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कांग्रेस की रणनीति सफल? (जागरण जंक्शन फोरम )

chandravilla
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भ्रम टूटा सा लग रहा है,लगता है,एक मृग तृष्णा थी जिसके पीछे हम दीवानों की तरह से भाग रहे थे,या कोई सुखद स्वप्न देख रहे थे. बर्बादी की ओर जाते देश के अंधकारमय भविष्य के लिए एक प्रकाश की किरण सम्पूर्ण देश को मंत्रमुग्ध कर रही थी,बच्चे,बूढ़े,युवा,महिलाएं,शिक्षित -अशिक्षित सभी इसी आस में अंधसमर्थन  दे रहे थे कि अब देश को एक गांधी जैसा कोई मिल गया है,जो देश की  डूबने  को तैयार  नैय्या का बेडा पार लगा देगा, सम्पूर्ण देश अन्नामय हो रहा था.”मैं भी अन्ना,तू भी अन्ना” का नारा बुलंद था.सबको भरोसा था अन्ना पर और अन्ना की टीम पर.जनता  ऩे  तो अन्ना को   भगवान  का  ही दर्जा दे डाला था.हम सबने अन्ना के हाथ सशक्त करने के लिए लिखा था.दुआएं की थी.परन्तु अब लग रहा है कि हम भारतीय शायद जल्दी ही भावावेश में आ जा जाते हैं और ठगे जाते हैं.क्या कांग्रेस अपनी बांटो और राज करो की राजनीति में एक बार पुनः सफल हो गयी है?.वर्तमान परिदृश्य में सब कुछ बहुत आहत करने वाला है.निम्न बिन्दुओं पर यदि विचार किया जाय तो देश पुनः उसी मोड़ पर खड़ा दिखाई दे रहा है.ये बिंदु हैं –
अन्ना का कांग्रेस को हराने के लिए प्रारम्भ किया आन्दोलन बीच में बंद कर देना,
प्रशांत हेगड़े के द्वारा हिसार में प्रारम्भ आन्दोलन को जल्दबाजी बताना .
प्रशांत भूषण का देश को बांटने वाला बयान देते हुए जनमत संग्रह की मांग कर डालना.
स्वामी  अग्निवेश का प्रारम्भ से ही विवादित रहना.
टीम द्वारा निरंतर परस्पर विरोधाभासी बयान देना.
अब अन्ना द्वारा अपने गाँव रालेगन सिद्धि में मौन धारण कर लेना.
कहीं अन्ना अपनी टीम के दवाब में तो नहीं.जिस कांग्रेस ऩे प्रारम्भ से ही अन्ना की मूल भूत मांगों पर हामी भरी ही नहीं ,और निरंतर सरकार के प्रवक्ता व सिपहसालार उन मांगों को स्वीकारने के विरोध में अपने विचार दे रहे हैं ,तो उस बिल के प्रस्तुतीकरण  की प्रतीक्षा करने का क्या औचित्य ? जैसा की कहा गया है की प्रतीक्षा की जा रही है शीत सत्र की.
२७ अगस्त को जब संसद में चर्चा हुई तो किसी भी दल ऩे अन्ना की शर्तों को पूर्णरूपेण स्वीकार नहीं किया .इसी विषय पर एक आलेख मैंने लिखा था “सब कुछ बाकी है,अभी जश्न कैसे मनाया  जाय.” उसी के अनुसार सभी दलों का जो रुख अन्ना की शर्तों के प्रति था वो इस प्रकार था “

२७ अगस्त को  जन लोकपाल बिल पर हुई चर्चा में कोई स्पष्ट सहमति दलों ऩे नहीं दी जन लोकपाल बिल पर सर्वाधिक समर्थन में खडी .भारतीय जनता पार्टी ऩे प्रधानमंत्री को जन लोकपाल बिल के दायरे में लेने पर सशर्त शब्द जोड़ दिया,न्यायधीशों पर नहीं कहा,सांसदों पर नकारात्मक ही रुख रखा परन्तु सिटी जन चार्टर ,दंड देने का हक़,नीचे के पायदान के कर्मियों ,लोकायुक्त,तथा सी बी आई पर स्पष्ट सहमति दी.
राजद सुप्रीमो लालू तो ये मानने को तैयार नहीं थे कि देश में बहुत भ्रष्टाचार है,उनके अनुसार जितना भ्रष्टाचार बताया जा रहा है उतना नहीं है(वो तो सारा चारा हज़म कर चुके हैं),
बसपा ऩे कोई भी शर्त स्वीकार नहीं की,माकपा,द्रुमुक के उत्तर टालने वाले,सपा का अस्पष्ट रुख रहा.

