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सेवा भावना केवल पत्नी में?

chandravilla
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माधवी की रुलाई थम नहीं रही थी. रुग्णता अब उसकी विवशता बन गयी थी, लेकिन कोई भी विकल्प उसके पास नहीं था.भोजन की तश्तरी सामने स्टूल पर रखी थी और पानी का जग भी, परन्तु रोती माधवी की पानी पीकर कुछ राहत लेने की भी इच्छा नहीं थी.बस अपने सामने लगी जगजननी माँ के चित्र से यही प्रार्थना वह कर लेती थी कि या तो वह पूर्ण स्वस्थ होकर आत्मनिर्भर हो जाय या फिर उसको इस जगत से मुक्ति मिल जाय.ये अब उसका दैनिक क्रम बन चुका था.कभी सामने रखी चाय का घूँट भर लेना और कभी बिन स्वाद लिए ही छोड़ देना.यही स्थिति भोजन की रहती थी.बस दवाई उसको प्रात सायं राजिन्द्र दे ही देते थे,न चाहते हुए भी उन कडवी गोलियों को उसे निगलना पड़ता था. गत ६ माह से वह बिस्तर पर थी,पहले एक माह अस्पताल में और तद्पश्चात घर पर.
माधवी उस दुर्भाग्यशाली दिन को कोसती रहती थी, जिस दिन बहुत प्रयासों के बाद भी ज्वर न उतरने पर चिकित्सक ऩे जांच के पश्चात उसके शरीर में तपेदिक के कुछ लक्षण होने की आशंका बताई थी और उसको पूर्ण विश्राम और हल्के भोजन का परामर्श दिया था.कुछ लापरवाही और कुछ भाग्य का दोष उसका रोग नियंत्रण में नहीं आया और स्थिति बदतर होती गयी.जीवन में सदा उमंग और उत्साह से कदम बढ़ाने वाली माधवी निराशा व अवसाद का शिकार बन गयी.प्रारम्भ में तो पति राजिन्द्र ने उसका साथ दिया और उसको समय भी दिया परन्तु धीरे धीरे अपने काम में उलझे राजिन्द्र ये भूल गये कि रोगी को समय देना और अपनत्व का व्यवहार , औषधी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है.
आज प्रात एक फोन आने के पश्चात राजिन्द्र कुछ परेशान से थे, उनके मित्र प्रशांत कुछ दिन के लिए अपने किसी आवश्यक कार्यवश उनके पास रहने के लिए आ रहे थे.भोजन की तो कोई चिंता नहीं थी क्योंकि सेविका सुबह शाम आकर भोजन बनाती थी,शेष कार्य भी जैसे तैसे चल ही रहे थे परन्तु किसी भी मेहमान के आने पर (वो भी रहने के लिए ) कुछ व्यवस्थाएं अनिवार्य होती हैं और पत्नी का शैय्या पर होना सम्पूर्ण घर की व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर देता है.शाम को स्टेशन से राजिन्द्र उनको ले आए थे .कुछ दिन तक साथ रहकर प्रशांत कुछ उद्विग्न मन से लौट गये.
यात्रा में भी रह-रह कर .माधवी का कष्ट और बुझा चेहरा उनको पुरानी स्मृतियों में धकेल रहा था,जब विवाह के कुछ ही माह पश्चात राजिन्द्र जी का बहुत गम्भीर एक्सिडेंट हुआ और डॉ ने उनके कभी न उठ पाने और नोर्मल जीवन न पाने की आशंका जताई थी.माधवी ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर बहुत निष्ठां से अपना एकसूत्री कार्यक्रम राजिन्द्र जी की सेवा और उनका खोया आत्मविश्वास वापस लौटाना बना लिया था.संतान के सुख से वछित माधवी अहर्निश राजिन्द्र जी और गृह कार्यों में व्यस्त रहती थी.अपने मित्रों,मायका सबको भूलकर .ससुरालपक्ष में सास और श्वसुर सर्ग सिधार चुके थे , शेष सभी परिवारजन तथा मित्र,परिचित एक बार देखने आकर, अपनी गृहस्थी तथा नौकरी या व्यापार में खोगये थे. प्रशांत भी अपनी पत्नी के साथ मित्र को देखने आये थे परन्तु दो दिन साथ रहकर, बच्चों के स्कूल आदि व्यस्तताओं के कारण वापस लौट गये थे. .मुखमंडल पर सरल मुस्कान लिए माधवी राजिन्द्र जी व गृहस्थी के काम से समय मिलते ही राजिन्द्र जी को कम्पनी भी प्रदान करने में औदार्य बरतती थी. न जाने .कौन कौन सी मन्नतें मानी थी,माधवी ऩे राजिन्द्र जी के स्वस्थ व नोर्मल होने के लिए.
