दोहरे शतक पर स्मरण दो महान विभूतियों का(ताशकंद में वतन का लाल सो गया)
“आज है 2 अक्टूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान, आज के दिन दो फूल खिले थे जिनसे महका हिंदुस्तान, एक का नाम था गांधी और दूसरा लाल बहादुर महान एक का नारा अमन, एक का जय जवान जय किसान
अमन .सीमा पर जवान और खेत पर किसान की महिमा को समझने वाले ये अमर विभूतियाँ गाँधी जी और शास्त्री जी अपने कृत्यों से ही अमर हुए हैं,क्योंकि न तो इनका जन्म किसी राजपरिवार में हुआ और न ही किसी बड़े नेता या राजे महाराजे का संरक्षण इनको प्राप्त था.और न ही इनको ईश्वर ने विशेष सुन्दर रूप से संवारा था ,बस आत्मबल,ईमानदारी ,सत्य-अहिंसा और नैतिकता की पूंजी से समृद्ध अवश्य बनाया था.
भारतीय इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित इन महान आत्माओं का देश के लिए योगदान अभूतपूर्व है.दोनों को उनके जन्मदिवस पर श्रद्धापुष्प अर्पण करते हुए आज लाल बहादुर शास्त्री के योगदान पर कुछ चर्चा …………….
देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन का एक प्रसंग पढ़ा था,जो इस प्रकार था;शास्त्री जी ने अपने सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश एक स्वयंसेवी संस्था के सदस्य के रूप में इलाहबाद से किया था.एक कर्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक के रूप में पूर्ण मनोयोग से कार्यरत रहते थे शास्त्री जी ,परन्तु समाचारपत्रों आदि में पब्लिसिटी से उनको परहेज था. कोई भी बड़े से बड़ा कार्य सम्पन्न करने पर भी वो स्वयं को नेपथ्य में ही रखते थे.साथी स्वयंसेवक पूछते कि आपको अपना नाम सामने आने से कष्ट क्यों होता है तो उत्तर में उन्होंने लाला लाजपतराय के शब्द दोहरा दिए जो उन्होंने संस्था के कार्य की दीक्षा देते हुए कहे थे, “लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं,एक बढ़िया संगमरमर है जिसके मेहराब और गुम्बद बने हैं, दुनिया उन्ही की प्रशंसा करती है.दूसरे हैं नीवं के पत्थर ,जिनकी कोई प्रशंसा नहीं करता”शास्त्री जी ने कहा मैं वही नींव का पत्थर बनना चाहता हूँ.
जिस भारत भू के लाल इतने संस्कारित,सद्विचारों की पूंजी से धनवान रहे हों,जिन्होंने देश में अन्न का भंडार कम होने पर अपने मनोबल से इस संकट का सामना किया हो उस देश के वासी अपने भाग्य पर गर्व क्यों न करें . जब शास्त्री जी प्रधानमन्त्री बने तो देश में अन्न की कमी थी, दूसरे देश अनाज देने के बदले में हम पर मनमानी शर्तें थोपना चाहते थे। अतः शास्त्री जी इस संकट की घड़ी में भी किसी देश के सामने नहीं झुके.उन्होंने विदेशी अनाज को ठुकरा दिया और देश के किसानों और वैज्ञानिकों को अधिक से अधिक अनाज उपजाने के लिए प्रेरित किया. अन्न की कमी से निपटने के लिए इसके लिए उन्होंने सप्ताह में एक दिन सोमवार को एक समय का भोजन करना बन्द कर दिया अर्थात उपवास , देश के करोड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया,परिणाम स्वरूप अन्न के संकट का समाधान हो गया.
इतना ही नहीं नैतिक आदर्शों का उनके जीवन का किस प्रकार प्रभाव था इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है जब उन्होंने केन्द्र सरकार में रेल मन्त्रालय का कार्यभार सम्भालने के दौरान इन्होंने इस विभाग में बहुत सुधार किये लेकिन इनके कार्यकाल में दक्षिण भारत में एक रेल दुर्घटना में 144 व्यक्ति मारे गये। शास्त्री जी ने रेल मन्त्री होने के नाते इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मन्त्री का पद छोड़ने में पल भर की भी देर नहीं लगाई.
अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता के कारण ही समय समय पर उन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों का कार्य भार संभाला और दक्षता से निर्वाह भी किया.
