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सब कुछ मिलावटी है.( तन,धन से लुटता आम आदमी )

chandravilla
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मानव सभ्यता उतरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर है. एक समय था कि मानवीय  कल्पनाओं का साकार रूप पौराणिक ग्रंथों में   ही उपलब्ध हो   पाता था. ये भी कहा जा सकता है कि संभवतः हमारी कल्पनाओं का आधार वही पौराणिक वृत्तांत  थे.भारतीय सभ्यता और संस्कृति इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जिनमें वर्णित पुष्पक विमान,अग्नि बाण,शब्दभेदी बाण, ,हवा में उड़ना,अथाह सागर पर पुल बना देना ,अग्नि रोधक भवन ,ऐसी स्थापत्य कला जिसमें थल; में जल और जल में थल का आभास हो ,अक्षय पात्र,जीवन रक्षक औषधियां  …………. आदि कोरी कल्पनाएँ नहीं थीं,अपितु  आज भी सप्रमाण किसी न किसी रूप में उनके दर्शन होते हैं.

आज के वैज्ञानिक युग के चमत्कारों से सब  ही परिचित हैं,जिसके कारण दुनिया मुट्ठी में सिमट गई है.दुनिया के दूसरे छोर पर बैठे अपने प्रियजन के सम्पर्क में हर समय रहते हैं,किसी भी कोने में घटित होने वाली घटना की पल पल की जानकारी हमारे पास रहती है .विकास का जो भी चरम हमारी कल्पना में हो सकता है, उससे भी बहुत अधिक  किसी न किसी रूप में उपस्थित है.विकास की इस दौड़ में आगे तो बहुत निकले परन्तु शायद जिस जीवन के लिए मनुष्य सब कुछ करता है उसी को नेपथ्य में पहुंचा दिया.
मानव की लोभ लिप्सा  चरम पर पहुँच गई ,जिसका सूत्र इस कहानी से जोड़ना चाहूंगी ,एक राक्षस ने तपस्या के बल पर प्रभु से वरदान माँगा कि उसके पास इतना धन हो कि वह जिस वस्तु को स्पर्श करे वह स्वर्ण में बदल जाय.परिणाम स्वरूप अथाह धन का स्वामी बन बैठा और लोभ में अंधा हुए उस राक्षस के  सभी परिजन भी  स्वर्ण मूर्ति  बन गए .उसकी संतान ,पत्नी सब कुछ .अहसास तो उसको हुआ वो भूल गया कि जिस धन को उप[भोग करने वाले ही नहीं बचेंगें उसका वो क्या करेगा.,लेकिन अब उसके पास पश्चाताप और विलाप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचा था.
ऐसी ही कुछ घटना पूर्व में भी सुनी है,और पुनः सुनने में आयी ,जब नकली दवा बनाने वाली कम्पनी के मालिक के  एकलौते बेटे की मृत्यु हो गयी ,वही दवाई दिए जाने से. और आज! …………  केवल दवा ही नहीं बाज़ार में सबकुछ नकली है.व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता की कोई भी वस्तु आज अपने शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है.

