सेना और कट्टरवाद कभी नहीं सुधरने देंगें पाक को (जागरण जंक्शन फोरम )
पडौसी राष्ट्रों से सुमधुर संबंध किसी देश की विदेश नीति की सफलता का परिचायक हैं.भारत के पडौसी राष्ट्रों में चीन,पकिस्तान,नेपाल ,भूटान,श्री लंका,बंगलादेश ,म्यामार ,तिब्बत ,नेपाल आदि हैं. पडौसी देशों की हलचल का प्रभाव ,विशेष रूप से राजनैतिक गतिविधियां तो सुर्खियाँ भी बनती हैं और प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित भी करती हैं. विशेष रूप से पाकिस्तान की गतिविधियां तो बहुत महत्वपूर्ण हैं. पाकिस्तान से सुखद मधुर संबंध निश्चित रूप से दोनों देशों के लिए आवश्यक हैं.पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर लगाम लगे , हमारी सीमायें सुरक्षित रहें ,कश्मीर की समस्या का समाधान,भारत में हिंदुओं पर हो रहे अमानवीय अत्याचार समाप्त हों ,ये स्वप्न सभी देशभक्त भारतीयों का है. दूसरी ओर पाकिस्तान का पिछडापन,अशिक्षा, आर्थिक संकट भी अस्त्र शस्त्रों पर होने वाली धन की बर्बादी को रोकने पर ही दूर हो सकते है .
भारत का ही एक भाग पाकिस्तान , आज भारत का कट्टर शत्रु माना जाता है.दुर्भाग्य से भारत और पाकिस्तान की इस शत्रुता के कारण ही स्वयम को असुरक्षित मानते ये दोनों देश, अपने बजट का बहुत बड़ा भाग विकास या जीवनोपयोगी कार्यों में नहीं अपितु विनाश (युद्ध) की तैयारियों में व्यय करते हैं.1947 से आज तक भी जहाँ हमारे देश में पाकिस्तान के समर्थक थोक में विद्यमान हैं,पाकिस्तान में ऐसा नहीं मिलता.कारण है, पाकिस्तान की आम जनता के दिलों में भरी गई नफरत और वहाँ हावी कट्टरवाद .
क्या सत्ता परिवर्तन के बाद सुधरेगा पाकिस्तान?
इस विषय पर विचार करने से पूर्व पाकिस्तान के इतिहास की उठापठक,हिंसा और रक्तपात की राजनीति पर विचार करना आवश्यक है……………..
पाकिस्तान की स्थापना से लेकर आज तक इस देश की राजनीति हिंसा और रक्तपात की नींव पर चली आ रही है। लियाकत अली से लेकर बेनजीर भुट्टो तक सभी इसी रक्तरंजित राजनीति के शिकार हुए हैं। हत्या और आतंक पाकिस्तान की राजनीति के अभिन्न अंग बन चुके हैं. अतः वहाँ जनतांत्रिक चेतना और मूल्यबोध की आशा करना ही व्यर्थ है.
इतिहास पर दृष्टि डालें तो 1947 में पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने वहाँ के लोगों को इस्लामिक विचारधारा की दुहाई देते हुए भाईचारे के साथ रहने और भयभीत न होने के लिए समझाया ,परन्तु पाकिस्तान के विभाजन से असंतुष्ट लोगों ने उनके ऊपर भी प्राणघातक हमले किये.अतः राजनैतिक अस्थिरता पाकिस्तान के इतिहास में प्रारम्भ से ही है.
पाकिस्तान में चरमपंथियों की हिंसा का सर्वप्रथम शिकार पाकिस्तान के प्रथम प्रधान मंत्री लियाकत अली खान बने,जिनकी 1951में गोली मार कर हत्या कर दी गई .क्योंकि वह पाकिस्तान को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते थे और कट्टरवाद के पोषक नहीं थे.तदोपरांत पाकिस्तान में तानाशाही और सेना का प्रभुत्व प्रारम्भ हो गया .
पाकिस्तान के प्रथम फील्ड मार्शल जनरल अयूब खान ने सत्ता हस्तगत की और लंबे समय तक एक छत्र राज्य किया .तदोपरांत 1969 में जनरल याहिया खान ने गद्दी पर आधिपत्य जमा लिया.
याहियाखान को भी दो वर्ष का ही सत्तासुख प्राप्त हुआ और जुल्फिकार अली भुट्टो लोकतांत्रिक रूप से सत्ता प्राप्त करने में सफल हुए.,परन्तु सेना और कट्टरपंथ अपनी शक्ति बढाने में सफल हुए .परिणामस्वरूप जनरल जिया-उल हक ने उनको अपदस्थ कर सत्ता पर आधिपत्य जमाया और हत्या के केस में उनको फांसी के तख्ते पर लटकना पड़ा.
