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दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा (एक प्रेरक प्रसंग)

chandravilla
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                                                                                    मेरी और मेरे पति की प्रसन्नता का कोई पारावार न था जब हमें फ़ोन से समाचार प्राप्त हुआ कि प्रेरणा का विवाह निश्चित हो गया है.यह सत्य कथा बताने से पूर्व पात्रों का परिचय कराना आवश्यक है.लगभग १० वर्ष पुरानी बात है,जब एक सज्जन जिन्होंने अपना परिचय एक माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक के रूप में दिया था ,हमारे घर आये किसी परिचित का संदर्भ बताकर .उन्होंने बताया कि वो अपनी बेटी को जो संभवतः उस समय कक्षा १० की विद्यार्थी थी, मेरे पति (जो स्वयं एक महाविद्यालय में वाणिज्य विषय के प्रवक्ता हैं )से मिलवाना चाहते हैं पतिदेव ऩे सहर्ष स्वीकृति दे दी.और अगले दिन आने का समय निश्चित कर वो सज्जन चले गये.नियत समय पर उनका आगमन अपनी सुपुत्री प्रेरणा के साथ हुआ.पुत्री को देखकर बहुत दुःख हुआ.छोटी सी गुडिया जैसी लडकी जो विकलांग थी और विकलांगता इतनी अधिक कि किसी के सहारे के बिना नहीं चल सकती थी,बैसाखियों की मदद लेने पर भी किसी न किसी का उसके साथ होना जरूरी था,. उस हंसमुख,बालिका की विकट परिस्थिति देखकर बहुत कष्ट हुआ,क्यों विधाता ऐसे दंड देते हैं.बातचीत करने पर पता लगा कि पोलियो से पीड़ित वह बालिका बहुत मेधावी है,
                                                                           उसको देखकर, मेरी रूचि भी उसकी परिस्थिति व समस्या जानने में थी कि किस कारण प्रेरणा के पिता उसको लेकर आये थे.प्रेरणा ऩे बताया कि वह बनना तो चाहती है डॉ परन्तु कैसे बन सकती है ,अपनी अक्षमता के चलते .वह कुछ और विकल्प जानना चाहती थी जिससे उसका भविष्य सुरक्षित हो सके.और उसकी अपंगता बाधक न बने.बात करते करते वह थोडा भावुक हो गयी और रोने लगी.मैंने उसको समझाया प्रयास किया,कहा कि वह उस कुर्सी टाईप वाहन का प्रयोग क्यों नहीं करती जिससे उसकी परनिर्भरता थोड़ी कम हो .उसने बताया कि एक बार कुछ निर्लज्ज लड़कों ने ऐसी ही एक लडकी के वाहन में कुछ गड़बड़ी कर किसी दुर्घटना का शिकार बना दिया था क्योंकि वह उनकी अनुचित व अनैतिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए तैयार नहीं थी. तद्पश्चात उसको एक पुस्तक मेरे द्वारा दी गयी ,जिसमें एक प्रेरक प्रसंग था एक अश्वेत बालिका विल्मा रुडोल्फ का.
                                                                                   १९६० में इटली में रोम में आयोजित होने वाले ओलम्पिक खेलों में एक २० वर्षीया लडकी रुडोल्फ गिलमा ऩे तीन स्वर्ण पदक जीत कर सर्वश्रेष्ठ धाविका का पुरस्कार भी जीता था.रोम ओलंपिक में लोग 83  देशों के 5346 खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी।

                                                               डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई। अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही। उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई। एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती।