व्यक्ति को पेट भरने के लिए रोटी आसमान की उड़ान लेती महंगाई के कारण वैसे ही उसकी थाली से गायब होती जा रही है, यदि हाड तोड़ परिश्रम कर व्यक्ति उसका प्रबंध करता भी है,तो वह भी नकली.आटे में मिलावट,दालों में मिलावट ,कुछ भी तो शुद्ध नहीं ,सर्वाधिक सेवन की जाने वाली अरहर या तुअर की दाल वैसे तो  राजसी बनकर दुर्लभ ही  हो रही  है, और उसपर भी  उपलब्ध  होती  तो है जहरीली खेसारी की दाल ,जिसको खाकर पहले रोगों को और फिर अपनी मौत को न्यौता देने को विवश हैं..शेष दालों पर भी की जाने वाली पालिश और उसको उगाने और कीड़ा लगने से बचाने में प्रयोग होने कीटनाशक मानवशरीर के लिए भी जहर हैं.
सब्जी, तरकारी को मानव के लिए दुर्लभ बनाया है,महंगाई ने और शेष कसर पूरी कर दी ,घातक बीजों और जहरीले आक्टोसिन् के इंजेक्शन ने.लौकी के जूस की उपयोगिता तो पता चली परन्तु उत्पादकों ने रातों रात लौकी की बेल पर भरपूर लौकी उगाने के साधन खोज लिया ,सलाद को उपयोगी बताया गया तो सब्जियों को कीड़े से बचाने के लिए वही कीटनाशक और स्वाद रहित तथा हानिकारक टमाटर,खीरे सभी खा रहे हैं.
फल की बात करना तो आम आदमी के लिए बस स्वप्न सा बन रहा है ,डाक्टर्स का AN APPLE A DAY KEEPS DOCTORS AWAY  KA  सिद्धांत मेडिकल साइंस को झूठा सिद्ध कर रहा है.क्योंकि सेब और अन्य फलों  पर उसको संरक्षित करने के लिए उस पर चढाई जाने वाली मोम की परत , उनको चमक दार और आकर्षक बनाने के लिए जहरीले तेल आदि
SEV ,तुरंत पकाने के लिए कार्बाइड जैसे जहरीले.रसायन कहाँ तक गिनें फलों को जहरीला बना रहे हैं.

