Menu
blogid : 2711 postid : 1671

श्रद्धांजली युग पुरुष को (स्वामी विवेकानंद )

chandravilla
chandravilla
  • 307 Posts
  • 13083 Comments


राष्ट्रीय युवा दिवस की बधाई आप सब को.भारत सरकार द्वारा युगदृष्टा ,युगप्रवर्तक ,युग प्रणेता ,स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया गया १९८४ में . शतवर्ष तक जीवित रहने का आशीर्वाद देना एक परम्परा है,परन्तु अधिक आयु का आशीर्वाद प्राप्त करने पर भी यदि मानवजीवन का सदुपयोग न किया जाये तो………….?
मकर सक्रांति के पावन पर्व पर १२ जनवरी १८६३ को एक संभ्रांत परिवार में अधिवक्ता विश्वनाथ दत्त तथा भगवद भक्ति में अपना समय व्यतीत करने वाली माता भुवनेश्वरी देवी को भगवन शिव के आशीर्वाद से इस विलक्षण पुत्र की प्राप्ति हुई.(उनके जीवन परिचय में ऐसा उल्लेख मिलता है) पाश्चात्य व पूर्व की विचारधारा का संगम था उनका परिवार. पिता आधुनिक विचारधारा के पोषक थे और माँ आस्तिकता की मूर्ति थीं.विलक्षण गुणों से सम्पन्न नरेंद्र नाथ धार्मिक विचारों को ध्यान से सुनते थे और ध्यानस्थ भी प्राय हो जाते थे.छुआछूत से कोसों दूर,निर्भीक नरेंद्र के हृदय में भय का कोई स्थान नहीं था. नरेन्द्र के ये संस्कार ही उनको ईश्वर की प्राप्ति के लिए संन्यास लेने को प्रेरित करते थे.प्रभु की विशेष अनुकम्पा उनपर थी जिसके कारण उनका अलौकिक शक्तियों से साक्षात्कार होता रहता था.स्वयं तो वे बलिष्ट शरीर के स्वामी थे ही,योग में उनकी रूचि थी.इसी प्रकार शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करते हुए आपने मात्र १८ वर्ष की आयु में स्नातकोत्तर की परीक्षा पूर्ण की.
पिता का देहावसान हो जाने के कारण उनके परिवार पर आर्थिक संकट के बादल भी मंडराने लगे,चिंता तो उनको बहुत थी और परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने के प्रयास भी उन्होंने किये.परिवार जन उनको विवाह बंधन में भी आबद्ध करना चाहते थे परन्तु उनकी स्पष्ट नकार को देखते हुए शांत हो गए.वास्तव में उनका संसार में जन्म महान कार्यों के लिए हुआ था.उनको खोज थी प्रभु से साक्षात्कार की,चिंता थी दलित,दमित शोषित वर्ग की उनकी पीड़ा एवं कष्ट देख एवं अपनी बंदिनी भारतमाता को पराधीनता की बेड़ियों मे जकड़े देख कर उनका मन विचलित हो उठता था..अपने वांछित की खोज में विभिन्न साधू संतों से उनकी भेंट हुई परन्तु संतुष्ट नहीं हुए.इसी श्रृंखला में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई .परमहंस जी माँ काली के उपासक थे और उच्च कोटि के संत थे.नरेन्द्र व परमहंस जी ने एक दुसरे को प्रभावित किया .रामकृष्ण जी ने तो उनके अप्रतिम गुणों को एकदम पहचान लिया परन्तु स्वामी जी उनके शरणागत हुए ,जब, उन्होंने स्वयं उनकी महानता का साक्षात्कार कर लिया.और अपने सतगुरु का शिष्य बन कर उन्होंने उनके दिव्यत्व का साक्षात्कार भी कर लिया था.
सांसारिक संकटों से घिरने पर उनका मन ईश्वर की ओर से विचलित भी हुआ परन्तु सतगुरु उनकी ढाल थे,उन्होंने उनको पुनः संभाल लिया गुरु ने उनको समझाया कि उनका संसार में जन्म विशिष्ठ कार्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है.गुरु मृत्यु शैय्या पर थे, परन्तु नरेंद्र को लक्ष्य प्राप्ति के लिए तैयार करना उनका दायित्व था.अंतत नरेंद्र समाधि में चले गए ओर जागने पर कहा”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” कर्म करूंगा और अपरोक्ष अनुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूंगा”१५ अगस्त १९८६ को परमहंस जी चिर समाधि में विलीन हो गए .नरेन्द्र ने अपने सोलह साथियों गुरु भाइयों के साथ स्वामी विवेकानंद बन गए अर्थात पूर्ण रूप से सन्यासी बन गए.विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए कुछ विशिष्ठ मित्रों के सहयोग से ३१ मई १८९३ को अमेरिका के लिए प्रस्थान किया शिकागो में होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए. अपनी भारत भूमि से विदा लेते समय उनके हृदय में बहुत कष्ट था , देश के प्रति विशेष रूप से भारत माता की पराधीनता को लेकर वे बहुत ही दुखी थे.एशिया की आध्यात्मिक उन्नति के रूप में मंदिरों,बौद्ध मठों के दर्शन करते हुए कनाडा हो कर वे शिकागो पहुंचे, वहां की भौतिक उन्नति ओर अपने देश की दुर्दशा से उसकी तुलना कर स्वामी जी बहुत दुखी हुए.धन राशि उनके पास अधिक नहीं थी.साधन कम थे परन्तु कुछ करने की भावना उनका संबल था . . अपने अगाध ज्ञान व मधुर व्यवहार से उनको वहां कुछ विशिष्ठ मित्र का साहचर्य भी प्राप्त हुआ .यद्यपि शिकागो धर्म सम्मेलन में पहुँचने के लिए उनके मार्ग में बहुत बाधाएं आयीं.परन्तु” जहाँ चाह वहां राह”.भूखे प्यासे अनेकानेक कष्टों को सहन करते हुए,विघ्न बाधाओं को पार करते हुए अपने प्रेमी मित्रों की सहायता व दिव्यशक्तियों के आशीर्वाद से से स्वामीजी ११ सितम्बर को सम्मेलन में भाग ले सके.
