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जिस प्रेरक प्रसंग के माध्यम से मैं अपने विचार व्यक्त करना चाह रही हूँ ,संभवतः अधिकांश प्रबुद्धजन का पढ़ा हुआ हो, परन्तु महान व्यक्तित्वों के जीवन से जुडी घटनाओं से सदा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ..यूनान के सम्राट को भोज के लिए रोमन सम्राट के द्वारा निमंत्रण दिया गया था ,भोजन सुस्वादु था .यूनान सम्राट को मीठा विशेष प्रिय था .भोजन में सभी व्यंजनों के साथ एक सुन्दर तश्तरी मखमली कपडे से आवृत थी .कपडा जब हटाया गया तो वहां एक कटी हुई जिह्वा थी.यूनान के सम्राट द्वारा आश्चर्य व्यक्त करने पर रोमन सम्राट ऩे बताया कि आपको मीठा विशेष प्रिय है अतः यह दुनिया की सबसे मीठी चीज आपके समक्ष उपस्थित है. विद्वान् सम्राट को रहस्य समझ में आगया. उसने अबकी बार दुनिया की सबसे कडवी चीज से परिचित करवाने की इच्छा प्रकट की.अतः. कुछ समय बाद पुनः सम्राट के भोजन की व्यवस्था रोमन के सम्राट के यहाँ थी..इस बार भोजन के साथ पुनः एक सुन्दर कपडे से आवृत तश्तरी पुनः वहां दिखाई दी.खोलने पर पुनः वहां एक जिह्वा थी, रोमन सम्राट ऩे बताया कि यह दुनिया की सबसे कडवी वस्तु है.यूनानी सम्राट के आश्चर्य चकित रह जाने पर उनको बताया गया कि जिह्वा ही सबसे मीठी और सबसे कडवी होती है.
हमारी पंच ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में स्वादेंद्रिय या जिह्वा (रसना) बहुत विलक्षण कार्यों को सम्पादित करती है.स्वाद का अनुभव करने का साधन तो जिह्वा है ही,पाचन क्रिया को सुचारू रखने के लिए यह अनवरत कार्य करती है. जिह्वा के लिए ‘रसना ‘ शब्द का प्रयोग किया गया है.रसना अर्थात रस ,तरल .भोजन के मुख में प्रवेश करते ही लार ग्रंथियों के सक्रिय होने पर उनसे लार या रस का स्त्राव होता है जो भोजन में मिलता है और भोजन को पचाने में सहायक होता है.किसी चटपटी या प्रिय स्वादु वास्तु का ध्यान आते ही मुख में पानी आ जाता है.इस लिए चटोरी भी कहा जाता है जिह्वा या रसना को..
बोलने का कार्य भी जिह्वा के अभाव में असम्भव है.इसीलिये कहा जाता है कि (बित्ते भर की )छोटीसी जीभ सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही क्षेत्र में चमत्कार कर सकती है.कबीर ऩे इस संदर्भ में कहा है ,
जिम्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान।
नहिं तो औगुन ऊपजै, कहि सब सन्त सुजान।।
अर्थात जिस विवेकी जन ऩे जिह्वा पर नियंत्रण कर लिया उसने सम्पूर्ण संसार को एक प्राप्त कर लिया अन्यथा तो असंयम के कारण दोष उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा सभी ज्ञानी संत कहते हैं . जीभ जहाँ एक तो आहार को शेष पाचन अंगों तक पहुँचाने का कार्य करती है वार्तालाप करने हेतु शब्दोच्चारण में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है.परन्तु दोनों ही क्षेत्रों में इसपर नियंत्रण जीवन को सुचारू बना देता है अन्यथा तो आहार विहार की अनियमितता तन को रोगों का घर बना देती है.प्राय अधिकांश रोगों का सम्बन्ध पेट से है और पेट का सम्बन्ध आहार से है और आहार हममें से अधिकांश लोग रसना को सुख देने के लिए ही खाते हैं.
हम में से अधिकांश जन चिकित्सकों द्वारा कुछ वस्तुओं को प्राण घातक बताने पर भी उन खाद्य या पेय पदार्थों को खाने या पीने का लोभ संवरण नहीं कर पाते,ये जानते हुए भी कि जिह्वा के स्वाद तंतुओं को सुख देने के अतिरिक्त ये प्रिय पदार्थ हमें घोर कष्ट में डाल देते हैं .मधुमेह,ह्रदय रोग,उच्च रक्तचाप. मोटापा,जोड़ों के रोग , लिवर या गुर्दे के विभिन्न रोगों से ग्रस्त जन मात्र क्षणिक स्वाद के लिए ही इन समस्त प्रिय स्वादिष्ट पदार्थों का सेवन कर उनके प्रकोप से बचने के लिए घातक औषधियों का सेवन करते हैं.
रोगों के अतिरिक्त भी यदि देखें तो केवल जिह्वा का स्वाद ही तो है जिसके चलते सभी गृहणियों के जीवन का अधिकांश समय रसोई घर में व्यतीत होता है. इसी क्षणिक स्वाद के कारण हम तीखे मसाले ,और तले पदार्थों का सेवन करते हैं, होटल,ढाबों,भोजनालयों ,रेस्टोरेंट्स का व्यवसाय ,इनकी श्रृंखलाओं, चाट ,मिष्ठान्न ,नमकीन,चौकलेट,फास्टफूड का व्यापार आज चरम पर है
जिह्वा का उपयोग यदि वाणी के रूप में देखा जाय तो संसार का समस्त व्यवहार इसी पर आधारित है,किसी पराये को अपना और अपनों को पराया कर देने वाली हमारी वाणी चमत्कारिक है.हमारे प्राय सभी विद्वत जनों ने वाणी की महत्ता पर अपने विचार व्यक्त किये हैं.
संस्कृत में कहा गया है,
प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं , वचने का दरिद्रता ॥ अर्थात प्रिय वचन बोलने से सभी जीव प्रसन्न होते हैं वचनों में दरिद्रता (कंजूसी ) कैसी .
इसी प्रकार कबीर कहते हैं,
ऐसी बानी बोलिये , मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल लगे , आपहुँ शीतल होय ॥
इस मधुर वाणी का समर्थन कबीर ने स्पष्ट रूप में किया है कि वाणी दाहक अर्थात कटु नहीं मधुर होनी चाहिए जो हमारे लिए भी शीतलता प्रदान करती है और जिससे हम व्यवहार कर रहे हैं उसके लिए भी शीतलता अर्थात सुख दायक है.
पुरानी कहावत है,गुड न दो गुड जैसी बात तो कहो अर्थात मीठी वाणी ऐसा दिव्य उपहार है जिससे हम बिना कुछ व्यय किये किसी का भी दिल जीत सकते हैं.इसी वाणी का समर्थन कबीर ने करते हुए .पुनः कहा है
मधुर वचन है औषधि , कटुक वचन है तीर ।
श्रवण मार्ग ह्वै संचरै , साले सकल शरीर ॥
अर्थात मीठी वाणी तो दिव्य औषधि के समान है और कठोर वाणी तीर की भांति कानों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर बींध डालती है. बहुत से चिकित्सकों के पास मधुर वाणी का ऐसा गुण होता है,जिसके कारण रोगी को उनके पास जाकर ऐसा लगता है मानों आधा दुःख समाप्त हो गया.प्राय लोग किसी को कुछ भौतिक रूप से देकर कठोर वचन बोलने से नहीं चूकते.मेरे विचार से यह अहंकार का परिचायक है.
गौतम बुद्ध भी मधुर वचन का समर्थन करते हुए कहते हैं,कि कटु वचन तो पशुओं को भी नहीं सुहाते.
रहीम भी कडुआ बोलने वालों के लिए कहते हैं,
खीरा सिर ते काटिये , मलियत लौन लगाय ।
रहिमन करुवे मुखन को , चहिये यही सजाय
अर्थात खीरा का ऊपरी भाग काटकर उसपर नमक मलना चाहिए ,क्योंकि कड़वे मुख वालों की यही सजा है (व्यवहार में भी खीरे का कड़वापन दूर करने के लिए उसपर नमक लगाया जाता है .यदि हम इतिहास में झांकें तो न जाने कितने बड़े बड़े युद्ध मात्र वाणी के दुरूपयोग के कारण लड़े गए ,जिनमें प्रमुख उदाहरण है महाभारत का युद्ध .सुन्दरी द्रौपदी ने दुर्योधन के सुन्दर परन्तु भ्रामक फर्श पर गिरने पर कहा था . “अंधे के अंधे होते हैं”और इस अहंकरोक्ति का परिणाम विनाशकारी महाभारत का युद्ध हुआ और इतिहास रचा.गया. इसी लिए आम भाषा में कहा जाता है,’जुबान सम्भाल के बोलो ‘
.यद्यपि तर्क दिया जाता है कि सत्य सदा कटु होता है और सत्य भाषण की शिक्षा हमारे शास्त्र देते हैं परन्तु हमारे यहाँ ये भी कहा गया है
सत्यम ब्रूयात प्रियँ ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियँ !
प्रियँ च नानृतम् ब्रूयात एष धर्म सनातन:!! “
अर्थात सत्य बोलो प्रिय बोलो,परन्तु अप्रिय सत्य भी न बोलो एवं प्रिय असत्य भी न बोलो यही सनातन धर्म है.यदि इस वाक्य के मर्म को समझा जाय प्रिय बोलने का अर्थ ये कदापि नहीं कि हम किसी की मिथ्या प्रशंसा या चापलूसी में लग जाएँ.परन्तु यदि हम किसी अंधे व्यक्ति को अंधा या लंगड़े को लंगड़ा कहेंगें तो निश्चय ही उसके हृदय को कष्ट पहुंचेगा.अतः कहा गया है “पहले तौल फिर बोल.”
जिस प्रकार अधिक मीठा नहीं रुचता इसी प्रकार यदि कोई अकारण ही हमारी प्रशंसा करने लगे तो समझना आवश्यक है कि कुछ गडबड है. चापलूसी और मधुर भाषण में अंतर है.प्राय हम देखते हैं कि मात्र कटु भाषण या किसी को अनर्गल कुछ भी कह देने से संबंध ही बिगड जाते हैं,.यदि कुछ अनुचित दूसरे पक्ष से ऐसा है भी तो मौन रहकर धैर्य पूर्वक वातावरण को अशांत होने से बचाया जा सकता है.
इस संदर्भ में जैन धर्म में क्षमावाणी पर्व मनाया जाते है,और अपने किसी भी ऐसे कार्य ,वचन के लिए क्षमा माँगी जाती है जिससे दूसरे को कष्ट पहुंचा हो.इससे व्यक्ति का अहंकार तो नष्ट होता है,सम्बन्धों पर चढी कटुता की कालिमा भी मिट जाती है.
अतः स्वाद के संदर्भ में जिह्वा का संयमित उपयोग जहाँ हमें निरोग और प्रसन्न चित्त रखता है वहीँ वाणी का सदुपयोग हमारी सामाजिक व मानसिक आयु में वृद्धि करता है.स्वतः सिद्ध होता है कि जिह्वा का खरा उपयोग किया जाय. अतः आईये मीठा बोले,हितैषी बनें और ईश्वर का नाम लेकर रसना का नाम सार्थक करें.साथ ही क्षणिक आनन्द के लिए रसना के वशीभूत हो कर शरीर से शत्रुता न करें.
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