शान्ति की प्रतिमूर्ति लाल बहादुर शास्त्री के अद्भुत प्रेरक रूप का दर्शन तब हुआ जब पाकिस्तान ने उनके प्रधानमंत्रित्व काल 1965 में अपने कुत्सित इरादों को पूर्ण करने के लिए कश्मीर घाटी को हस्तगत करने की योजना बनाई , लेकिन शास्त्री जी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए पंजाब की ओर से लाहौर में सेंध लगा पाकिस्तान को अपने बढे हुए कदम पीछे हटाने पर विवश कर दिया।पाकिस्तान के इस कुकृत्य की विश्व स्तर पर बहुत निंदा हुई। पाक सत्ताधीशों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए तत्कालीन सोवियत संघ से संपर्क स्थापित किया और अंतर्राष्ट्रीय दवाब के प्रभाव में रूस के आमंत्रण पर शास्त्री जी 1966 में पाकिस्तान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद गए। इस समझौते के अनुसार भारत को पाकिस्तान के वे सभी हिस्से लौटाने पर सहमत होना पड़ा जहाँ भारतीय सेना ने अपने सीमित साधनों के साथ विजयश्री का वरन किया था.
आदरनीय स्नेही साथियों , जागरण पर ब्लोग्स के दो शतक पूरे करते हुए महान विभूतियों के जन्मदिवस पर श्रद्धा सुमन समर्पित (आप सभी के सहयोग,अपनत्व और स्नेह से ही यहाँ तक पहुँच सकी हूँ .सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ.भविष्य में भी आपका स्नेह इसी प्रकार मिलेगा ऐसी आशा और विश्वास के साथ )
“आज है 2 अक्टूबर का दिन,
आज का दिन है बड़ा महान,
आज के दिन दो फूल खिले थे
जिनसे महका हिंदुस्तान,
एक का नाम था गांधी और
दूसरा लाल बहादुर महान
एक का नारा था अमन,
और एक का जय जवान ,जय किसान ये पंक्तियाँ बचपन में स्कूल के एक कार्यक्रम में सुनी थी ,आज इन्ही के माध्यम से अपना लेख यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ .
अमन ,सीमा पर जवान और खेत पर किसान की महिमा को समझने वाली ये अमर विभूतियाँ गाँधी जी और शास्त्री जी अपने कृत्यों से ही अमर हुए हैं,क्योंकि न तो इनका जन्म किसी राजपरिवार में हुआ और न ही किसी बड़े नेता या राजे महाराजे का संरक्षण इनको प्राप्त था.और न ही इनको ईश्वर ने विशेष सुन्दर रूप से संवारा था ,बस उनके संस्कारों और विधि ने आत्मबल,ईमानदारी ,सत्य-अहिंसा और नैतिकता की पूंजी से उनको समृद्ध अवश्य बनाया था.
भारतीय इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित इन महान आत्माओं का देश के लिए योगदान अभूतपूर्व है.दोनों को उनके जन्मदिवस पर श्रद्धापुष्प अर्पण करते हुए आज लाल बहादुर शास्त्री के योगदान पर कुछ चर्चा …………….
देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन का एक प्रसंग पढ़ा था,जो इस प्रकार था;शास्त्री जी ने अपने सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश एक स्वयंसेवी संस्था के सदस्य के रूप में इलाहबाद से किया था.एक कर्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक के रूप में पूर्ण मनोयोग से कार्यरत रहते थे शास्त्री जी ,परन्तु समाचारपत्रों आदि में पब्लिसिटी से उनको परहेज था. कोई भी बड़े से बड़ा कार्य सम्पन्न करने पर भी वो स्वयं को नेपथ्य में ही रखते थे.साथी स्वयंसेवक पूछते कि आपको अपना नाम सामने आने से कष्ट क्यों होता है तो उत्तर में उन्होंने लाला लाजपतराय के शब्द दोहरा दिए जो उन्होंने संस्था के कार्य की दीक्षा देते हुए कहे थे, “लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं,एक बढ़िया संगमरमर है जिसके मेहराब और गुम्बद बने हैं, दुनिया उन्ही की प्रशंसा करती है.दूसरे हैं नीवं के पत्थर ,जिनकी कोई प्रशंसा नहीं करता”शास्त्री जी ने कहा मैं वही नींव का पत्थर बनना चाहता हूँ.
जिस भारत भू के लाल इतने संस्कारित,सद्विचारों की पूंजी से धनवान रहे हों,जिन्होंने देश में अन्न का भंडार कम होने पर अपने मनोबल से इस संकट का सामना किया हो उस देश के वासी अपने भाग्य पर गर्व क्यों न करें . जब शास्त्री जी प्रधानमन्त्री बने तो देश में अन्न की कमी थी, दूसरे देश अनाज देने के बदले में हम पर मनमानी शर्तें थोपना चाहते थे. परन्तु अडिग इरादों से सम्पन्न शास्त्री जी इस संकट की घड़ी में भी किसी देश के सामने नहीं झुके.उन्होंने विदेशी अनाज को ठुकरा दिया और देश के किसानों और वैज्ञानिकों को अधिक से अधिक अनाज उपजाने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने जनता को प्रेरित किया अपनी मेहनत पर भरोसा करेंगे ,जियेंगे तो शान से नहीं तो भूखे ही मर जायेंगें. अन्न की कमी का सामना करने के लिए उन्होंने सप्ताह में एक दिन सोमवार को एक समय का भोजन करना बन्द कर दिया अर्थात उपवास , देश के करोड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया,परिणाम स्वरूप अन्न के संकट का समाधान हो गया.