यही वो अवसर था जब गेरुए वस्त्रों में एक धर्मयोद्धा के रूप में उन्होंने अत्यधिक प्रेम से “मेरे भाइयों व बहनों “कहकर उपस्थित समस्त विश्व समुदाय को संबोधित किया.मन्त्र मुग्ध से लोग स्वयं को भूल गए और दत्तचित हो कर स्वामीजी को सुनने लगे यही वो विश्वबंधुत्व का सन्देश था जो उन्होंने विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था.उनकी सुमधुर वाणी,ओजस्वी वक्तृता,वैचारिक स्पष्टता तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से सभी श्रोता उनके प्रति एक सहज आकर्षण से बंधे जा रहे थे.हिन्दू धर्म के विरुद्ध विदेशी प्रचारकों द्वारा प्रचारित दुर्भावनाओं का खंडन करते हुए उन्होंने यही सन्देश दिया कि सब धर्मों का सम्मान करना हमारी प्रकृति है परन्तु हमारी संस्कृति का दुष्प्रचार किया गया है और वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत है.इस अमृतवर्षा में सब भीगे ओर स्वामीजी ने अपनी व अपनी संस्कृति की अमित छाप छोडी.इसके बाद इसी श्रृंखला में २२सितम्बर,२५ सितम्बर तथा २७ सितम्बर को अपने व्याख्यानों में उन्होंने अपने विरोधियों को अपने अकाट्य तर्कों से शांत किया.
लगभग तीन साढ़े तीन वर्ष तक स्वामी जी इसी प्रकार विविध स्थानों पर भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म के प्रति सन्देश देते रहे.साम्राज्यवाद की नीतिके अनुसार स्वयं को श्रेष्ट बताकर दुसरे देशों पर अधिकार,दुसरे देशों की भोली जनता का शोषण करने का विरोध करते हुए उच्च मानव आदर्शों की स्थापना पर बल दिया. अमेरिका के अतिरिक्त फ़्रांस,लन्दन,स्विटज़रलैंड ,इटली आदि अनेक देशों में उनसे प्रभावित उनके प्रेमी जनों ने उनको आमंत्रित किया.
किसी भी धर्म का उन्होंने अपमान नहीं किया ,किसी का उपहास नहीं उड़ाया परन्तु जब किसी ने उनके देश,उनकी संस्कृति का मजाक बनाया या तिरस्कार करना चाहा , तो उसको बक्शा नहीं इससे सम्बद्ध २-३ उदाहरण रखना आवश्यक है
लन्दन में उनसे कहा गया आपके देश ने आज तक कुछ भी हासिल नहीं किया किसी देश पर अधिकार नहीं कर सके तो उन्होंने शांत भाव से उत्तर दिया मेरा देश किसी पर अपना अधिकार भौतिक रूप से करने में विश्वास नहीं करता वैसे भी आप लोगों के पास ऐसा था ही क्या जिसके लिए मेरा देश आप पर अधिकार करता .हमारी संस्कृति “जियो और जीने दो”में विश्वास करती है.
इसी प्रकार एक स्थान पर सव धार्मिक ग्रंथों को एक स्थान पर रखकर गीता को सबसे नीचे रखा गया उनका अपमान करने के लिए.और कहा गया तुम्हारी गीता तो सबसे नीचे है उनका उत्तर था हमारी गीता सब धर्मों का मूल है ,विविध धर्मों पर उसका प्रभाव है सबका भार वहन करने में समर्थ है. . .इसी प्रकार बहुत धर्म प्रचारक, धनिक लोग उनके शिष्य बनते चले गए .जैसा कि संसार का नियम जहाँ एक ओर उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हो रही थी,उनसे ईर्ष्या करने वाले शत्रुओं की संख्या बढ़ रही थी.विशेष रूप से ईसाई पादरी जिनको अपनी दुकान उजडती नज़र आ रही थी,हमारे अपने देश में भी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को लोग पचा नहीं पा रहे थे और दुष्प्रचार कर रहे थे परन्तु स्वामीजी को तो अपने कर्मपथ पर चलना था,वो तो उस मिटटी के बने थे जिन पर न तो प्रशंसा का प्रभाव होता था और न ही निंदा का. वो तो उस पथ के यात्री थे जिसमें कांटो से उनको जूझ कर आगे चलते जाना था.दूसरी ओर विदेशी समाचारपत्र उनके प्रशस्तिगान में लगे थे. न्यूयार्क हेराल्ड ,प्रेस ऑफ़ अमेरिका तथा अन्य सभी प्रमुख समाचारपत्रों का आकर्षण इस समय स्वामी जी थे. अन्य शिष्यों के साथ इसी समय स्वामीजी की भेंट मारग्रेट नोबुल से हुई जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से विख्यात हुईं.उनकी भेंट जर्मन विद्वान् मेक्स्मुलर से भी हुई जिन पर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का बहुत प्रभाव था.उन्होंने विवेकानंद जी की सहायता से रामकृष्ण परमहंस के विचारों पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की.
अंतत स्वामीजी अपने प्रेमी शिष्यों से अश्रुपूरित विदा लेकर स्वदेश लौटे.कोलम्बो,जाफना होते हुए रामेश्वरम पहुंचे.
जनता बड़े-बड़े राजे महाराजाओं ने उनका भव्य स्वागत किया उनके चरणों में लोट गए स्वयं राजा और जनसाधारण उनकी बग्गी खींच कर आनंदित थे मद्रास,.से कोलकाता पहुंचे स्वामी जी का समस्त भारत में जहाँ भी वे गए भावभीना स्वागत हुआ.कुछ समय बाद पुनः स्वामी जी लन्दन गए. इस बार भारत लौटे समय उन्होंने व्याख्यान नहीं दिए.उनका स्वास्थ्य इतनी थकान के बाद बिगड़ रहा था,शायद एक सीमा तक अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे स्वामी जी.धीरे धीरे उन्होंने अपना कार्य शिष्यों व अन्य गुरु भाइयों को सौंप दिया था,४ जुलाई१९०२ को उन्होंने पार्थिव देह का परित्याग कर दिया.इतनी अल्पायु में उन्होंने वह कार्य कर दिखाया जो उस युग में कल्पनातीत था. स्वामी जी ने भारतीय धर्म व संस्कृति का डंका बजाया था,उनके समक्ष जो हमारे देश को दलित पिछड़ा समझते थे..समस्त धर्मों के प्रति सम्मान,सभी के सदुपदेशों को ग्रहण कर मानवमात्र को शांति,प्रेम व आत्मसम्मान का उपदेश देने वाले महा मानव काश!थोडा समय उनको और मिल पाता. परन्तु सुना है जिसकी जरूरत पृथ्वी पर है उसी को प्रभु अपने निकट रखते हैं. .उनके शब्द थे “जब भारत का सच्चा इतिहास लिखा जायेगा,तब यह सिद्ध होगा कि धर्म व ललित कलाओं के विषय में भारत सारे विश्व का गुरु है.”
आज उनके जन्मदिवस पर उनको हमारी सबसे महत्वपूर्ण श्रद्धांजली यही हो सकती है कि अपने देश,अपनी संस्कृति को विश्व में पुनः प्रतिष्ठा दिलाने का संकल्प लें.यह न भूलें कि हम देश से हैं.सम्पूर्ण विश्व कह सके “वही भारत है गुरु हमारा.”

