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शहीदों का अपमान करना ही सीखा है ?

chandravilla
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फेसबुक के एक नोटिफिकेशन  में पढ़ा कि शहीद खुदी राम बोस के समाधिस्थल पर, जहाँ वो  हमारी इस तथाकथित स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदे पर झूले थे, को शौचालय बना दिया गया.बहुत ही दुःख पहुंचा साथ ही अपनी अज्ञानता पर आश्चर्य मिश्रित रोष  .क्योंकि मैंने ये समाचार किसी चैनल पर नहीं देखा न ही किसी अन्यत्र स्थान पर पढ़ा (संभवतः मेरी दृष्टि से चूक  हुई हो.)परन्तु जैसी कि चैनल्स की परम्परा है एक समाचार को ही केन्द्र बना लेना तो आज तक कभी क्यों नहीं देख सकी .खुदी राम बोस आदि क्रांतिकारियों के विषय में जितना भी मुझको  ज्ञात है,खेलने मौज करने की आयु में देश के लिए शहीद हो जाना सभी  को  उनके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक बनाता है .ऐसी  असंवेदनशीलता,कृतघ्नता !      प्राय शहीदों के परिवारों की दुर्दशा के विषय में पढ़ती हूँ तो मन खिन्न हो जाता है .  देश को लूट कर बर्बाद करने वालों के स्मारक जीते जी बनाए जाते हैं ,उनके जन्मदिवस मनाये जाते हैं,उनके स्वागत समारोह में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, कसाब और अफजल  जैसे आतंकियों मानवता के शत्रुओं पर वर्षों तक धन बर्बाद किया जा सकता है किन्तु  अपना जीवन देश को समर्पित करने वालों के लिए देश में इतना  भी स्थान नहीं ,इतना भी धन नहीं कि  उनके स्मारक या समाधि स्थल का निर्माण हो ,जिसको देख कर कुछ प्रेरणा ली जा सके .bos

मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में हाथ में श्रीमदभगवतगीता की पुस्तक लेकर वन्दे मातरम के नारे लगाते  हुए हंसते हंसते  फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले अमर शहीद खुदी राम बोस का सम्पूर्ण जीवन स्वयम ही  प्रेरक  और वन्दनीय  है.उनका जन्म किसी शहीद या देश को समर्पित परिवार में नहीं हुआ था.अपितु मेदिनीपुर के नंद्झोल में एक  सरकारी अधिकारी  तहसीलदार के रूप  में    नियुक्त श्री त्रिलोकीनाथ बसु  के घर 3 दिसंबर  1889 को   हुआ था.माता लक्ष्मी देवी धार्मिक  विचारों से सम्पन्न एक घरेलू महिला थी.दुर्भाग्य  से खुदी राम को अल्पायु में ही मातापिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी छत्रछाया से वंछित होना पड़ा.बहिन श्रीमती अनुरूप देवी और उनके पति ने  अपना सम्पूर्ण स्नेह प्रदान करते हुए उनका पालन पोषण किया.

पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं ,इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए बहिन की इच्छा को पूर्ण करने हेतु विद्यालय तो अवश्य गए परन्तु अंग्रेज बच्चों के ,मन में भारतीय बच्चों  के प्रति  उपेक्षा और अपमान के भाव उनको सदा कचोटते थे. अतः  उनके मनो-मस्तिष्क पर तो बस पराधीनता की श्रृंखला में जकड़ी भारतमाता का चित्र अंकित  हो रहा था .बड़ा होते ही इन अंग्रेजों को देश से बाहर निकालूँगा ,ऐसी उनकी अंतरात्मा की पुकार थी.बहिन और जीजा जी द्वारा अत्यधिक  प्रेम प्राप्त करने के   उपरांत भी उनका ह्रदय अशांत रहता था.हम आज़ाद क्यों नहीं हैं बस यही प्रश्न उस बालक के मन को उस समय व्यग्र बनाए रखता था, जब बच्चे सिखाने से भी देशभक्ति का अर्थ रटते हैं,अंतर्मन से ग्रहण करना तो असंभव सा  ही है.ऐसे समय में उनके मन की व्याकुलता को बहुत राहत मिलती  जब उनको देश में चल रहे आंदोलन के संदर्भ में भारतमाता की जय और वन्दे मातरम के नारे सुनायी देते थे.
स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में थोड़ी – बहुत भागीदारी तो उनकी चल ही रही थी परन्तु उनके जीवन को दिशा निर्देश प्राप्त हुआ ,श्री बंकिम चन्द्र के उपन्यास ‘आनन्दमठ’ से.अंग्रेजों के लिए  वन्देमातरम का उच्चारण देश द्रोह था तो क्रांतिकारियों के लिए ऊर्जा प्रदान करने वाला स्त्रोत .
खुदी राम बोस के अल्प जीवनकाल  की एक  महत्वपूर्ण घटना है जब फरवरी 1906 में अंग्रेजों ने अपने औदार्य का प्रदर्शन करने के लिए मेदिनीपुर में एक प्रदर्शनी लगाई थी.असल में धूर्त अंग्रेज एक ओर तो हमारे देश को लूट रहे थे और दूसरी ओर ये प्रदर्शित करते थे ये white mans burden के सिद्धांत का पालन करते हैं.इस सिद्धांत के अनुसार ,     The supposed or presumed responsibility of white people to govern and impart their culture to nonwhite people, often advanced as a justification for European colonialism.अर्थात उनका उपकार था कि वो राज करते थे अश्वेत लोगों पर. क्योंकि अश्वेतों को सभ्य बनाना चाहते थे. इस प्रदर्शनी में उन्होंने ऐसा ही प्रदर्शन किया था.इसी प्रदर्शनी में एक सोलह वर्षीय बालक खुदीराम  ‘सोनार बांगला’ शीर्षक से छपे  हुए पर्चे वितरित किये .जिसमें अंग्रेजों की क्रूरता और अन्याय का विवरण था.अंग्रेजों के कुछ पिट्ठू और चाटुकार वहाँ  उपस्थित थे उनको स्वाधीनता,स्वराज आदि शब्द अखरते थे अतः उन्होंने उसका विरोध किया और उसको पकड़वाना चाहा परन्तु विद्युत गति से चपलता दिखाते हुए उन सबकी आँखों में धूल झोंकते हुए वह बालक  निकल गया. बाद में  उसको बंदी बनाया गया परन्तु किशोर होने के कारण  न्यायाधीश ने उसको मुक्त कर दिया.