अब जबकि ईश्वर की कृपा और माधवी की सेवा से राजिन्द्र जी एक वर्ष में ही डॉ की आशंका के विपरीत स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे और लगभग १५ माह पश्चात तो अपने काम पर जाने लगे थे,सरकारी नौकरी के कारण अवकाश और वेतन की समस्या का सामना उनको नहीं करना पड़ा था.उनके स्वस्थ होने पर माधवी ऩे घर पर पूजा आदि करवाई थी और जीवन सामान्य गति से चल रहा था.परन्तु सुख और दुःख तो जीवन के रंग हैं,जो किसी न किसी रूप में धूप छांव की तरह साथ लगे रहते हैं . अब माधवी ऩे बिस्तर संभाल लिया था.प्रारम्भ में तो पति ऩे कुछ समय दिया और फिर विमुख से होने लगे और धीरे धीरे इसी क्रम को एक दिनचर्या सी बनता देखकर उनका व्यवहार रुक्ष होने लगा.माधवी समझ रही थी,परन्तु पति की बेरुखी और अपनी अशक्तता ऩे उसको गुमसुम बना दिया .चिकित्सक ऩे उनके पति को समझाया भी कि इनको प्रसन्न रखने का प्रयास करें. परन्तु शायद माधवी की भांति सेवा भावना ,धैर्य और कर्तव्यनिष्ठा का गुण उसके पति में नहीं था.
माधवी की स्थिति से परिचित प्रशांत अपनी पत्नी विभा के साथ पुनः राजिन्द्र जी के यहाँ पधारे .दोनों ऩे माधवी की गम्भीर होती स्थिति को देखकर , राजिन्द्र जी को समझाने का प्रयास भी किया ,कुछ दिन साथ रहकर विभा ऩे माधवी का साथ भी दिया ,शायद बहुत देर हो चुकी थी और माधवी कुछ दिन अपना जीवनचक्र पूर्ण कर इस भौतिक जगत से विदा हो गयी.रिश्ते नाते,परिचय और मित्रता के रिश्तों से बंधे सभी लोग राजिन्द्र जी को सांत्वना देने आये परन्तु अब तो कुछ शेष नहीं था.उदास और क्लान्तमन राजिन्द्र जी बस अपनी उदासीनता और माधवी की रुग्णता को ही याद करते थे परन्तु अब पछिताय ………………………..
ये घटना मेरी एक परिचित ऩे मुझको बताई थी नाम परिवर्तित कर उसको अपने शब्दों में लेख बद्ध किया है मैंने .इस कथा से मेरे और संभवतः आपके मन में भी कुछ प्रश्न उठते हैं,उन प्रश्नों को रखने से पूर्व एक एकबात और जोड़ना चाहूंगी ,संयुक्त परिवारों में प्राय पति को पत्नी का कोई भी कार्य करने पर विशेष रूप से सेवा भाव वाला कुछ उपहासास्पद दृष्टि से देखा जाता है,जो सर्वथा अनुचित है.
प्रश्न इस प्रकार हैं,
पत्नी की जटिल जटिल से बीमारी या अन्य परिस्थिति में छाया की भांति उसका साथ निभाती है तो पति क्यों नहीं.मेरे कहने का अर्थ ये कदापि नहीं कि राजिन्द्र जी को भी माधवी की भांति अपनी नौकरी छोड़ कर माधवी का साथ देना चाहिए था,परन्तु नौकरी के साथ भी वो स्वयं के उसके साथ होने का अहसास करा सकते थे.
सेवा करना क्या केवल पत्नी का ही दायित्व है?
संभवतः ये विचार एक पक्षीय हो परन्तु क्या ऐसी स्थिति में ये नहीं लगता कि पुरुष में नारी की तुलना में स्वार्थ अधिक होता है.

(अपवाद सर्वत्र होते हैं,अतः इस घटना पर विचार करते हुए ही अपने विचार बताएं )

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