- 307 Posts
- 13083 Comments
जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी उच्च स्थान प्रदान करने वाले हमारे देश में आज माँ का ही सर्वाधिक तिरस्कार हो रहा है .सुनने में संभवतः ये बात पचाने में कुछ अधिक भारी लगती हो ,परन्तु ये वास्तविकता है, कि हम भारतीय नालायक संतान हैं.कैसे आईये पढते हैं……….
धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार ॥”
अर्थात ब्राह्मण (प्रबुध्द जन) धेनु (गाय)सुर (देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरित होते हैं। हिंदू पौराणिक मान्यता के अनुसार गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास रहता है। इस लिए गाय का प्रत्येक अंग पूजनीय माना जाता है। गोसेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते है। गाय सरलता शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है। गऊ माता की पीठ में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते है, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महर्षि बसते हैं .
.केवल सरकारें ही दोषी क्यों? आम आदमी जो गौ को पूजता तो है परन्तु उसकी रक्षा के लिए आवाज बुलंद नहीं करता.इतना ही नहीं आज गायों की अकाल मृत्यु का कारण पोलीथीन से भी परहेज नहीं करता और घरों से बाहर फैंका गया कचरा जिनको पोलीथीन सहित खा कर गाय की मृत्यु होती है.क्या लाभ ऐसी पूजा का जो हम उस माँ के जीवन को ही संकट में डालते हैं.
धरती और प्रकृति को भी माँ कहा गया है परन्तु उनके साथ छेडछाड का अनुमान तो इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मानव की श्वास (जिसके बिना जीवन मृत्यु है ) लेने के लिए आवश्यक और धरती के श्रृंगार वृक्षों को अंधाधुंध काटते हुए कंक्रीट के वनों में परिवर्तित किया जा रहा है.सही कहा गया है………….
पृथ्वी हमारी इच्छाओं की पूर्ति तो कर सकती है पर हमारे लालच की नहीं “आज के परिदृश्य में यह बात 200 प्रतिशत सत्य को अभिव्यक्त कर रही है … खनन से लेकर वन संपदाओं का अंधाधुंध दोहन ने पृथ्वी को मरियल बना दिया है …आज शस्य श्यामला धरा नहीं बल्कि बारूदों और खतरनाक विकिरणों की धरा हमारे सामने है ..यह बंदर के हाथ में रखे बम वाली स्थिति है ..कब अंत हो जाए कोई ठीक नहीं …हमारे देश भारत में वनों की स्थिति बहुत दयनीय है ..33 प्रतिशत के मानक आंकड़े से दूर भारत में लगभग 18 प्रतिशत के करीब ही वन शेष बचे हैं और वह दिन दूर नहीं जब अंधा लोभ उनसे भी विहीन कर देगा धरा को. ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा तो होती है,पृथ्वी दिवस तो मनाया जाता है,परन्तु उसकी रक्षा के लिए वास्तविक प्रयास नगण्य ही रहते हैं.
प्रकृति के चक्र में निरंतर हस्तक्षेप के कारण ही तापमान में वृद्धि ,ऋतुओं का बिगड़ता क्रम ,बाढ़,अकाल,विनाशकारी तूफ़ान ,विलुप्त होती नदियाँ,खोखले होते पहाड़., पांव पसारते नए नए जानलेवा रोग वैज्ञानिकों के लिए रहस्य बन रहे हैं. एक ओर बढ़ता तापमान पृथ्वी के सम्पूर्ण जीवों के लिए खतरा है, ग्लेशियरों के पिघलने बर्फ की मात्रा कम होने तथा समुद्र के जल स्तर में वृद्धि समूचे विश्व को जलमग्न बना सकती है। इस कारण बर्फ की मोटाई में भी कमी आ रही है.
धरती माँ की उर्वरा शक्ति समाप्त हो रही है.उर्वरा शक्ति के विनाश का एक प्रधान कारण पोलीथीन के विनाश के लिए चर्चा समय समय पर होती है,परन्तु व्यापक स्तर पर कोई ठोस प्रयास नहीं होता .यदि किसी सजग और कर्मठ प्रशासनिक अधिकारी की रूचि के कारण किसी स्थान विशेष में अभियान के रूप में ऐसी किसी योजना का श्री गणेश होता भी है तो फिर अचानक ही किसी जन प्रतिनिधि के हस्तक्षेप अथवा स्थानान्तरण के कारण उस पर ब्रेक लग जाता है.प्रदूषण के अन्य कारणों में फैक्ट्रियों के जहरीले धुंए,पशुवध शालाओं के धुंए,गैसेज और अन्य विषैले रसायनों से प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा के लिए मानक कागजों में तो हैं पर व्यवहार में उनको कठोरतापूर्वक लागू न किये जाने के कारण उनका खुले आम उल्लंघन होता है.
नदियों को माता कहकर पूजा जाता है,गंगा मैया ,यमुना मैया के समक्ष नतमस्तक तो होते हैं,उनकी ,आरती की जाती है. देश के कोने कोने और विदेशों से भी लोग आकर गंगा-यमुना सदृश पावन नदियों में स्नान कर स्वयम को धन्य मानते हैं , पवित्र गंगाजल को अपने साथ ले जाते हैं. पौराणिक रूप से पवित्र होने के साथ वैज्ञानिक रूप से भी औषधियों को अपने साथ लाने के कारण उसका महत्व स्वीकार तो किया जाता है.परन्तु सीवर छोड़े जाना,उद्योगों का कचरा बहाया जाना ,उसी में साबुन आदि का प्रयोग कर वस्त्र धोने के कारण गंगा का जल प्रदूषित हो चुका है .अरबों रूपया बर्बाद होने पर गंगा यमुना आदि पवित्र नदियाँ प्रदूषित होने के साथ विलुप्त होने के कगार पर पहुँच रही हैं.
इस प्रकार माँ का स्थान प्रदान कर पल पल तिरस्कृत किया जाना हमारे निकृष्ट ,लोभी,स्वार्थी और अधम होने की चरम सीमा को दर्शाता है.
एक अन्य उदाहरण वृक्षों की पूजा करते हुए भारतीय अपनी आस्तिकता का परिचय तो देते हैं परन्तु जिस वृक्ष की पूजा करते हैं,और पूजा के नाम पर उन वृक्षों को एक ही दिन में पत्र-विहीन कर डालते हैं. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है वट सावित्री पूजा व्रत (8 जून शनिवार) .यह पर्व ज्येष्ठ मास की अमावस्या और कुछ स्थानों पर इसी माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है.जिसके पीछे सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लाने की कथा है.परन्तु अपनी सुविधा के लिए वट वृक्ष की पूजा करने के लिए उसकी टहनियाँ तोडी जाती हैं.मेरा सुझाव है कि या तो पूजा मंदिर आदि में जहाँ वृक्ष की उपलब्धता हो वहाँ उसकी पूजा की जाय या फिर गमले में छोटे पौधे लगाकर उसकी ही पूजा कर ली जाय.इस प्रकार धार्मिक महत्व के साथ उसके मूल में निहीत पर्यावरण की रक्षा का उद्देश्य भी पूर्ण होता है.
मेरे घर की छत पर गमले में लगा बरगद का पौधा ,हम और हमारे परिचित इसी की पूजा करते हैं वट अमावस्या को
इन सबके अतिरिक्त वृहत स्तर पर प्रयास आवश्यक हैं जिनमें सरकार के सजग होने की.,उचित नीति निर्माण ,और उससे अधिक उन नीतियों के क्रियान्वयन किया जाना. कुछ प्रयास हुए है , यथा दिल्ली में मेट्रो का चलाया जाना, कुछ महानगरों में भी ऐसे प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं. इसके अतिरिक्त एल पी जी से वाहनों का संचालन आदि.परन्तु भारत केवल दिल्ली या महानगरों में ही नहीं बसता.में नहीं और इतने कम प्रयास इतनी भीषण समस्या का समाधान के लिए ऊंट के मुख में जीरे के समान ही हैं .वनों को बचाने के लिए प्रयास सरकारी स्तर पर ही संभव हैं.नदियों में गिरने वाले दूषित पदार्थों को रोकने की व्यवस्था सरकार ही कर सकती है.(परन्तु दुर्भाग्य से सरकार के पास तो इतना भी समय नहीं कि जो साधुसंत गंगा की रक्षा के लिए अपने प्राणों को भी संकट में डाले हुए अपने प्राण गँवा देते हैं या अपना बलिदान करने को तैयार हैं उनकी पुकार ही सुन ले )
कृषि उत्पादन की उन पद्दतियों को अपना कर जो हमारी भूमि और व्यवस्था के अनुरूप हैं उत्पादन की गुणवत्ता तथा मात्रा बढाया जाना जरूरी है.पोलिथींस पर प्रतिबंध लगाया जाना अपरिहार्य बन चुका है.
