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निंदक नियरे राखिये ………..

chandravilla
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खेल में विजयी होने पर,परीक्षा में अच्छी सफलता पर,अथवा किसी अन्य गतिविधि में भाग लेकर पुरस्कार के साथ घर बच्चे के चेहरे की दमक घर पहुँचने की जल्दी और माता-पितासे प्रशंसा प्राप्त व लाड पाना अद्भुत क्षण होते हैं,जो उत्साह के साथ उसको आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करते हैं.
स्वादिष्ट खाना बनाने पर ,सजने संवरने पर,कोई अन्य महत्पूर्ण कार्य करने पर पति व परिजनों की प्रशंसा महिला के उत्साह को द्विगुणित कर देती है.पुरुष की किसी भी कार्य में सफलता ,अधिकारी द्वारा सराहना कोई भी उपलब्धि उसको आनंदित करती है.
सेवक कोई अधीनस्थ कर्मचारी शिष्य,कोई भी पारिवारिक सदस्य आदि आदि …..की प्रशंसा आपका कठिन से कठिन काम सरल बना देती है.
जीवन के समस्त क्षेत्रों में जब भी प्रशंसा या सराहना मिलती है तो आगे बढने की प्रेरणा मिलती है.अतः प्रशंसा एक ऐसा दिव्यास्त्र है,जिसके लिए आबालवृद्ध सभी उत्कंठित रहते हैं.आप किसी वृद्ध महिला की पाककला या अन्य किसी भी विशेषता की प्रशंसा करके देखिये ,शरीर में शक्ति न होने पर भी वो आपके लिए भोजन बनाने को तैयार हो जायेंगी.अतः प्रशंसा एक ऐसा दिव्यास्त्र है,जिसके प्रयोग से आप बच्चे से लेकर बूढ़े को भी अपना बना सकते है,यहाँ तक कि पशु पक्षी  भी इस प्रशंसा/प्रेम को समझते हैं.
अतः सकारात्मक प्रशंसा एक शक्तिवर्धक मुफ्त का टोनिक है,और आवश्यक भी है,तथा प्रेरक का काम करता है.परन्तु कभी कभी यही प्रशंसा इन सबसे विपरीत भूमिका का भी निर्वाह करती है. जैसा कि कहा गया है,”अति सर्वत्र वर्जेयत “अर्थात अति प्रशंसा चापलूसी में बदल जाती है,और निश्चित सी बात है कि वहां कुछ न कुछ स्वार्थ है , अति प्रशंसा करने वाले का .,और ऐसे लोग निरर्थक भी प्रशंसा या चापलूसी करते हैं.
.प्राचीन युग में राजाओं की प्रशंसा में भाट चारण लोग अपने शरणदाता राजाओं की प्रशंसा में गाते थे, और प्राय उन राजा महाराजाओं की झूठी प्रशंसा उनको मदहोश रखती थी और उनके विनाश का कारण बनती थी राजा भी केवल अपनी प्रशंसा ही सुनना चाहते थे..विभीषण और लंकापति रावण का उदाहरण इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है,विभीषण ने प्रभु श्री राम की महिमा का बखान करते हुए रावण को माँ सीता को लौटाने का परामर्श दिया तो रावण ने उनको तो लात मारकर लंका से बाहर निकाल दिया और शेष मंत्री ,दरबारी रावण को विरुदावली बखान करते हुए स्वयं तो रावण का कृपापात्र बने रहे परन्तु रावण के कुल का नामोनिशान मिटवा दिया.
यही प्रवृत्ति आज भी है,सभी प्रभावशाली पदों पर आसीन महानुभावों की प्रशंसा कर अहर्निश उनको महिमामंडित करने वाले सदा इर्द गिर्द रहते हैं और उनको आहलादित रखते हैं. ,और सत्ताधारी !……….. उस नशे में खोये रहते हैं.स्वार्थी लोग अपने उल्लू सीधा करते हैं और आमजन पिसता है क्योंकि नेतागण अत्यधिक प्रशंसा से आत्ममुग्धता की स्थिति में पहुँच जाते हैं,और आमजनता के प्रति अपने दायित्व को भुला बैठते हैं.

प्रशंसा करते -करते किसी को  भगवान बना देना, इतनी अधिक प्रशंसा करना कि सीधासरल आदमी भी अपना विवेक खोकर स्वयं को भगवान् ही मान बैठता है बहुत विनाशक स्थिति है..और एक समय ऐसा आता है कि वह व्यक्ति अहंकार और दर्प का शिकार बन जाता है और उसके गुण अवगुणों में बदल जाते हैं और स्वयं उसका पतन होते होते वह रसातल में पहुँच जाता है.
राजनीति व जन भावनाओं से जुड़े क्षेत्रों व आस्था आदि में ये प्रवृत्ति बहुत आम है.एक सामान्य व्यक्ति जिसको कोई महत्त्व समाज में जन दृष्टि में नहीं होता अचानक अपने किसी अच्छे कार्य या प्रदर्शन के चलते ,प्रचार के माध्यम से भगवान् की श्रेणी में पहुँच जाता है,और शीर्ष पर पहुंचकर धडाम से रसातल में भी पहुंचा   दिया जाता है. और ये काम करता है मीडिया .हमारे देश में ये प्रचलन आम है .क्रीडा क्षेत्र में,अभिनय के क्षेत्र में,धार्मिक क्षेत्र में भगवान बनना बहुत आसान है.आप धर्मगुरुओं के दरबार में जाकर देखिये उनके चरणों में बिछे आस्तिक अंधभक्तों को देखिये,.उनके स्तुति गान,चरणवंदना को देखिये,और फिर देखिये उनके घृणित कर्म.(अपवाद संभव हैं)
किसी भी खिलाड़ी का प्रदर्शन अच्छा होने पर,किसी अभिनेता के अभिनय से प्रभावित होने पर ,किसी नेताके सद्कार्यों को देखकर, या किसी भी प्रकार की सफलता को सराहना बहुत अच्छा है,उसके सद्गुणों को यथासंभव अपनाना शुभ लक्षण है,परन्तु ऐसी दीवानगी की आप उस व्यक्ति को भगवान बना दें बहुत ही हानिकारक. उस व्यक्ति के लिए भी जिसकी प्रशंसा की जा रही है,और स्वयं आपके लिए भी. इतना ही नहीं कई बार माता-पिता अपने बच्चों की भी इतनी अधिक प्रशंसा करते हैं कि बच्चे के लिए वो अति प्रशंसा प्रेरक नहीं रहती हानि कारक बन जाती है,उनमें अतिआत्मविश्वास उत्पन्न हो जाता है
” निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय,
बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुभाय”
जिस बात को हमारे अनपढ़ कवि इतनी भली प्रकार समझते थे हम क्यों नहीं समझ पाते.जो अपने शिक्षित होने का दंभ भरते हैं.
अतः प्रशंसा कर मनोबल तो बढ़ाइए परन्तु इतनी नहीं कि उस व्यक्ति का ही अहित हो.और दूसरी और स्वयं प्रशंसा प्राप्त करने वाले को भी अपनी आँख -कान खुले रखने चाहिए चाहे वो परिवार जैसी छोटी ईकाई हो या फिर कोई भी क्षेत्र ,हमारे इतिहास में ऐसे राजाओं के उदाहरण है,जो भेष बदल कर प्रजा के सुख-दुःख का पता लगाते थे अतः निष्पक्ष आलोचक की उपस्थिति हर व्यवस्था में संजीवनी का काम कर सकेगी..

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