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पेड़ बोये बबूल के आम कहाँ से खाएं (हिंदी दिवस पर विशेष)

chandravilla
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१४ सितम्बर १९४९ को हिंदी दिवस के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी तभी से प्रतिवर्ष हम हिंदी दिवस मनाते हैं .आप सभी को शुभकामनाएं .ईश्वर करे आगामी हिंदी दिवस तक हमारे सभी अंग्रेजी चश्मे से दुनिया देखने वाले हिंदी का मन से सम्मान करें.
एक और कर्तव्य पूर्ण कर रहे हैं चिर परिचित परम्परागत रूप में हिंदी दिवस मनाकर सेमिनार,संगोष्ठियाँ ,वक्तव्य ,भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हुए,परस्पर हिंदी दिवस की बधाई देते हुए .प्रतिवर्ष यही क्रम दोहराया जाता है और दोहराया जाएगा, इसी रूप में .इससे अधिक कुछ और नया करने की स्थिति में हम हैं नहीं क्योंकि हमारी इच्छाशक्ति नहीं.अंग्रेजी  की दासता हमारे मनोमस्तिष्क पर इस प्रकार अधिनायक के रूप में आसीन है कि अंग्रेजी भाषा में लिखने ,बोलने में गर्व का अनुभव करते हैं . ;अभी हम बात कर रहे हैं हिंदी की,  कुछ ही क्षण बाद अपने बच्चों को सिखायेंगें “ग्रेंड  पा “” मौम ” “डैड ” राईस, मून मामा,ब्रो, सिस ……………………ऐसे में कैसे आशा कर सकते हैं कि हमारी भाषा हिंदी अपना सम्मान प्राप्त करेगी.
हिंदी भाषा जिसका स्थान विश्व में तीसरा है विश्व के अधिकांश देशों में हिंदी समझी जाती है हिंदी भाषी भी हैं और वहां हिंदी पर शोध कार्य चल रहे हैं. अर्थात हिंदी की लोकप्रियता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो बढ़ रही है यहाँ तक की अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस भी मनाया जाता है.और हमारे देश में देश के कुछ भागों में हिंदी न बोलना प्रतिष्ठा का प्रश्न है.
भाषा अभिव्यक्ति का साधन  है .शिशु, जन्म के कुछ समय  पश्चात अपनी सांकेतिक भाषा में अपनी इच्छा अपनी पालक को समझा देता है परन्तु  ज्यों ज्यों वह बढ़ता है अस्फुट शब्द “माँ” बोलता है और इसी प्रकार अन्य शब्दों का उच्चारण करता हुआ पहले शब्द और फिर वाक्य भी उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाते हैं स्वाभाविक है जो हम उसको सिखायेंगें जो व्यवहार में भाषा प्रयोग कर रहे हैं वही  वह बोलता है.यहाँ तक कि स्थानीय बोली भी उसकी अभिव्यक्ति का अंग बन जाती  है.अर्थात बच्चा निर्दोष है दोषी  हैं हम, हम ऊपर वर्णित शब्द सिखा कर उसके मनो-मस्तिष्क में ये संस्कार रोपित करते हैं कि माँ, पिताजी , भाई -बहिन ,चावल या दूध  कहना कुछ पिछड़ेपन  का परिचायक है.जो ऐसे बोलता है वह कुछ गंवार है.धीरे धीरे ये जड़ें इतनी मज़बूत हो जाती हैं कि वह बच्चा और उसके माता-पिता गर्व से कहते हैं कि हमारे बच्चे को हिंदी के अक्षर या गिनती समझ में नहीं आते. और इसका एक कारण ये भी है आज माता-पिता अपना तन काटकर भी अपने बच्चों को उन स्कूलों में पढ़ना चाहते हैं जहाँ बच्चा राष्ट् , राष्ट्र प्रतीकों के विषय में कुछ जानता ही नहीं, हिंदी को तो ऐसी उपेक्षा भरी दृष्टि से देखता है ,मानों कोई अजूबा है. “पेड़ बोये बबूल के आम कहाँ से खाएं”.