दूध, घी की नदियों वाले इस देश की यदि बात करें तो नकली दूध ,जिसमें नकली के नाम पर पानी नहीं ऐसे ऐसे विषैले तत्व मिलाये जा रहे हैं ,जो धीमा जहर ही है,यूरिया,डिटर्जेंट,पशुओं की चर्बी ………आदि .घी से शरीर पुष्ट होता है की मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया गया कि पहले तो  महंगाई के कारण घी को आम आदमी के लिए सूंघने के लायक भी नहीं छोड़ा,उसके बाद चिकित्सकों ने ब्लडप्रेशर तथा हृदयरोग तथा चर्बी का शत्रु बता दिया,इसके बाद भी कोई प्रयोग करने के लिए मैदान में डटा रहा तो चर्बी और अन्य जहरीले तत्वों ने उसका नाम मिटा दिया.
देसी घी से वंछित आम आदमी ने सरसों के तेल और वनस्पति घी,रिफाइंड तेल से अपनापन दर्शाया तो वो भी बाज़ार में नकली छा गया.त्यौहार पर भारतीयों की प्रिय मिठाई कृत्रिम मावे,दूध के कारण ,व्रत उपवास में प्रयोग होने वाले कुट्टू,सिंघाड़े के आटे तथा मेवों को भी नहीं बक्शा मिलावटखोरों ने .गुड चीनी शक्कर सब कुछ बस नाम लेने के लिए बचा है.
यहाँ तक कि जहर भी नकली बिकता है ,(संभवतः उसका कारण यही हो कि एक दम मरने  से क्या लाभ स्लो पोइजन से तड़फ का मरो) कीटनाशक,खाद ,पेंट …….आदि.शराब और गुटखा सब में मिलावट.जैसे जैसे इनके  आदि लोगों की संख्या बढ़ती गई तो  नकली शराब और गुटखे का धंधा चमक गया. दूसरे शब्दों में कहा जाए कि जिस वस्तु का उपयोग चर्चा में आया  उसी का नकली स्वरूप उपलब्ध.
एलोपैथिक ,आयुर्वेदिक दवाएं सभी बस धोखा देने वाली तथा नकली ,कपड़ों का बाज़ार ,खिलौने ,इलेक्ट्रोनिक्स ,अन्य उपयोग की सभी वस्तुओं पर चीन ने कब्ज़ा किया और आम आदमी की धारणा को “दादा ले पोता बरते” को निर्मूल बना दिया.आज हर दुकान पर लिखा मिलता है नो गारंटी .
यदि ये कहा जाय कि आज कोई भी वस्तु,व्यक्ति , यहाँ तक कि शिक्षा  भी अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है तो कुछ अनुचित नहीं है.मानव की विडंबना तो ये है कि जानते हुए भी वही सबकुछ खाने और प्रयोग करने को विवश है.
दोषी ठहराने की यदि बात करें तो सर्वप्रथम तो दोषी हम स्वयं हैं कि हमारे जैसे ही लोग स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर मानवता का कलंक बने हुए हैं.लेकिन उससे भी बड़ा दोष ये है कि हम चुप रहते हैं, वैसे तो कोई भी दल अपने घोषणा पत्र को लागू नहीं करता और खाद्य पदार्थों में मिलावट का विषय तो किसी भी दल के घोषणापत्र का हिस्सा   भी नहीं होता क्योंकि ऐसी मांग होती ही नहीं.भले ही उपभोक्ता संरक्षण क़ानून लागू हों,कोई वस्तु खरीदने पर बिल लेना अनिवार्य बताया जाता,बार बार प्रचार किया जाता हो परन्तु हमारी उदासीनता ही बनी रहती है.
लगता है,हमारे शरीर और मन आदि हो चुके हैं, सब कुछ नकली प्रयोग करने के लिए.यही कारण है कि नकली सामान का प्रयोग और डाक्टर्स व दवाओं पर अपनी आय लुटाना हमारी नियति बन गयी है.सरकार की यदि बात करें तो क़ानून बनाकर भी उसकी धज्जियां धडल्ले से उडाई जाती हैं,जिसका प्रमाण है, निरंतर पकड़े जाने वाले नकली दूध,घी,दवाओं,सीमेंट ,मसाले ,अन्य खाद्य पदार्थ .परन्तु एक बार कुछ शोर होता है,और पुनः जोरशोर से नकली काम चलता है,क्योंकि इन निर्माताओं और उत्पादकों को बस मुट्ठियाँ गर्म होनी होती हैं और उससे कई गुना अधिक कमाना होता है.सरकारी व्यवस्था ही कड़े कदम उठाकर और उनको लागू कर इसपर नियंत्रण लगा सकती है. उच्च स्तरीय प्रयोगशालाओं की कमी भी मिलावट खोरों को प्रोत्साहित करती है क्योंकि सर्वप्रथम तो वो पकडे ही नहीं जाते ,और उसके बाद सबूतों का अभाव तथा घूसखोरी उनको सुरक्षित रखती है.यही कारण है कि बड़े ब्रांड जनता को लूट रहे हैं और अगर कभी पकडे गए तो थोडा सा हल्ला मच कर मामला  शांत हो जाता है और कुछ समय पश्चात वही उत्पाद दूसरे नाम से बिकने लगता है.
विचार किया जाय तो इस प्रवृत्ति के बढ़ने का कारण बढ़ती जनसंख्या और मानव का  सुविधाभोगी बन जाना भी है..अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार मांग बढ़ रही है,उत्पादन घट रहा है तो पूर्ती के लिए ऐसे ही साधन शेष रह जाते हैं अगर दूध की ही बात लें तो गाय ,भैंस तो बूचड़खानों में कट रहे हैं,चरागाह के स्थान पर अट्टालिकाएं खड़ी हो रही है,तो दूध का उत्पादन कैसे बढ़ेगा ,यही बात अन्य  उत्पादित वस्तुओं के संदर्भ में है. ये सब दुष्परिणाम हमारी नीतियों का दोषपूर्ण होना तथा  अंधे लालच के  हैं… अपने स्तर पर तो  जागरूकता ही कुछ तारणहार बन   सकती है.
इसके अतिरिक्त भी साबुत  मसालों को स्वयं पीस कर प्रयोग करने से ,फल सब्जियों को बहुत अच्छी प्रकार धो कर प्रयोग करके भी कुछ राहत मिल सकती है,यदि स्थान उपलब्ध हो तो सब्जियां उगाना भी एक विकल्प है.स्थान स्थान पर बने ऐसे केंद्र जहाँ इस संदर्भ में शिकायत लिखाई जा सकती है,अवश्य लिखानी चाहिए अपने पास बिल आदि सुरक्षित रख कर कुछ संभावना बनती है.अन्य वस्तुओं की गुणवत्ता जानने या उसमें मिलावट के उपाय भी पता लगाकर परीक्षण कर प्रयोग करना एक अन्य विकल्प है.
अतः जागिये ,औरों को जगाईये तथा दुर्लभ मानव शरीर को स्वस्थ रखिये,

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