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बच्चे हमारा कल हैं,परन्तु?……….

chandravilla
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वर्तमान युग में यदि ये कहा जाय कि हम अपने परिवार ,समाज और देश का भविष्य ही अंधकारमय बना रहे हैं ,तो प्रथम दृष्टया उस पर विश्वास नहीं करेंगें ,परन्तु आज का यथार्थ यही है.ऐसा कहने के पीछे मेरी धारणा यह है कि बच्चे हमारा कल हैं,उन्ही पर हमारा ,परिवार ,समाज और राष्ट्र का भविष्य टिका है,परन्तु आज हम उनका उज्जवल भविष्य उनको भौतिक रूप से समृद्ध और कमाऊ संतान के रूप में ही निर्धारित  करना चाहते  हैं. अधिकांश परिवारों में  आज क्या  स्थिति है, देखते हैं……………
हम किसी परिचित परिवार में बैठे थे,टी वी पर कोई कार्यक्रम आ रहा था जिसका आनन्द  सभी लोग ले रहे थे,इतनी देर में उनका छोटा बच्चा जिसकी आयु  लगभग 10-11 वर्ष थी,आया रिमोट उठाया और तुरंत चैनल बदल दिया .बच्चे के बाबा ने कुछ अनिच्छा प्रकट की क्योंकि वो कोई पारिवारिक कार्यक्रम था . इसी समय  बच्चे के पिता ने बड़े गर्व  से कहा ,सुनता ही नहीं ,इसके सामने कोई और टी वी देख ही नहीं सकता.थोडा सा बज़ट का प्रबंध हो जाय ,हम तो सोच रहे हैं इसके कमरे में एक   टी वी   अलग ही लगवा दें,परन्तु इसका कहना है कि इसको एल ई डी ही चाहिए ,अब उसके लिए तो और प्रबंध करना होगा.मैंने उनसे कहा अभी तो छोटा है अलग टी वी कुछ जरूरी नहीं ,परन्तु बच्चे की माँ तुरंत बोलीं “नहीं जी, आजकल तो इनसे भी छोटे छोटे बच्चों के कमरे में अलग टी वी ,कंप्यूटर आदि सब कुछ रहता है ,ये बहुत दिन से जिद्द कर रहा है,अब तो लगवाना ही पड़ेगा.”बच्चों के मन में ये बात आ जाती है कि हमारे मम्मी पापा हमें प्यार नहीं करते.”
सुझाव वहाँ  देना चाहिए,जहाँ उसकी उपयोगिता  हो ,या कोई सुनने की इच्छा रखता हो , यही सोचते हुए हम लोग थोड़ी देर बैठकर अपने घर आ गए.मन ही मन मैं सोच रही थी एक मध्यम वर्गीय परिवार जो अपने लिए भले ही आवश्यकता या सुख सुविधा की वस्तुएँ जुटाने में वर्षों बिता दे परन्तु बच्चे को समस्त भौतिक सुख सुविधा अपनी चादर से पैर बाहर निकल कर भी देना चाहता है,परन्तु क्या ये उचित है? आज अपवाद स्वरूप कुछ परिवारों को छोड़ दें तो व्यवहारिक स्थिति यही है.
एक ओर तो कहा जाता है ,आजकल बच्चे बिगड रहे हैं ,स्वार्थ बढ़ रहा है उनमें ,सुनते नहीं ,बड़ों का सम्मान नहीं करते ,संस्कार टूट  रहे हैं,बच्चों के खर्चे बढ़ रहे हैं आदि …………….परन्तु इसके लिए उत्तरदायी कौन है ?