सरकार द्वारा जनसँख्या वृद्धि को रोकने के लिए सकारात्मक योजना बनाना तथा सभी पूर्वाग्रहों को त्याग कर,वोट राजनीति को छोड़ कर उसको युद्ध स्तर पर लागू करना आवश्यक है.जब तक जनसँख्या वृद्धि पर रोक नहीं लगेगी,संसाधन वृद्धि के सभी प्रयास अपर्याप्त ही सिद्ध होंगें.
सरकारी प्रयासों के साथ स्वयं हमारी जागरूकता बहुत आवश्यक है,यदि हम चाहे तो पोलीथिन के प्रयोग को स्वयं रोक सकते हैं.पेपर बैग या कपडे की थैलियों को साथ रख कर इस समस्या से बचा जा सकता है.ठेले आदि पर बिकने वाले सामानों को पोलिथीन में बेचने से बचाने में हम स्वयं योगदान दे सकते हैं.यदि हम पोलिथीन बेग में सामान नहीं लेंगें तो विक्रेता उसका प्रयोग स्वयं ही बंद कर देगा.
घटते जलस्तर के संकट से बचने के लिए वर्षा जल संचयन के लिए विशेष योजनाओं के निर्माण के साथ उनको कठोरता से लागू कराया जाना आवश्यक है. इसी प्रकार प्रदूषित होते जल संकट से नागरिकों को बचाने का कार्य भी सरकार के हस्तक्षेप के बिना असंभव है.कुछ स्थानों पर तो जल में क्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरे के निशाँ से बहुत अधिक हो गई है और वहाँ के निवासियों को विकलांग बना रही है.
नवीन भवनों के निर्माण के समय पेड़ लगाने की नीति को कठोरता से लागू किया जाना आवश्यक है,.इन पेड़ों के संरक्षण का उत्तरदायित्व समझना भी आवश्यक है.कुछ शहरों में ऐसी व्यवस्था की गई है कि अपना घर बनाते समय वृक्ष सरकार लगाकर देगी और उनके संरक्षण का दायित्व गृह स्वामी का होगा. ऐसा नियम सभी स्थानों पर कम से कम नए घरों के निर्माण पर कठोरतापूर्वक लागू किया जाय तो निश्चय ही धरती हरी भरी हो सकेगी.
बहुमंजिला भवनों के निर्माण के कारण विकास की अंधी दौड़ में धरती को वृक्ष विहीन बनाने से पूर्व ये अनिवार्य नियम बनाया जाय कि जितने वृक्ष कटेंगें उतने वृक्ष लगाना और उनकी देख रेख का उत्तरदायित्व सम्बन्धित संस्थान का हो.
एक निवेदन और यदि बच्चों के जन्मदिवस आदि पर या विशिष्ठ अवसरों पर बच्चों में वृक्ष लगाने की भावना को जागृत किया जाय साथ ही किसी एक वृक्ष का उत्तरदायित्व यदि एक परिवार ले सके तो निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होगा.इसी प्रकार किसी की मृत्यु के पश्चात भी उसकी स्मृति में पेड लगाने का निश्चय हम लें और उसकी देख भाल परिवार के सदस्य के रूप में करें.उपहार आदि देने में भी परिस्थिति के अनुसार पेड पौधे उपहार में दे. और इस अभियान से जुड़े रहें और उसका परिणाम सामने अवश्य आएगा.स्कूल्स आदि में यद्यपि पर्यावरण को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का कार्य किया गया है.परन्तु स्कूल्स में अध्यापक तथा विद्यार्थी सभी उसको मात्र औपचारिकता समझते हैं.इसी प्रकार खानापूर्ति के लिए कभी कभी माननीयों द्वारा भी वृक्षारोपण किया जाता है,परन्तु शायद कुछ दिन बाद वही पौधा कूड़े में ढूँढने से भी नहीं मिलता.इसी प्रकार “राष्ट्रीय सेवा योजना” आदि के शिविरों में भी वृक्षारोपण कार्यक्रम को कभी कभी सम्मिलित किया जाता है,परन्तु लगाने के बाद उसकी देखभाल का उत्तरदायित्व किसी का नहीं होता.अतः पौधे लगाने के कार्यक्रम में व्यय हुआ धन व्यर्थ हो जाता है.नीति निर्धारण में हम पीछे नहीं बस आवश्यकता है,उन नीतियों के क्रियान्वयन की.
Read Comments