आम आदमी किसके भरोसे ?(चिकित्सक और हम )
नाटकों,उपन्यासों और फिल्मों का एक सामान्य दृश्य होता है,जब रोगी के परिजन चिकित्सक को भगवान् मान कर उसके सामने अपने परिजन को बचाने की भीख मांगते हैं,और डाक्टर का प्राय एक ही आश्वासन होता है,हम ईश्वर तो नहीं हैं परन्तु पूर्ण प्रयास करेंगें.नाटकों में इन दृश्यों को प्रमुखता से दिखाए जाने का कारण यही है कि ये वास्तविकता है.किसी भी गंभीर रोग से ग्रस्त होने पर ,दुर्घटना आदि आपातकालीन स्थिति के समय बस दो की ही शरण में होते है इंसान ……… भगवान् और सामने उपस्थित चिकित्सक.क्या आज वास्तव में इंसान के रूप में भगवान रह गए हैं?
एक परिचित मेहनतकश सीमित आय वाला सोहन अपनी पत्नी की किसी स्वास्थ्य विषयक समस्या पर चर्चा कर रहा था,उसके मस्तक पर स्वाभाविक रूप से चिंता की रेखाएं थीं .मैंने उसको किसी डाक्टर से परामर्श लेने को कहा ,तो उसने बताया किस प्रकार चिकित्सक उसका मूर्ख बनाकर उसको कर्जदार बना चुके हैं.उसने बताया जिस चिकित्सक के पास भी जाता हूँ ,सभी जांच कराने को कहते हैं ,और अच्छी से अच्छी पैथोलोजी लैब से परीक्षण करने पर भी पूर्व की रिपोर्ट को नहीं मानते,अतः चिकित्सक के पास पुनः जाकर दिखाने के लिए उसका विश्वास नहीं बन पा रहा क्योंकि दो बार गलत उपचार उसकी पत्नी झेल चुकी है,अप्रत्यक्ष रूप से सोहन ही .
कुछ दिन पूर्व हमारे एक परिचित छोटे से हँसते खेलते परिचित परिवार की खुशियाँ सदा के लिए मातम में बदल गयीं ,जब एक कुशल कहे जाने वाले विख्यात चिकित्सक की लापरवाही के कारण अपने परिवार, बच्चों को रोता बिलखता छोड़ कर गृह स्वामिनी ऩे सदा के लिए संसार से विदा ली.व्याधि भी कोई गंभीर नहीं मात्र गॉल ब्लेडर में पथरी की समस्या.चिकित्सक द्वारा शल्य चिकित्सा का सुझाव , कुछ परेशानी होने पर मरीज की शिकायत,सुनवाई नहीं,मरीज के पुनः जोर देने पर अपनी ही इच्छा से दूसरे चिकित्सक को बुलाकर परीक्षण और दूसरे चिकित्सक को अपना ही प्रवक्ता बना लेना ,रोगिणी की स्थिति बिगड गई ,डाक्टर ने हाथ खड़े कर दिए,दिल्ली ले जाया गया ,जहाँ चिकित्सकों ने माना कि डाक्टर से ऑपरेशन में त्रुटि हुई लेकिन अब उनके हाथ में कुछ नहीं .
ऐसे मामले इतने अधिक हैं कि उनकी गणना करना ही कठिन है, अभी कुछ सप्ताह पूर्व ही आमिर खान के कार्यक्रम “सत्यमेव जयते” में प्रत्यक्ष रूप से प्रमाण सहित ऐसे चंद केस दिखाए गये.परन्तु आज ऐसे ही चिकित्सकों की शरणागत होने के विवश हैं. इन चिकित्सकों के कारनामों के कारण उनके प्रति अविश्वास की खाई गहराती जा रही है.डाक्टर्स के प्रति आक्रोश,अविश्वास बढ़ने का कारण आज इस क्षेत्र का पूर्ण व्यवसायिक बन जाना है.व्यवसायिक होने में तो इतनी बुराई नहीं समस्या है धोखाधड़ी,रोगी को लूटने की प्रवृत्ति . यदि विचार किया जाय तो भुक्तभोगी किसी न किसी रूप में सभी हैं ,जिनमें लापरवाही,मानवीय दृष्टिकोण का अभाव एवं चिकित्सकों के लोभ के चरम के कारण चिकित्सक को भगवान मानने वाला रोगी असमय ही काल का ग्रास बन जाता है,अनावश्यक रूप से आपरेशन कर डालना,शरीर के अंगों विशेष रूप से किडनी आदि निकलकर बेच देना,अनावश्यक महंगी औषधियां लिखना सामान्य हो चला है.
अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात या अपना कार्यभार ग्रहण करते समय सभी क्षेत्रों में अपने कार्य की पवित्रता बनाये रखने के लिए शपथ ग्रहण की जाती है.इसी प्रकार डॉक्टर्स भी जो शपथ ग्रहण करते थे उसको हिप्पोक्रेटस शपथ कहा जाता है.ये शपथ अति प्राचीन होने के कारण इसका नया प्रारूप २००३ में डॉ. लियो रेबेलो द्वारा प्रस्तुत किया गया जो समय व आवश्यकता के अनुसार इसका संशोधित स्वरुप है १ जुलाई को डॉक्टर्स दिवस विश्व में मनाया जाता है.. इस शपथ के अनुसार;
कोई भी चिकित्सक किसी भी रोगी को न तो अतिरिक्त औषधी देगा.,न ही अनावश्यक टेस्ट आदि कराएगा.मरीज से कोई भी अतिरिक्त धन या उपहार आदि नहीं लेगा,डॉक्टर्स बच्चों को भी अनावश्यक इंजेक्शन आदि नहीं देंगें,कोई भी रिपोर्ट आदि अपने अनुसार प्रभावित नहीं करवाएंगे. किसी भी रोगी को अनुचित परामर्श आदि नहीं देंगें तथा आवश्यकता अनुसार अन्य चिकित्सा पद्धति प्रयोग से परामर्श लेने को भी कह सकते हैं.इसी प्रकार समय समय पर अपने चिकित्सकीय ज्ञान को अध्ययन तथा सेमिनार्स आदि में भाग लेकर अपडेट रखने की बात कही गयी है.
वर्तमान में जो कारनामे डॉक्टर्स के देखनेमें आ रहे हैं तो लगता है उन्होंने एक ही बीड़ा उठाया है कैसे शपथ के सारे प्रावधानों का मखौल उड़ाया जाए.
किसी ने कहा है बीमारी या मुसीबत पूछ कर नहीं आती.आखिर वो हमारी अनुमति की मोहताज तो है नहीं.प्रतिवर्ष कोई न कोई महामारी नए व भयंकर रूप में काल का ग्रास बनाने को तैयार रहती है.नियमित रूप से चली आ रही बीमारियाँ तो विद्यमान हैं ही,इसके अतितिक्त भी कभी डेंगू का कहर होता है,तो कभी स्वाइन फ्लू ,चिकनगुनिया का.ऐसे ऐसे रोग जिनके नाम भी संभवतः पूर्व में नहीं सुने जाते थे..निजी अस्पतालों में मरीज भर्ती के लिए स्थान ही नहीं.छोटी सी बेंच पर २-२ मरीजों को लिटा कर ड्रिप लगाई जाती है.,जब वो व्यवस्था भी नहीं बन पाती तो जमीन पर ही मरीजों को लेटाया जाता है..और जेब खाली होती है . ये हालात तो हैं निजी अस्पतालों के और सरकारी में या तो कोई बेचारा किस्मत का मारा जाने को तैयार नहीं हो पाता जब तक उसकी सामर्थ्य साथ देती है, चला गया तो वहां की स्थिति पर तो चर्चा करना ही व्यर्थ.
डॉक्टर्स,केमिस्ट्स,अल्ट्रा साऊंड,एक्स रे,अन्य ढेरों टेस्ट्स तथा पैथोलोजी लेब्स का गठजोड़ रोगी तथा परिवारजनों को कंगाल बनाने के लिए पर्याप्त .प्रतिदिन अनावश्यक रूप से डॉक्टर द्वारा संस्तुती की गयी लेब से टेस्ट करना आपकी विवशता है.लेब्स भी वो रिपोर्ट देते हैं जो डॉक्टर्स दिलवाते हैं. उसके बाद रोगी के शरीर पर नए नए प्रयोग.रोगी के प्राण रहते हैं डॉक्टर्स द्वारा नियुक्त अप्रशिक्षित स्टाफ के हाथों में .और आप पैसा पानी की तरह बहा कर भी मात्र मूक दर्शक बने रह सकते हैं.
प्रश्न है कि विकल्प क्या है, निरोग रहना ? बहुत से रोग तो हम अपनी जीवन शैली को विकृत कर ही भुगतने को विवश हैं. चिकित्सा सुविधाएँ नगण्य होने पर भी स्वच्छ वातावरण ,भोजन और जलवायु तथा पर्याप्त शारीरिक श्रम के कारण दीर्घायु और स्वस्थ शरीर हमारी परम्परा थी. परन्तु पर्यावरण प्रदूषण,खाद्य पदार्थों में मिलावट का चरम ……………आदि विविध कारणों से आज जन्म के समय ही बच्चे ,युवा सभी चिकित्सकों के आसरे जीवन जी रहे हैं.
सरकारी अस्पतालों में तो लूट का चरम है ही ,दूसरी ओर सरकार चिकित्सा क्षेत्र को बड़े बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में सौंप आम आदमी की पहुँच से दूर कर रही है . यह एक निर्विवाद सत्य है कि हमारे यहाँ कुछ स्थानों पर विश्वस्तरीय सुविधाएँ विश्व के अन्य देशों से सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं,परन्तु आम आदमी और रोज कुआँ खोद कर पानी पीने वाले को क्या जीने का अधिकार नहीं ,एम्स आदि में आम आदमी को कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ती है,यह सर्वविदित है और इस स्तर के अन्य चिकित्सा संस्थान खोलने की मांग होने पर स्थान को लेकर राजनीति होती है और योजनाएं अधर में लटक जाती हैं.
राशन के सामान के साथ पूरे माह की औषधियों और चिकित्सकों के बिल, बज़ट का एक बड़ा भाग होते हैं.उसमें भी अपनी गाढ़ी कमाई लूटने का दुःख होता है जब पता चलता है कि बाज़ार में नकली दवाएं बिकती हैं.
वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियाँ उपलब्ध हैं,परन्तु होम्योपैथी ,आयुर्वेदिक आदि को अपनाने वालों का प्रतिशत बहुत कम है विशेष रूप से महानगरों में .योग से शरीर को स्वस्थ रखना बहुत अच्छा विकल्प है,परन्तु डाक्टर्स के यहाँ मोटा धन व्यय कर एलोपैथिक औषधियों के दुष्परिणाम भुगतने तथा डाक्टर्स के घंटों प्रतीक्षा करना स्वीकार्य है,परन्तु योग के लिए समय नहीं ,जिसको एक बार सीख कर तथा संतुलित खान पान के द्वारा बहुत से रोगों से मुक्त रहा जा सकता है.
नियम क़ानून तो बहुत हैं ,परन्तु उन नियमों एवं नियंत्रक संस्थाओं की सक्रियता,सजगता आवश्यक है,साथ ही जन जागृति की भी कि ऐसी अनियमितताओं के विरुद्ध तथा कुछ अनुचित प्रत्यक्ष रूप से होने पर आवाज़ उठाने को तैयार रहा जाय.शेष विकल्प पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है ,
(आज भी मानव सेवा में समर्पित डाक्टर्स जिन्होंने अपनी आत्मा का सौदा नहीं किया है,विद्यमान हैं,उनको मेरा शत शत नमन ,आलेख में कटु उनके लिए ही लिखा है जो ऐसे कार्यों में लिप्त हैं.)
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