थार्थ तो यह है कि  भौतिकता की चकाचौंध  में खोयी युवा पीढ़ी    संस्कारों के साथ जीने में स्वयं को असहज अनुभव करती है (अपवाद स्वरूप , इस मेनिया से अप्रभावित लोग कृपया क्षमा करें) एक बार किसी अवसर पर एक संस्कारित परिवार के युवक से चर्चा हो रही थी , जिसके परिवार का नाम अपने भारतीय संस्कारों के कारण विख्यात था,और अब वो युवक (मेरे अनुसार) सब दुर्गुणों से सम्पन्न था ,से जब मैंने यही कहा कि आज संस्कारों का लोप हो रहा है,तो उसने कहा आप किस जमाने की बात कर रही हैं ,आजकल कहाँ समय है इन पुरानी बातों को सोचने का ,समय के साथ बदल गया सब कुछ.मुझको लगा कि मैं  तो समय से बहुत पीछे हूँ.
समय के साथ परिवर्तन होता है,जीवन शैली,रहन सहन ,विचार सभी में ,जो आवश्यक भी है ,यह मैं स्वीकार करती हूँ.परन्तु क्या अश्लीलता,स्वार्थ ,आदरणीयों , गुरुजनों का अपमान ,अपौष्टिक भोजन का सेवन .सभ्यता संस्कृति का उपहास उडाना ही परिवर्तन के लक्षण हैं?
लगता है दिखावे के प्रयास में अपनी जड़ों को छोड़ते हुए कुछ अधिक ही आगे बढ़ गए हैं.यही कारण है कि आज हम खुलेपन का समर्थन करते हुए बच्चों के सामने झूठ सच,नैतिक अनैतिक सभी तरह का व्यवहार करते हैं,अश्लील फ़िल्में,धारावाहिक ,अन्य कार्यक्रम बच्चों को दिखाते हैं जहाँ से बच्चे का अपरिपक्व मस्तिष्क सकारात्मक नहीं केवल नकारात्मक ही सीखता है.आज बच्चे हिंसक हो रहे हैं,गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करते हैं ,हम उन को रोकते नहीं क्योंकि अब वो ही हमारी दृष्टि में आधुनिकता की पहिचान है. बच्चे को लालच अंकल चिप्स ,कोल्ड ड्रिंक,चौकलेट और पिज्जा का दिया जाता है,ये जानते हुए भी कि हम बच्चे के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. दूसरे शब्दों में बच्चे के मुख से निकली उचित अनुचित सभी मांगों को पूर्ण करना ! ऐसा लगता है कि हम भी तुष्टिकरण की नीति को अपनाने के आदि हो रहे हैं.आज बच्चे को पैसे का मूल्य समझने ही नहीं दिया जाता.एक या डेढ़ वर्ष की बच्ची को टी वी के आगे बैठाकर ,माँ बड़े गर्व से कहती हैं ,टी वी बंद नहीं करने देती ,रोती है यदि बंद करें तो
.
पहले भी बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी मांगें पूर्ण की जाती थी,लालच दिया जाता था,परन्तु कहानी सुनाना,घुमा कर लाना,बच्चों की गुल्लक में पैसे डालना ,उनको उनकी रूचि का कोई खिलौना अपनी जेब के अनुसार दिलाना,उनकी रूचि के व्यंजन बनाकर खिलाना आदि आदि ..
मेरा मानना है कि बच्चों की मांग पूर्ण अवश्य की जाएँ परन्तु एक सीमा तक ,बच्चों को अपनी परिस्थिति बताकर कुछ समझ को विकसित करने का कार्य किया जाय..आज की माँ परेशान हो कर ये तो कहती हैं कि हमारा बच्चा खाना नहीं खाना चाहता ,परन्तु ये भूल रही हैं कि इस समस्या का समाधान डाक्टर के पास नहीं स्वयं उनके पास है.उनको भोजन पहले कराईये , यदि पसंद  की कोई वस्तु देनी भी है तो भोजन के बाद .उनकी शिक्षिका से बात करिये .बच्चे माता-पिता से अधिक टीचर की बात सुनते हैं,विद्यालयों में औपचारिकता के लिए ये तो कहा जाता है कि घर से भोजन दें बच्चों को ,परन्तु बच्चे वो भोजन कर रहे हैं ,भूखे रहते हैं ये देखने का समय किसी शिक्षक या शिक्षिका के पास नहीं.यही कारण है कि आज बच्चे मोटापे का शिकार हो कर बचपन से हो मधुमेह और घातक रोगों से ग्रस्त होने लगे हैं.न तो उनके लिए शरीर का व्यायाम कराने वाले खेल कूद हैं ,न ही पौष्टिक भोजन .टी वी, इंटरनेट,वीडियो गेम्स,मोबाइल  ही उनका मनोरंजन है.इनके विषय में जानकारी होना अनुचित नहीं अनुचित है इन साधनों का दीवाना बनाना .
