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दिखावे का शिकार मध्यम वर्ग, (महंगे होते विवाह आयोजन)

chandravilla
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समाज में आर्थिक रूप से प्राय तीन वर्ग माने जाते हैं,जिनमें समृद्ध उच्च वर्ग एवं निर्धन वर्ग के अतिरिक्त मध्यम वर्ग.परन्तु अन्य श्रेणियाँ भी मानी जाती हैं. ,जिनमें उच्च मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के अतिरिक्त निर्धन वर्ग को भी ऐसी ही श्रेणियों में विभक्त कर दिया गया है.इसी प्रकार उच्च वर्ग की भी श्रेणियाँ हैं.मध्यम वर्ग की स्थिति बहुत ही विचित्र सी है,साधन सीमित,आकांक्षाएं ,स्वप्न और अरमान बहुत ऊँचें .कुछ तो थोडा बहुत समायोजन कर पूर्ण हो जाते हैं,परन्तु अधिकांश केवल स्वप्न ही रह जाते हैं.यद्यपि सभी अवसरों पर इस वर्ग के समक्ष दुविधा रहती है परन्तु आज विवाह संस्कारों के संदर्भ में विचार कर रहे हैं.

विवाह संस्कार प्रारम्भ से ही उत्सव के रूप में परिवार ,परिजनों,स्वयं विवाह अभ्यर्थियों के लिए आनन्दित करने वाला चिर प्रतीक्षित अवसर रहा है.प्राय संतान के जन्म के पश्चात ही माता-पिता संतान के विवाह के स्वप्न संजोने प्रारम्भ करते रहे हैं.हमारी पूर्व पीढ़ियों में अल्पायु में ही बच्चों को विवाह सूत्र में बाँध दिया जाता था,होश संभालते ही अच्छा खानदान देखकर परिवार के कुछ लोग या फिर पुरोहित आदि रिश्ते की बात चलवाते और विवाह सम्पन्न हो जाता था.प्राय दूर दूर से बारात आती थी और उनके स्वागत आदि में कोई कमी न रहे ,उनके भोजन ,ठहरने आदि की मार्ग की भी व्यवस्था कन्या पक्ष करता था,२-३ दिन बारात के रूकने की व्यवस्था जनवासे में रहती थी और उनके स्वागत सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना कन्या पक्ष अपना धर्म मानता था.इस व्यवस्था के लिए सभी सम्बन्धियों और परिचितों का सामूहिक प्रयास रहता था और सभी के सहयोग (आर्थिक ,सामान आदि) से कार्य सम्पन्न होता था अंततः विवाह संस्कार के पश्चात और बेटी की विदाई.कुछ स्थानों पर तो बेटी को एक बार विदा करके कुछ समय मायके में रहना होता था और थोडा समझदार होने पर उसको ससुराल भेज दिया जाता था.(शायद इस व्यवस्था का कारण अल्पायु में विवाह अर्थात बाल विवाह था)


विवाह आज भी एक ऐसा ही शुभावसर है,जिसको सम्पन्न करने का उत्तरदायित्व माता-पिता का रहता है.विवाह चाहे बच्चों की अपनी पसंद का हो या फिर अरेंज्ड .विशेष परिस्थिति न होने पर विवाह संस्कार माता पिता द्वारा ही आयोजित किया जाता है.आज उत्तर भारत में जो विवाह का स्वरूप है उसके अनुसार व्यवस्थाओं में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है.आज के परिदृश्य पर विचार करें तो
शादी विवाहों का मौसम बैंड बाजा बारात की धूम,डैक पर धमाल मचाते युवा,बच्चे ,महिलाएं ,पुरुष ,सुस्वादु खाद्य पदार्थों की सुगंध,बैंकेट हाल्स,फार्महाउस मालिकों की चांदी, ब्यूटी पार्लर्स की रौनक और रोशनी की जगमगाहट बस मौज ही मौज .ये उत्साह एवं रौनक अच्छी भी लगती है.परन्तु……………..?गत कुछ वर्षों से विवाह की व्यवस्था हमारे समाज में लड़की के परिजनों के मस्तक पर चिंता की लकीरें बढाने वाला बन गया है.सर्वप्रथम तो लड़की को पूर्णतया शिक्षित करने के पश्चात भी लड़का खोजने में मशक्कत,वर पक्ष के नखरे उठाना उनकी खातिरदारी दान-दहेज और अन्य भेंट पूजा (जो दिखावे के चलते आम आदमी को तो चिंतित करता ही है)और फिर मुख्य आयोजन की व्यवस्था में रात-दिन एक करने का सरदर्द .
प्राय विवाह में जो बर्बादी होती है वो बहुत ही पीड़ादायक है किसी जमाने में जब शायद २-३ दिन दिन विवाह का आयोजन रहता होगा,रिश्ते नाते के लोग लम्बे समय तक रूकने के लिए शादी विवाह के अवसर पर आ जाते थे. बारात के ठहराने व भोजन का प्रबंध करने में जितने भोज्य पदार्थों की व्यवस्था रहती होगी उतनी संभवतः आज एक ही समय के भोजन में की जाती है. स्वागत के पश्चात भोजन पंडाल में .प्रवेश करते ही विभिन्न प्रकार के सजे पेय पदार्थ के पृथक पृथक स्टाल्स,चाट पकौड़ी,प्राय सभी फास्ट फूड्स की विविध स्टाल्स,शकर कंदी,सिंघाड़े उबले,और फिर दक्षिण भारतीय ,राजस्थानी ,पंजाबी ,उत्तरभारतीय (कढी-चावल,छोले चावल,भठूरे,कुलचे) पक्की रसोई अर्थात पूड़ी कचौड़ी और उनके संगीसाथी ,फिर मिष्ठान्न की स्टाल्स ,आइस क्रीम्स ,कुल्फी,फालूदा ,रबडी ,मेवामिश्रित दूध और में पान.साथ ही बच्चों से सम्बन्धित आयटम्स और न जाने ……………………………..ललचाती सुगंध सबको दीवाना बनाती ही है और फिर तो भोजन की स्टाल्स पर आक्रमण होता है भीड़ का.,प्राय लोग जैसे बस आज ही मौका है,चाहे गला,पेट सब बोल जाएँ पर किसी व्यंजन को परोसने से मत चूको.परन्तु पेट तो बेचारा पेट ठहरा शेष पूरी की पूरी प्लेट झूठन में.जिस देश में भुखमरी के कारण एक बड़ा वर्ग एक समय का भोजन भी नहीं जुटा पाता ,वहाँ इतना सामान नाली पर? एक समारोह में मक्की की रोटी ,साग,गुड मट्ठा या छाछ ,और साथ में माखन के स्टाल पर लोगों ने मक्खन के बड़े बड़े पीस प्लेट में सजाये और शेष झूठे बर्बाद किये.
आदरनीय रस्तोगी जी ने गत लेख में महिलाओं के सड़क पर नृत्य करने तथा शेष समस्याओं पर बहुत अच्छा आलेख लिखा था. इसी संदर्भ में हाल में घटित घटना का उल्लेख कर रही हूँ. बारात में महिलाएं ,पुरुष इसी प्रकार सड़क पर नृत्य कर रहे थे,कि शराब के नशे में बारात में ही किसी ने कुछ अनुचित हरकत कर दी,(संयोग से इन सज्जन या दुर्जन का रिश्ता दामाद का था) परिणामस्वरूप महिला के पति ने जो स्वयं नशे में थे उनके एक तमाचा लगा दिया और फिर तो रंग में भंग ,दामाद साहब रूठकर अनर्गल बोलते हुए चल दिए.ये एक ऐसा दृश्य है जो प्राय विवाहों में रहता है,पहले शराब का एक काउंटर लगाया जाना,फिर मुफ्त की मिलने पर बेहिसाब पीना ,गिरते पड़ते चलना और फिर अप्रिय स्थिति उत्पन्न करना,प्राय विवाह के आयोजनों में एक दिन तो इसी काकटेल पार्टी के नाम का रहता है,जहाँ शराब और शराब के संगी साथी व्यंजन उपलब्ध रहते हैं.
विवाह का शुभ अवसर प्रतीक्षित होने के साथ आनन्दित तो करता है,,परन्तु उपरोक्त आयोजन में पिसता है बेचारा मध्यम वर्ग, .यदि उपरोक्त व्यवस्थाओं में कोई कमी रह जाती है,तो उसको चिंता रहती है, अपनी नाक अर्थात प्रतिष्ठा की ,अतः “ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत नहीं पीवेयु अर्थात कर्जा लेकर भी सबको स्वरुचि भोजन व पेय पदार्थ परोसने की व्यवस्था करनी पड़ती है.,साज सज्जा आदि व्यवस्थाओं के साथ . ये समस्या इतनी व्यवहारिक व विकराल बन गयी है दहेज़ के अतिरिक्त बजट का बड़ा भाग इन आयोजनों पर व्यय होता है ,जिसमें बर्बादी अधिक होती है.
रौनक के नाम पर भव्य विद्युत साजसज्जा,भी देश के संसाधनों की बर्बादी ही है.और भोजन के पश्चात प्लास्टिक क्रौकरी के लगे ढेर पर्यावरण को चुनौती देते दिखते हैं., . परन्तु ये कोई चिंता का विषय नहीं बन पाता. एक दुखद और विडंबना की स्थिति और दिखती है उन बेचारे अभागों के साथ जिनको कहीं बांस पैरों में बांधकर ,और कहीं भीषण गर्मी में सम्पूर्ण शरीर पर विविध वेश भूषाओं में मेहमानों का मनोरंजन करना होता है..स्टेचू या जोकर के रूप में.
प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस बर्बादी और दिखावे को कैसे रोका जाय .मुझको तो कोई आसार नज़र नहीं आते क्योंकि दिखावे की प्रवृत्ति सर्वत्र है और कितनी ही कठिनाई झेलनी पड़े कोई स्वयं को कम दिखाने के पक्ष में नहीं.स्वयं जागृति और सामजिक संगठनों के संयुक्त प्रयास ही कुछ सार्थक सिद्ध हो सकते हैं.ये दिखावा मध्यम वर्ग के लिए कितना कष्टप्रद है, ये तो केवल वही बेटी वाला मध्यमवर्गीय परिवार जान सकता है,जिसकी २-३ बेटियां हैं वो ऋण की किश्तें चुकाते जीवन व्यतीत कर देता है,कभी शिक्षा के लिए कर्जा,कभी मकान के लिए,कभी किसी की बीमारी के लिए , घर की आवश्यकताओं के लिए. या फिर बेटी के विवाह के लिए. उसके लिए सुख चैन से जीने का कोई अवसर नहीं मिल पाता बेचारा .दिखावेका शिकार मध्यम वर्ग

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