प्रेरणा सेये तो प्रेरणा से हमने नहीं कहा की कि वह चिकित्सक की परामर्श को अनदेखा करे परन्तु इतना अवश्य कहा कि वह अपने परिश्रम व लगन के साथ कुछ जरूर बन सकती है,मेरे पति ने उसको कुछ विकल्प उसके भावी करियर के लिए सुझाये और उनपर विचार कर उसको पुनः आने के लिए कहा.
                                                                  ३-४ दिन बाद प्रेरणा पुनः समय लेकर आयी.वो अन्य विकल्पों पर विचार कर आयी और निश्चित हुआ की वह कक्षा ११-१२ में वाणिज्य विषय लेगी.क्योंकि विज्ञान में मेडिकल की कोचिंग की हमारे शहर में कोई बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं थी और उसको अलग अलग शिक्षकों के पास जाना पड़ता जिसके लिए आर्थिक परिस्थिति व उसकी शारीरिक समस्या आड़े आ रही थी,क्योंकि उसके पिता को उसके २ अन्य बहिन भाईयों की शिक्षा का भी भार वहन करना था.निश्चित हुआ की वह थोडा प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त कर स्वयं अध्ययन करेगी और अपनी विषयगत समस्याएं मेरे पति से पूछ लेगी.अवकाश वाले दिन..और उसकी दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी.
                                                                                         इंटर की परीक्षा उसने बहुत अच्छे अंकों से पास की और उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास आया.हमें भी उससे बहुत जुड़ाव अनुभव होता था.और उसका परिश्रम व लगन देखकर बहुत प्रसन्नता भी.स्नातक कक्षा में प्रवेश लेने पर अध्ययन के प्रति उसकी गंभीरता और भी बढ़ गयी.विकलांगता के अतिरिक्त उसके साथ एक समस्या और भी थी ,वह अधिक समय बैठ नहीं पाती थी और चल फिर न पाने के कारण उसके शरीर का भार भी वढ़ रहा था.परन्तु उसका पूरा परिवार उसके साथ था .
                                                                                        समय के साथ उसकी स्नातक की शिक्षा पूर्ण हुई और उसकी मेहनत रंग लाई.उसने यूनिवर्सिटी में भी स्थान प्राप्त किया.और अब जुट गयी अपने भविष्य को सँवारने में . प्रतियोगी परीक्षाएं भी दी ,हमारे शहर में प्राय परीक्षाओं का केंद्र नहीं होता अतः उसके माता-पिता उसको विभिन्न स्थानों पर ले कर गए ,उसको कहीं लेजाना इतना सरल भी नहीं था और लडकी होने के कारण हर स्थान पर उसके माता-पिता दोनों को उसके साथ जाना पड़ता था.,कुछ में सफलता मिली तो साक्षात्कार में कमी रह गयी और अंत में उसको दो बैंक्स की सभी परीक्षाएं में सफलता मिली और एक में उसने अपना कार्य भार एक प्रोबेशनरी अधिकारी के रूप में संभाला.परन्तु अभी उसकी परेशानी समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि विभागीय प्रशिक्षण आदि के लिए उसको समय समय पर जाना भी पड़ता था और ऐसे में उसकी माँ ने उसका सदा साथ दिया.

                                                                           लडकी होने की विवशता तो सदा साथ थी ही.अब माता-पिता को चिंता थी, उसके विवाह की जो सभी माता-पिता की रहती है,क्योंकि माता-पिता आजीवन उसका साथ नहीं दे सकते थे.विवाह के लिए सुयोग्य पात्र ढूंढना दुष्कर कार्य था.कुछ पात्र मिले भी तो वो उसके योग्य किसी भी दृष्टिकोण से नहीं थे क्योंकि अधिकांश की दृष्टि उसकी वेतन व सुविधाओं की धन राशि पर थी ,स्वयं प्रेरणा को भी भय था कि कभी उसका जीवन नर्क ही बन जाए पति कैसा भी प्राय पत्नी उसका साथ देती है (अपवाद न गिनें) परन्तु पत्नी की असहाय स्थिति में उसका साथ देने वाले महान पति बिरले ही होते हैं, और वो भी ऐसी दुष्कर व आजीवन रहने वाली स्थिति में.

                                                                                      अंततः उसके पिता ने एक दिन जब फ़ोन पर बताया कि उसके लिए उपयुक्त वर मिल गया है,मैंने उत्सुकतावश पूरी जानकारी उनसे ली उन्होंने बताया कि लड़का स्वयं किसी कम्पनी में अधिकारी है परन्तु स्वयं भी विकलांग है और माता-पिता साथ रहते हैं और वो बिना किसी दहेज के साधारण विवाह करना चाहता है,तो बहुत ही प्रसन्नता हुई .अब तो उसके विवाह को एक वर्ष से अधिक हो चुका है दोनों बहुत प्रसन्न हैं और  और मुम्बई में सुखपूर्ण जीवन जी रहे हैं.
                                                                                निस्संदेह आज प्रेरणा अपने पति के साथ बहुत सुखी है,पर उसका परिश्रम,माता-पिता उसके प्रति पूर्ण सहयोग और साथ में उसका भाग्य उसकी सफलता में प्रमुख सूत्र.आज से दस वर्ष पूर्व ये कल्पनातीत था प्रेरणा के लिए,उसके अभिभावकों,परिचितों व स्वयं हमारे लिए कि प्रेरणा सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत कर पाएगी .हाँ विपरीत परिस्थिति होने पर भी निराश न होना जीवन को संवार सकता है और याद आती हैं अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी की कविता “एक बूँद “की जिसमें बूँद यही सोचती है कि पता नहीं मेरा भविष्य क्या होगा मैं बचूँगी या मिलूंगी धूल में ” और अंत में वो एक सीपी में जा गिरी और मोती बन गयी.

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