इतना ही नहीं नैतिक आदर्शों का उनके जीवन का किस प्रकार प्रभाव था, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है , केन्द्र सरकार में रेल मन्त्रालय का कार्यभार सम्भालने के दौरान इस विभाग में बहुत सुधार किये लेकिन इनके कार्यकाल में दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश में अदियालूर की एक रेल दुर्घटना में 144 व्यक्ति मारे गये. शास्त्री जी ने रेल मन्त्री होने के नाते इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मन्त्री का पद छोड़ने में पल भर की भी देर नहीं लगाई.
अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता के कारण ही समय समय पर उन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों का कार्य भार संभाला और दक्षता से निर्वाह भी किया.
9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का कार्यभार उन्होंने संभाला.देश के समक्ष इस समय समस्याएं ही समस्याएं थीं, परन्तु सबको साथ लेकर चल कर सबका विश्वास जीतते हुए उन्होंने सब समस्याओं का अपने स्तर पर समाधान भी किया.देश में इस समय चहुँ ओर से संकट के बादल छाये हुए थे,एक ओर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए घमासान चल रहा था,पंजाब का संकट भी विकराल था तो देश अकाल के संकट से जूझ रहा था.ऐसे में ही पाकिस्तान के कुत्सित इरादों ने आंतरिक संकटों में उलझे होने का लाभ उठाते हुए सिर उठा लिया और छम्ब क्षेत्र पर अधिकार कर लिया ,पाकिस्तानी सेना देश में आगे बढ़ती जा रही थी ,ऐसे में कमजोर मनोबल वाला कोई भी व्यक्ति शायद पराजय स्वीकार कर लेता परन्तु यहाँ तो शास्त्री जी का एक कुशल सेनापति का रूप देखने को मिला और उन्होंने सेना को मुहं तोड़ जवाब देने का आदेश दिया था.सेना जोश से भर गई और फिर तो पाकिस्तान को धूल चटाते हुए उसका सफाया कर दिया.२ दिन के अंदर ही हाजी पीर दर्रे पर अपना नियंत्रण कर लाहौर को घेर लिया ,चकलाला एयर पोर्ट को नष्ट कर ,पाकिस्तान के अधिकांश पैटन टैंकों का विध्वंस कर दिया.मार्शल अयूब को कुछ नहीं सूझा और वो तत्कालीन सुपर पावर अमेरिका और सोवियत रूस की शरण में चले गए.संयुक्त राष्ट्र संघ की पुकार पर युद्ध विराम करना पड़ा.
रूस के कोसिगिन के आमंत्रण पर शास्त्री जी 1966 में पाकिस्तान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद गए। इस समझौते के अनुसार भारत को पाकिस्तान के वे सभी हिस्से लौटाने पर सहमत होना पड़ा जहाँ भारतीय सेना ने अपने सीमित साधनों के साथ विजयश्री का वरण किया था.
नियति कहा जाय या सत्ता की कोई कुत्सित चाल (जो रहस्य की परतों में विलुप्त है) शास्त्री जी 2 जनवरी 1966 को ताशकंद पहुंचे 3 जनवरी से 10 तक शांति वार्ता चली और 11 जनवरी को देश वासियों को को अपने इस नेता की मृत्यु का चौकाने वाला समाचार मिला.देश स्तब्ध रह गया और शायद राजनीति की जीत हुई .ऐसा कौन सा काल का स्वरूप था जिसने उनको ग्रास बना लिया.कोई नहीं समझ पाया और सुभाष चन्द्र बोस की ही भांति उनकी मृत्यु एक रहस्य बन गई.
सादगी और महानता के गुणों से सम्पन्न इन नेताओं के गुणों की तो परछाई भी शायद हमारे आज के नेताओं को स्पर्श न कर सकी और इसके सर्वथा विपरीत उनके मानदंडों के अनुसार तो 32 रूपये प्रतिदिन कमाने वाला भी गरीब नहीं जबकि जनता के गाढे खून पसीने की कमाई में से उनकी एक थाली पर 7 721 रुपए व्यय होते हैं..प्रधानमंत्री के मंत्री मंडल के अधिकांश मंत्रियों और स्वयं दागी होने पर भी चोरी और सीना जोरी वाली स्थिति होती है त्याग पत्र देने का तो प्रश्न ही नहीं.
अंत में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए एक गीत की पंक्तियाँ
चीन छीन देश का गुलाब ले गया
, ताश कंद में वतन का लाल खो गया 2 !
……………… हम सुबह की शक्ल ही निहारते रहे ,
जीतने के बाद बाजी हारते रहे 2 !
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