बच्चों से सम्बन्धित एक समस्या जिसके कारण उनको भी तनाव रहता है और उनकी माँ को विशेष रूप से ,वो है शिक्षा की दूषित प्रणाली .आज बच्चे ज्ञानवान कम रट्टू तोता अधिक बन रहे हैं,प्रोजेक्ट वर्क के नाम पर माएं उनके कार्य पूर्ण करती हैं,और पढ़ाई के लिए ट्यूटर के पास भागना उनकी विवशता है.
किसी भी देश का भविष्य उसके बच्चे ही होते हैं .एक ओर निर्धनता के कारण कुपोषित बच्चे .दूसरी ओर दिखावे और प्रदर्शन के चलते बच्चों की जीवन शैली को विकृत बनाते समृद्ध या मध्यम वर्गीय परिवार..ये सत्य है कि दूषित शिक्षा प्रणाली के कारण शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान तो हमारे हाथ में प्रत्यक्ष रूप से नहीं है,परन्तु बच्चों के व्यवहार ,जीवन शैली और आचार-विचार को माता-पिता स्वयं अपने व्यवहार को सुधार कर उनके भविष्य को एक इंसान के रूप में सुधार सकते  है.
आज यदि ऐसे माता पिता को हम खोजने लगें जो बच्चे को राष्ट्र प्रेम से सम्बन्धित कुछ तथ्य बताते हों, ,महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग सुनते हों ,राष्ट्रीय पर्वों पर बच्चों को विद्यालय जाने के लिए प्रोत्साहित करते हों तो बिरले ही मिलेंगें.
यदि माँ स्वयं टी वी के भद्दे,समाज को गलत दिशा में निर्देशित करने वाले कार्यक्रम देख कर आनन्दित हैं,सब काम धाम छोड़ कर टी वी से चिपकती हैं तो बच्चों से कैसे आशा की जा सकती है कि वो दूर रह सकेंगें. टी वी कार्यक्रमों को दोष देना समस्या का हल नहीं क्योंकि टी वी के कार्यक्रमों की टी आर पी ही निर्माताओं को ऐसे कार्यक्रम परोसने को प्रेरित करती है.पिता शराब ,गुटके, सिगरेट का सेवन करते हुए बच्चों से झूठ सच बोलते हैं,रिश्वत या भ्रष्ट उपायों से घर की भौतिक समृद्धि को बढाना चाहते हैं,आपसी लड़ाई में बच्चों को मोहरा बनाते हैं,अपने मातापिता का सम्मान नहीं करते हैं, तो बच्चों का भविष्य उज्जवल नहीं बना सकते.
बच्चों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करना अनुचित तो नहीं परन्तु उनके भविष्य के ,उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना तो अक्षम्य है..यदि हम देश ,समाज या स्वयं अपने बच्चे और परिवार का हित चाहते हैं तो अपनी सोच को को बदलना ही होगा. नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के इस वाक्य का महत्व समझना होगा ,यदि मुझको सौ माताएं मिल जाएँ तो एक शक्तिशाली और स्वर्णिम राष्ट्र का निर्माण मैं कर सकता हूँ.

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