देश की स्वतंत्रता के लिए मतवाले इस बालक ने दिसंबर 1907 तथा 1908 में भी अंग्रेज अधिकारियों तथा गवर्नर पर किये हमलों में  उनको मारने का प्रयास किया परन्तु सफल न हो सके .हाँ अंगेजों की आँखों में  कांटे की तरह खटकने लगे .भारत में फूट डालने के उद्देश्य से किया गया बंग-भंग अंग्रेजों का एक अनैतिक कृत्य था जिसके विरोध में देशभक्तों में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी.युगान्तर संस्था जो क्रांतिकारियों को ही संगठित कर रही थी ,ने इसके विरोध में पर्चे बांटे, आंदोलन किये.इसी संस्था से खुदी राम जुड़े हुए थे.शासन विरोधी इन गतिविधियों में लिप्त क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों ने अपना दमन चक्र चलाया. क्रूर  न्यायाधीश   किंग्सफोर्ड ने सभी को अमानवीय दंड दिए.क्रांतिकारियों में उस न्यायाधीश  के प्रति आक्रोश भड़क उठा ,जिसको  देख कर किंग्सफोर्ड को  मुजफ्फरपुर भेज दिया गया. गुप्त योजना के अनुसार क्रांतिकारी संगठन ने  किंग्सफोर्ड को मारने का दायित्व युवा साहसी खुदीराम और प्रफ्फुल चाकी को सौंपा गया.इन्होने  िकिंग्सफोर्ड की गतिविधियों के विषय  में विस्तृत जानकारी एकत्र की और मुजफ्फरपुर भी पहुँच गए. मुजफ्फरपुर में 30 अप्रैल   1908 को किंग्सफोर्ड की हत्या के लिए उस पर बम फैंक दिया ,उसका काल अभी नहीं आया था अतः उस बग्घी में उस समय  उसकी परिचित अन्य महिलाएं थी जो दुर्भाग्य वश काल का ग्रास बनी.बम फैंक कर दोनों भागते हुए बहुत आगे निकल गए परन्तु अंग्रेज पुलिस निरंतर उनके पीछे थी और वो बैनी स्टेशन पर बंदी बना लिए गए दो महिलाओं के अकारण मारे जाने पर इनको भी बहुत दुःख था..पुलिस के हाथो में पड़ने से पूर्व ही प्रफ्फुल ने स्वयम पर गोली चलाकर अपना प्राणांत कर लिया परन्तु खुदी राम बंदी बना लिए गए और 11  अगस्त 1908 को उनको फांसी दे दी गई.इस समय उनकी आयु उन्नीस वर्ष की भी नहीं थी .
फांसी से पूर्व अंतिम इच्छा पूछे जाने पर ,खुदीराम ने कहा ,”राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता के लिये मैं मरना चाहता हूँ। फाँसी के विचार से मुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दुःख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके अपराध का दंड नहीं मिला।”” भय तो उन वीरों को था ही नहीं ,बस वन्देमातरम का नारा और ……..
देश के लिए अपने प्ररण न्यौछावर करने वाले इस वीर के हृदयोद्गार यही थे , कि ‘ जितनी जल्दी मैं मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी मेरा पुन: जन्म होगा ।’
काश इन क्रांतिकारियों के प्रेरणास्पद जीवन चरित्रों को पाठ्यपुस्तकों में प्रधानता दी जाती तो हमारे  बच्चे ,युवा राष्ट्रीयता की भावना सीख पाते,आज़ादी का महत्व समझते   और आज ये दुर्दशा हमारे देश की न होती.

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