते हुए श्राद्ध पक्ष की व्यवस्था की गयी.है.अतः उसी तिथि को श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है.ये १६ दिन दान-पुण्य के लिए निर्धारित किये गये हैं. ब्राह्मणों, दरिद्रों असहायों घर के सेवकों पशु पक्षियों तक को भोजन दान आदि किया जाता है.श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को भोजन कराने के अतिरिक्त अग्नि देवता की उपासना का विधान है इसके अतिरिक्त भी कौए , गाय तथा श्वान का भी भाग निकाला जाता है. दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है ,कि हमारी संस्कृति में प्राणिमात्र का स्थान है.
श्राद्ध की परम्परा नेपाल में भी बहुत श्रद्धापूर्वक सम्पन्न की जाती है.
पितृ ऋण से उऋण होने के लिए शास्त्रोक्त व्यवस्था श्राद्ध एक आदर्श व्यवस्था है, महान दानवीर कुंती पुत्र कर्ण को एक कथा के अनुसार देहावसान के पश्चात परलोक में स्वर्ण ही स्वर्ण प्राप्त हुआ,उन्होंने प्रश्न किया कि स्वर्ण कैसे खाया जा सकता है तो उनको उत्तर प्राप्त हुआ कि आपने सदा स्वर्ण का ही दान किया है,व्यक्ति जो दान करता है वही उसको प्राप्त होता है.
ये कथा हम एक प्रतीक के रूप में ले सकते हैं,अर्थात निर्धन असहाय जन को वस्त्र,भोजन द्रव्य का दान .दान अपनी सामर्थ्य के अनुरूप दिया जाना चाहिए .और मेरे विचार से सुपात्र को दान देना उपयुक्त है.वर्तमान में बढ़ते प्रदर्शन और कर्मकांडों के कारण प्राय कुछ ब्राह्मण भी सभी विधियों को इतना जटिल बना देते हैं  कि ये सभी कार्य व्यक्ति को एक बोझ स्वरूप लगते हैं.किसी के भी पूर्वज अपने बच्चों को पीड़ित नहीं करना चाहते अतः अपनी क्षमता के अनुसार ही दान की व्यवस्था उचित है. ( भूखों को भोजन तो कभी भी कराया जा सकता है) परन्तु यदि श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा पूर्वक ऐसा किया जा सके तो अत्युत्तम है.
शास्त्रोक्त व्यवस्था के अनुसार यदि किसी कारणवश श्राद्ध पक्ष के शेष दिनों में श्राद्ध के दिन कोई समस्या हो तो पितृ विसर्जनी अमावस्या को भी अपनी श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुरूप अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा समर्पण किया जा सकता है.
प्राय श्राद्ध पक्ष में कुछ नवीन वस्तु या वस्त्र खरीदने में कुछ लोग आपत्ति करते हैं इस विषय में मेरी धारणा यही है कि कोई भी पूर्वज अपने वंशजों की प्रसन्नता में बाधक नहीं बन सकते.भावना महत्वपूर्ण है अतः पूर्वजों की स्मृति बनाये रखने के लिए जो कुछ भी सकारात्मक व श्रेष्ठ हम कर सकते हैं अवश्य करना चाहिए.
अंत में एक महत्वपूर्ण तथ्य और प्राय परिवारों में देखा जाता है कि जीवित माता-पिता या अन्य सम्मानित जन की परिवार में इतनी अधिक उपेक्षा , अपमान होता है कि उनको भोजन वस्त्र के लिए भी तरसना पड़ता है उनको घर से बाहर निकल दिया जाता है, शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनाया जाता है,और उनकी मृत्यु के पश्चात तेरहवी या वार्षिक श्राद्ध पर दिखावे के रूप में अत्यधिक धन व्यय किया जाता है ब्रह्म भोज व अन्य रूपों में. श्राद्ध के रूप में ३६ प्रकार के व्यंजन वस्त्र आदि का दान किया जाता है,.मेरे विचार से ऐसे दान पुण्य या ३६ प्रकार के व्यंजन से कोई भी आत्मा प्रसन्न नहीं हो सकती अतः पहले जीवित माता-पिता की सेवा करिए उनका आशीर्वाद लीजिये और श्रद्धा पुष्प समर्पित करिए.

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