शरद यादव द्वारा बेतुकी दरार डालने वाली  शर्त कि पिछड़े वर्ग,अनुसूचित जातियों की भागीदारी हो (कोई उनसे पूछे भ्रष्टाचार से प्रभावित सभी वर्ग हैं,इसमें जाति धर्म कहाँ से बीच में
आगया.)

कांग्रेस ऩे प्रधानमंत्री को सम्मिलित करने की` शर्त को  विचाराधीन रखा,सिटीजन चार्टर को सशर्त ,दंड देने का हक़ विचारार्थ ,राज्यों में लोकायुक्त विचारार्थ,निचले स्तर पर काम करने वाले कर्मी सशर्त,सी बी आई विचारार्थ,न्यायाधीश नहीं,सांसद नहीं. अर्थात एक भी शर्त पर कांग्रेस ने स्पष्ट सहमति नहीं दी.
(उपरोक्त आंकडें या विवरण  समाचारपत्र तथा समाचार चैनल्स की सूचनाओं पर आधारित)
कांग्रेस से कैसे आशा की जा सकती है कि वह जनलोक पाल बिल को शीत सत्र  में प्रस्तुत करेगी क्योंकि वो निरंतर इसी रुख पर अडिग हैं कि वो सरकार द्वारा तैयार लोकपाल बिल ही प्रस्तुत करेंगें,जिससे अन्ना और उनकी टीम सहमत नहीं थे उस समय.ऐसे में अन्ना का वर्तमान दृष्टिकोण  कुछ पच नहीं रहा है
मेरे विचार से कुछ संभावित कारण निम्नाकित  हो सकते हैं,
अन्ना को कांग्रेस ऩे दवाब में लिया है ,बार बार ये आरोप लगाकर कि अन्ना संघ का साथ दे रहे हैं.(क्या देश हित में संघ का साथ लेना या देना कोई संगीन अपराध है?)
अन्ना की टीम अन्ना को धोखा दे रही  है,जिसमें कुछ भेदिये उपस्थित हैं और जो दोहरी चाल चल रहे हैं.
अन्ना अपनी टीम के रुख से त्रस्त व पीड़ित  हैं,परन्तु उनकी स्थिति सांप के मुख में छछूंदर वाली हो रही है जिसमें उनके लिए थूकना भी कठिन हो रहा है और निगलना भी.अन्ना इतने अधिक आहत हैं कि उन्होंने अपना अभियान बंद कर मौन धारण करना उचित समझा.
ये कोई नवीन रणनीति है.
उपरोक्त स्थितियों में चाहे जो कुछ भी हो परन्तु इससे विश्वसनीयता पर आंच अवश्य आती है और और जनता का विश्वास चोटिल होता है तथा “हार की जीत ” कहानी वाली स्थिति बनती है कैसे विश्वास करेगी जनता किसी पर भविष्य में .
अंत में प्रशांत भूषण सदृश सदस्यों की जितनी भर्त्सना की जाय कम है जो देश को तोड़ता या तोड़ने की बात करता है उसकी निंदा जितनी की जाय कम है ऐसे लोगों के लिए कोई दंड क्यों नहीं.और अन्ना की जो छवि जनता के मस्तिष्क में बनी थी उसके अनुसार तुरंत ही उनको बाहर किया जाना चाहिए.क्योंकि ऐसे लोगों का कोई ईमान धर्म  नहीं होता.अग्निवेश तो पहले ही संदिग्ध प्रमाणित हो चुके हैं और  यही स्थिति हेगड़े की है.परिणाम क्या होगा ये तो समय बतायेगा परन्तु अन्ना को कठोर फैसले लेते हुए जनता के अगाध विश्वास को पुनः अर्जित करना होगा.और देश हित को शीर्ष पर रखना होगा.

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