मैं ये तो नहीं कहूंगी कि हमारा विकास नहीं हुआ परन्तु संभवतः विकास की इससे कई अधिक सीढियां हम चढ़ चुके होते यदि हमारी भाषा एकमत से हमारी अपनी भाषा हिंदी होती.ये बात मैं केवल किसी भावनावश नहीं कह रही हूँ यथार्थ तो ये है कि अपनी भाषा में जितनी शीघ्रता से हम सीख या समझ सकते हैं ,उससे कई गुना अधिक समय दूसरी भाषा में  सीखने में लगता है.जो भाषा हम जन्म के समय से सुन रहे हैं ,सीख रहे हैं उससे भिन्न भाषा चाहे वह कोई भी हो उस भाषा के माध्यम से कुछ भी सीखने में समय अधिक लगेगा.अतः विकास  में हम पिछड़ेंगे.क्योंकि “निज भाषा उन्नति ……………….
एक स्थान पर पढ़ा था कि बी. बी. सी. के मार्क टुली का अवकाशप्राप्त करने के पश्चात बी बी सी पर साक्षात्कार लिया गया जिसमें उनसे प्रश्न किया गया  कि आप  भारतवर्ष से  इतने समय तक जुड़े रहे क्या अंतर आया है स्वाधीनता प्राप्त के पश्चात ?  उनका उत्तर था अंग्रेजी राज समाप्त होने पर भी anglicised rule वहां विद्यमान है और कोई भी वहां अपनी भाषा में बात नहीं करता क्योंकि वहां राष्ट्र भाषा का अस्तित्व वास्तव में नहीं है.अन्य सभी देशों के प्रतिनिधि आमजन यदि कहीं जाते हैं तो अपनी भाषा में बात करते हैं परन्तु भारत में ऐसा नहीं है.और इसके दुष्परिणाम भारत को दीर्घकाल तक भुगतने पड़ेंगें.
यही अक्षरक्ष सत्य  है.हमारे जन प्रतिनिधि, आमजन सिद्धांत में भले ही कहते हों कि हमारी भाषा हिंदी है परन्तु  व्यवहार में अंग्रेजी ही उनकी माई बाप है.जो बिल्कुल भी अंग्रेजी नहीं जानता बस वही हिंदी में बोलता है अन्यथा तो अंग्रेजी में बोलना स्टेटस सिम्बल बना हुआ है.
सत्ताधारियों की इस संदर्भ में यदि इच्छा शक्ति की बात की जाय तो वो कभी रही नहीं.जिसका उदाहरण है संविधान निर्माण के समय अनुच्छेद ३४३ के अनुसार हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा और देवनागरी को लिपि तो घोषित कर दिया गया,परन्तु स्वार्थी राजनीति के चलते साथ में १५ वर्षों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग की छूट दी गयी और १५ वर्ष पूर्ण होते ही इन स्वार्थी तत्वों ने पुनः विद्वेष के बीज रोपे और हिंदी भारत के मस्तक की बिंदी नहीं बन सकी.परन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के ६४ वर्ष पश्चात भी हिंदी सम्मान नहीं प्राप्त कर सकी.आपको सरकारी कार्यालयों में पहुँचने पर संभवतः पट्टिकाएं तो लगी दिख जाएँ हिंदी प्रयोग को प्रोत्साहन देने विषयक परन्तु व्यवहार में हिंदी सर्वथा उपेक्षित है.
विश्व को जीरो देने वाले भारत में हिंदी की गिनती कहीं भूले भटके ही दिखती है.न्यायालयों से अधिक हिंदी का अपमान संभवतः ही कहीं हुआ हो.अनुच्छेद ३४८ के अनुसार उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के लिए तो केवल अंग्रेजी को ही अधिकृत किया गया है.
देश की बागडोर सम्भालने वाले हमारे नेता पूर्णतया अंग्रेजों से भी बढ़कर अंग्रेज थे उनका पारिवारिक वातावरण शिक्षा-दीक्षा ,मित्रमंडली सभी कुछ तो अंग्रेजी था.कहा जाता है,की भारतीय संस्कृति के पुरोधा हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजिन्द्र प्रसाद जी ने हमारे प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को सुझाव दिया की विदेशी प्रतिनिधियों से वार्ता का माध्यम हिंदी होना चाहिए और इसके लिए अनुवादक की सहायता ली जा सकती है ,परन्तु उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई और उपहास बनाया गया.
उसके पश्चात भी “बांटो और राज करो” की नीति पर चलते हुए दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को इतना हवा पानी प्रदान किया गया कि हिंदी को वहां अछूत बना दी गयी और आज स्थिति ये है कि कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में आ जाय अपनी गद्दी की चिंता में हिंदी को वहां सम्मान प्रदान कराने का साहस नहीं करेगा.
आज भी कोई भी राजनैतिक दल,कोई भी नेता कोई भी सुधारक,भाषा वेत्ता हिंदी के विषय में अपनी आवाज़ उठाना ही भूल गया है अतःकोई स्वर ही सुनायी नहीं देता सरकार के पास तो दृढ इच्छा शक्ति व एक नीति का अभाव है ही.अच्छा होगा दक्षिण भारत व अन्य राज्यों में हिंदी के प्रति कटुता दूर करने के लिए ऐसी योजना बनाई जा सके जिससे उन भाषाओं के प्रति उत्तर भारतीयों की भी रूचि जागृत होऔर वो हिंदी सीखना अपना उत्तरदायित्व समझें..और उत्पन्न विद्वेष को दूर किया जा सके
एक बहुत ही सुखद परिवर्तन जो हमारी हिंदी के उज्जवल भविष्य के लिए आशा की किरण के रूप में दिखाई देता है संचार तकनीक में विभिन्न हिंदी के विकल्प उपलब्ध होने का.ऐसे विकल्पों की संख्या में वृद्धि ऐसे लोग, जिनके ह्रदय में हिंदी के अधिकाधिक प्रचार प्रसार की भावना है को सुअवसर प्रदान करता है साथ ही उनके प्रोत्साहन से आने वाली पीढी को भी कुछ प्रभाव पढ़ेगा ही.
——————————————————————————————————मैं अंत में मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि मैं स्वयं हिंदी बोलने लिखने में गर्व का अनुभव करती हूँ ,प्रोत्साहन देती हूँ परन्तु अंग्रेजी क्या किसी भी भाषा को सीखने या समझने में मेरी रूचि है प्रयास भी करती हूँ परन्तु अपनी भाषा की कीमत पर नहीं.कहीं से भी कुछ ज्ञानवर्धन होता हो तो बहुत अच्छा है.अंग्रेजी का अध्ययन करती हूँ प्रयोग (आवश्यकता अनुसार ) करती हूँ,पर अपनी भाषा की कीमत पर नहीं.

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