जनरल जिया को जैसी करनी वैसी भरनी के अनुसार एक विमान दुर्घटना (जिसको षड्यंत्र का नाम दिया गया) में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा.भुट्टो की सुपुत्री बेनजीर भुट्टो लोकतांत्रिक ढंग से बहुमत प्राप्त कर 1988 में सत्ता में तो आयीं ,परन्तु भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोपों के कारण सत्तासुख अधिक समय नहीं उठा सकीं.पाकिस्तान में पुनः चुनाव हुए और नवाज शरीफ प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित हुए.
अस्थिरता तो पाकिस्तान की राजनीति में सदा ही रही है, अतः 3 वर्ष पश्चात ही पुनः बेनजीर भुट्टो ने चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री पद सम्भाला.परन्तु भ्रष्टाचार और बेईमानी के आरोपों ने उनको पति सहित जेल जाना पड़ा.चूहे -बिल्ली के खेल की तरह पुनः शरीफ ने सत्ता संभाली ,
1999 में जनरल मुशर्रफ ने शरीफ का तख्ता पलट दिया और सेना के हाथ में पुनः कमान आ गई.बेनजीर निर्वासित जीवन व्यतीत करती रहीं और इधर नवाज़ शरीफ भी पुनः सिर नहीं उठा सके ,चुनावों का ढोंग करके तथा सारी शक्ति झोंक कर भी मुशर्रफ सीट प्राप्त करने में तो शतक भी नहीं लगा सके.बेनजीर भी जब तक मुशर्रफ का विरोध करती रही पाकिस्तान नहीं लौट सकी ,क्योंकि पाकिस्तान लौटने पर उनकी गिरफ्तारी सुनिश्चित थी परन्तु सत्ता संभाले रहे,.मुशर्रफ के सुर में सुर मिलाने पर बेनजीर स्वदेश तो लौट आयीं , परन्तु एक के बाद एक दो प्राणघातक हमले उनपर हुए और दूसरी बार दिसंबर 2007 में अपने प्राणों से हाथ धो बैठीं.
वर्तमान में भी 11 मई को हुए चुनावों में कट्टरवाद और सैन्य शासन के चलते ,जनता को चुनाव में भाग लेने से रोकने का प्रयास करने पर भी ,जनता का लोकतांत्रिक सरकार को चुनना निस्संदेह आश्चर्यजनक है,परन्तु पाकिस्तान के उपरोक्त इतिहास को देखते हुए बहुत अधिक आशा नहीं की जा सकती.क्योंकि जिस देश का इतिहास ही अस्थिरता,रक्तपात ,बदले की भावना और कुटिलता का पर्याय हो ,उसके संदर्भ में ऐसे सुन्दर स्वप्न देखना बेमानी ही लगता है. पाकिस्तान की राजनीति के दोनों निर्देशक तत्व कभी भी हावी हो कर अपना वर्चस्व स्थापित कर सकते हैं या शरीफ को बाध्य कर सकते हैं कि वह भारतविरोध की नीति को जारी रखें.
कारगिल के पश्चात समझौते के समय शरीफ ही सत्ता में थे ,परन्तु मुशर्रफ का भारतविरोध और नवाजशरीफ का भारत के प्रति कुछ नरम रुख ही मुशर्रफ को सत्ता तक पहुंचाने में सफल रहा .वर्तमान चुनावी घोषणापत्र में नवाज़ शरीफ की सभी देशों से तथा विशेष रूप से भारत ,अमेरिका के साथ पाकिस्तान के बिगड़े सम्बन्धों को मधुर बनाने की घोषणा सकारात्मक होते हुए भी उसके क्रियान्वयन की राह दुर्गम ही है.खोखली होती अर्थव्यवस्था ,तालिबान की कट्टरता ,भ्रष्टाचार का चरम ,घरेलू आतंकवाद से छुटकारा ,अमेरिका से बिगड़े संबंध आदि आदि…………ऐसे में भारत के लिए मधुर सम्बन्धों की आशा कपोलकल्पित भले ही न हो .परन्तु अधिक आशान्वित होना तो है ही.यद्यपि नवाज़ शरीफ ने कहा है कि वह परस्पर व्यापार के लिए मार्ग खोलेंगे। साथ ही नवाज ने भारत के साथ रिश्ता बेहतर बनाने की बात दोहराई है.परन्तु सेना ऐसा नहीं होने देगी, क्योंकि सेना का स्वार्थ इसी में है. अतः .नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच अच्छे रिश्ते की सबसे बड़ी विरोधी पाकिस्तानी सेना है. साथ ही पाकिस्तान की राजनीति और सेना में कुछ तत्व ऐसे हैं जो दोनों देश के बीच मधुर संबंध के समर्थक नहीं हैं.
ईश्वर करे मेरा अनुमान गलत रहे और सबकुछ देश हित में हो
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