और हाँ एक सच्ची श्रद्धांजली भारत माँ के लाल, लाल बहादुर के लिए जिनकी आज ११ जनवरी को पुण्य तिथि है.आज ऐसे ही महापुरुषों की आवश्यकता है धरा पर.
उनके जीवन से जुडा एक प्रसंग जो आज के सुविधालोलुप, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के लिए एक उदाहरण है,जिनके ताम-झाम पर देश के बजट का बड़ा भाग व्यय होता है
एक बार शास्त्रीजी रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे। उनकी सीट प्रथम श्रेणी के डिब्बे में थी। वे उस ओर जा ही रहे थे कि उन्हें एक अत्यधिक बीमार व्यक्ति दिखा। उन्हें उस पर दया आ गई, क्योंकि उसमें चलने की भी ताकत नहीं थी।

शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए।

थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं।

शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए। दरअसल अपने उच्च पद का अभिमान न करते हुए सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाला ही सही अर्थो में बड़प्पन शब्द का अधिकारी होता
ठीक उसी प्रकार मनुष्य का भी मोल आंका जाता है। जो मनुष्य ऊंचे पदों पर आसीन दिखाई पड़ता है उसका मोल दुनिया करती है और जो मनुष्य साधारण कार्य में रत रहता है वह अमूल्य न होकर साधारण या आम बना रहता है। और यह सब कुछ वर्तमान राजनीतिज्ञों की भांति दिखावा नहीं था.
दोनों महापुरुषों का प्रेरक जीवन चरित्र हमारे युवा,बच्चों और हम सबके लिए आदर्श व अनुकरणीय है.
( श्रद्धेय लाल बहादुर शास्त्री जी विषय में अपने विस्तृत श्रद्धा सुमन फिर कभी प्रस्तुत करूंगी )

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh