उपरोक्त प्रसंग सबके साथ शेयर करने का कारण है कि पुरुष प्रधान समाज में सदा ये कहा जाता है , पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं.मेरा कहना है कि होनहार पुत्रियां भी अपना परिचय अपने पालने में ही देती हैं.इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं मणिकर्णिका. 19 नवम्बर 1835 में काशी की भूमि पर उनका जन्म हुआ था. जिनको प्यार से मनु या छबीली पुकारा जाता था .इनके पिता मोरोपंत ताम्बे बिठूर में पेशवा बाजी राव की अधीनता में कार्य करते थे.मोरोपंत ताम्बे का जीवन सम्मानपूर्ण ही था परन्तु पेशवा के पुत्र उनके साथ कभी कभी अपने दम्भ में उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते थे.संस्कार सम्पन्न माता भागीरथी बाई का देहावसान हो जाने के कारण पिता के संरक्षण में राजदरबार में जाना और शस्त्र विद्या सीखना उनके खेल थे. जैसा कि महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मी बाई पर लिखी रचना में कहा है,
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
अपनी आकर्षक छवि तथा बालसुलभ क्रियाओं के कारण मनु राज दरबार में सबकी चहेती बनी रहती थीं . राजपरिवार के बच्चों के साथ ही उनकी उत्तम शिक्षा दीक्षा हुई.अल्पायु में ही झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ उनका विवाह सम्पन्न हो गया, तथा मनु बन गईं झांसी की रानी.मातृत्व का सुख तो आपको प्राप्त हुआ, परन्तु विधाता ने जिस प्रकार उनपर कृपा दृष्टि की थी,शीघ्र ही पहले पुत्र और फिर पति का साथ भी छूट गया और मात्र 18 वर्ष की आयु में वैधव्य का दुःख भी उनको झेलना पड़ा.
पति गंगाधर राव के जीवनकाल में ही उन्होंने राजमहल की अपनी सखी-सहेलियों ,तथा सेविकाओं को महल में सैन्य परीक्षण प्रदान करवा कर अपनी महिला सैन्य टुकड़ी तैयार की.अंग्रेजों की क्रूर लोभी दृष्टि उनकी झांसी पर है,इसका अनुमान उनको था.पुत्र की मृत्यु के आघात से पति का मनोबल टूट गया था और यही कारण है कि राजा का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ और रानी को राजकाज पूर्ण रूप से संभालना पड़ा.
लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति को देखते हुए उन्होंने यद्यपि पुत्र को गोद लिया परन्तु अंग्रेज झांसी को हडपने का निश्चय कर चुके थे ,रानी गरजी “अपनी झांसी मैं नहीं दूंगी.”और उनके इस निश्चय को पूर्ण करवाने में उनके एक प्रधान सहयोगी बने ,तात्या टोपे.उनसे रानी का परिचय बहुत पूर्व से ही था ,देशभक्त तात्या ने रानी को समस्त गतिविधियों की जानकारी देने का कार्य किया . रानी स्वराज का स्वप्न देखती थीं. एक दिन तात्या टोपे ने समाचार दिया कि उत्तर भारत के सिपाही और जनता आजादी के मतवाले बने हैं तथा क्रांतिकारी विद्रोही बहादुरशाह ज़फर को अपना नेतृत्व सौपना चाहते हैं. तात्या ने यह भी बताया कि 31 मई सन 1857 को हर जगह पर विद्रोह की चिंगारी प्रज्वलित करने की योजना है,जिसके साथ ही अंग्रेजी सत्ता का समूल नाश हो जायेगा और स्वराज आ जाएगा.रानी को योजना तो उपयुक्त लगी परन्तु उन्होंने धैर्य रखने की प्रार्थना की. जोश के साथ होश रखना भी आवश्यक है. वो यही चाहती थी कि विद्रोहियों को नियत तिथि तक संयम रखना चाहिए.
तात्या ने उनको बताया कि ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर कमल के विकसित होने पर देश की संस्कृति के प्रतीक के रूप मे कमल और श्रम के प्रतीक के रूप मे रोटी हर छावनी मे भेजी जायेगी। यह एक गुप्त संकेत होगा,जोड़ने के लिए और जागृति के लिए.अपनी सेना और सामग्री के के साथ महारानी 31 मई की प्रतीक्षा में थीं.परन्तु योजना का तात्कालिक परिणाम मन वांछित न हो सका,तथा समय से पूर्व ही क्रान्ति का विस्फोट हो गया. सामना तो विद्रोहियों ने अंग्रेजों का हर स्थान पर ही किया.
पारस्परिक मतभेद ,ईर्ष्या- द्वेष ,सामयिक लोभ देशभक्ति पर सदा की भांति भारी पड़ा . देशद्रोही एक हो कर मोर्चा नहीं संभाल सके. परन्तु झांसी का मोर्चा अंग्रेजो के लिए लोहे के चने चबाने वाला सिद्ध हुआ,यद्यपि रानी ने अपने कोष का सभी स्वर्ण अंग्रेजों का मुहं तोड़ उत्तर देने के लिए सैन्य संसाधनों को जुटाने में व्यय कर दिया.रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनका नामकरण ही उत्साह और उमंग से पूर्ण कर देता था ,कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख आदि. रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर इस दायित्व का निर्वाह किया.रानी द्वारा की गई क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी व रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया. अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया.रानी को समाचार प्राप्त हुआ कि पीछे से तात्या अपनी सेना के साथ आ रहे हैं, रानी प्रसन्न हो गई कि इधर किले से गोलो की वर्षा होगी, उधर पीछे से तात्या टोपे की मार से अंग्रेज बीच मे पड़कर पिसकर रह जायंगे, परन्तु दुर्भाग्य से तात्या की सेना अंग्रेजों के सामने न ठहर सकी. इधर अंग्रेजो ने रानी के कुछ सरदारों को लोभ दे कर भेद ले लिए तथा दुर्ग पर संकट आ गया. रानी के सब सरदार एक-एक शहीद हो रहे थे. रानी ने भी प्राणोत्सर्ग का निश्चय किया , मगर दूसरे ही पल उन्होने यह विचार छोड़ दियां. रानी ने तय किया कि उन्हें क्या करना है, अर्थात अंतिम घड़ी तक अंग्रेजो से लड़ना तथा प्राण रहते संघर्ष करना है. उन्होने दामोदरराव को अपनी पीठ पर बांधा, हाथ मे नंगी तलवार ले , घोड़े पर सवार हुई. कुछ सवारों को साथ लिया, दुर्ग का फाटक खुलवाया और तीर की तरह अंग्रेज-सेना को चीरती हुई निकल गईं.अंग्रेजो ने बहुत पीछा किया, मगर वे रानी की धूल भी नही पा सके. हार कर वे लौटे, झांसी में घुसे और वहां उन्होने मनमानी लूटमार की, औरतों, बूढो और बच्चों का उन लोगो ने बड़ी बेरहमी से सड़को पर मारा. अश्वारूढ , दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं. झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनको बंदी बनाने के लिए उनके पास पहुंचना चाहते थे.
रानी का विचार था कि उन्हे ग्वलियर के किले पर अधिकार कर लेना चाहिए, मोर्चा जीतने की संभावना बन सकती है, किसी का ध्यान इस ओर नही गया था, सबने रानी की योजना को सराहा.सेना के एक भाग का संचालन स्वयं रानी ने लिया और ग्वालियर का किला रावसाहब के नियंत्रण में आ गया. रावसाहब पंत प्रधान पेशवा बनें।
परन्तु भौतिक लिप्साओं से प्रभावित राव साहब इस उपलब्धि का लाभ न उठा सके और डूब गए नाच-रंग आदि मे . उनकी इस ढील के परिणाम स्वरूप राज्य मे अव्यवस्था फैल गई और फिरंगी सेना ने ग्वालियर के किले को पुनः घेर लिया।अब सब लोग घबराये, रानी समझ गई कि अब कुछ भी शेष नहीं , फिर भी उन्होने साहस नहीं खोया , और अपने साथियों से डट कर सामना करने को कहा. एक बार फिर उनके रण बांकुरे कमर कसकर तैयार हो गये, मगर इस बार ग्वालियर के सरदारो ने ही धोखा दिया.मोर्चा भंग हो गया.
महाप्रयाण की घड़ी आ गई थी , रानी ने अपने अवशिष्ट सरदारों को इकटठा किया और उनसे कहा कि अब मैं आखिरी दांव लगाने जा रही हूं, याद रखना—मेरी लाश को गोरे स्पर्श भी न कर पायें . दामोदरराव को उन्होने एक विश्वास पात्र सरदार के हाथों सौंप दिया.एक ओर अंग्रेजी सेना का युद्ध घोष हुआ ,दूसरी ओर रानी भक्त अश्व स्वर्ग सिधार चुका था. दूसरे घोड़े पर सवार हो कर रानी चली, थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हे मालूम हो गया कि घोड़ा अड़ियल है. एक नाले पर घोड़ा अड़ गया. रानी को अग्रेजों ने घेर लिया, एक निशाना उनकी आंख मे लगा और दूसरी चोट ने उनके प्राण हर लिये. तब तक सरदार आ पहुंचे. अंग्रेज प्राण बचाकर भाग निकले.
घायल रानी को कष्ट तो था,शारीरिक भी और अपनी झांसी अंग्रेजों के हाथ में जाने का भी. परन्तु साहस ,शौर्य और पराक्रम की उस साक्षात देवी ने आत्मबल को बनाये रखा.एक दिव्य तेज की दीप्ति उनके मुखमंडल पर थी. उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा औरउन्होंने अपने तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द कर लिए.. सरदारों ने रानी को घोड़े पर से उतारा और चिता जलाकर उनकी दाह-क्रिया कर दी. रानी का सपना उस समय पूरा न हो सका, लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ नही गया.वह 18 जून 1858 का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी. उनकी चिता सजाई गई , उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी. रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं.स्वप्न तो उनका साकार नहीं हो सका परन्तु अपने प्राणों की आहुति इस यज्ञ में दे कर उन्होंने ये प्रमाणित किया कि भारत माँ की बेटियां भी अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाना जानती हैं. वह स्वराज्य के महल की नींव का पत्थर बनीं.उनका बलिदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है.आज फिर, देश को फिर ऐसे ही जोश ,बलिदान और समर्पण की भावना से सम्पन्न देशभक्तों की आवश्यकता है.
अंत में उन महान वीरांगना को सुभद्रा जी की इन पंक्तियों के साथ कोटिश नमन,
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
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