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विश्व के कुपोषित लोग और विशेष रूप से कुपोषित नौनिहालों की संख्या का 40% भारत में ही विद्यमान हैं ,ये कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं ,इससे पूर्व भी यूनेस्को के W.F.P. विश्व खाद्य कार्यक्रम तथा भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के 2010 के कुछ आंकडें तो और भी भयावह हैं जिनके अनुसार तो स्थिति बहुत ही गंभीर है तथा अफ्रीका और सहारा को चुनौती देते हैं .उनके अनुसार तो विश्व के कुपोषितों की संख्या का 50%भारत में ही है.
” अन्न देवता है ” अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए,ऐसा हमारी संस्कृति का सन्देश है.बचपन में भोजन ग्रहण करते समय यदि कोई भी खाद्य पदार्थ खाने में नापसंदगी जाहिर की जाती थी ,तो यही कहा जाता था कि भोजन में जो मिले चुपचाप खा लेना चाहिए,झूठा नहीं छोड़ना चाहिए,दूसरे शब्दों में अन्न का एक दाना भी व्यर्थ नहीं करना चाहिए.और व्यवहारिक रूप से यदि देखा जाय तो भी जिस अन्न को खाकर हमारे शरीर में प्राणों का संचार होता है,अर्थात जो हमारे जीवन का आधार है,उसका सम्मान करना हमारा धर्म है.यही कारण है कि हमारे यहाँ भोजन सामने आने पर हाथ जोड़ कर उसका सम्मान किया जाता है,और कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. दुखद आश्चर्य !यह समाचार जान कर कि विश्व के सबसे बड़े प्रजातान्त्रिक देश में अन्न की भण्डारण व्यवस्था न होने के कारण अन्न खुले आकाश के नीचे पड़ा पड़ा रहकर वर्षा में भीग कर सड़ जाता है, अन्न का 10%से भी बड़ा भाग चूहे,अन्य खरपतवार आदि नष्ट कर देते हैं और शेष बहुत बड़ा भाग हम अपनी लापरवाही से बर्बाद कर देते हैं,,और अपनी आवश्यकता पूर्ण न होने पर फिर हम विदेशों से आयात करते हैं,और अपनी अर्थव्यवस्था को हानि पहुंचाते हैं हमारा देश जहाँ हम एक और तो शीघ्र ही विकसित होने का दावा करते हैं,और दूसरी और भूखे पेट की आग लाखों लोगों को तड़फ तड़फ कर मरने को विवश करती है.. .कारण कृषक के परिश्रम का फल अर्थात उपज संग्रहित करने के जो पारम्परिक साधन उसके पास हैं वो सामान्य परिस्थितियों के लिए भले ही ठीक हों, परन्तु प्राय उपरोक्त कारणों से वो लाभान्वित नहीं हो पाता. सरकारी योजनायें जो कृषकों के लाभ के लिए बनी भी हैं,कृषक के अशिक्षित होने या उन योजनाओं का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण आम कृषक को उनका लाभ नहीं मिल पाता और रहा सहा काम भ्रष्टाचार निगल जाता है,बीजों का वितरण,ऋण की सुविधाएँ आदि पर एजेंट्स का कब्जा है,बहुत ही कम लाभ वास्तविक लोगों तक पहुँच पाता है,और फटेहाली किसान का पीछा नहीं छोडती.. हमारी दोषपूर्ण नीतियों के परिणामस्वरूप एक ओर तो भुखमरी में विश्व में हमारे देश का स्थान नीचे की ओर से देखा जा सकता है जो उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार विश्व में 20-22 देश ही हमारे से निम्न स्तर पर हैं.कृषि क्षेत्र में पर्याप्त धन व्यय करने के पश्चात हमारी फसल उत्पादन तो बढ़ा है,और गत कुछ वर्षों में उत्पादन आशातीत रहा है परन्तु अभी गत वर्ष की ही बात है जब मीडिया के माध्यम से टनों अन्न वर्षा में भीग कर सड़ता हुआ दिखाया गया,उस अन्न की स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि उसका कुछ भाग तो पशुओं के उपभोग के योग्य भी नहीं था. ये आरोप किसी विपक्षी दल का नहीं स्वयं सरकार के प्रमुख सिपहसालार शरद पंवार की स्वीकारोक्ति थी ,जिन्होंने संसद में स्वीकार किया कि 11700 टन अन्न जिसकी कीमत 6.86 करोड़ से अधिक थी वर्षा में भीग कर बर्बाद हो गया.इस पर भी सरकार तो सारे मामले को रफा-दफा ही करना चाहती थी परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ऩे ही सरकार को आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई कि यदि गेहूं को रखने के साधन आपके पास नहीं तो गरीबों में बाँट दो.जितना अन्न हमारे यहाँ व्यर्थ हो जाता है उतनी कनाडा जैसे देश की सम्पूर्ण उपज है.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देश दिए जाने पर भी कि भण्डारण की समुचित व्यवस्था के लिए स्थाई वेयर हाऊस बनाये जाएँ और अस्थायी व्यवस्था करते हुए ऐसे केंद्र बनाये जाय जो वर्षा आदि से बचाव कर सकें. परन्तु ऐसा नहीं हुआ और हमारा बहुमूल्य अन्न ऐसे ही बर्बाद होता रहा और वर्तमान में सुधार होने की कोई आशा नज़र नहीं आती. केंद्रीय सरकार गरीबों का पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की आवश्यकता तो समझ रही है, लेकिन सड़ते हुए अन्न को बचाने के लिए अब तक कोई ठोस उपाय नहीं सोचा गया है.अब यदि अन्न भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी तो खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीबों को यही सड़ा-गला अन्न मिलेगा.
दुर्भाग्य है कि जिन हाथों में इस अनाज की वितरण व्यवस्था है उनको या उनके परिजनों को कभी भूखे नहीं सोना पडता उनके यहाँ ,या उनके द्वारा आयोजित पार्टीज में भोजन की विविधताओं पर धन पानी की तरह बहाया जाता है.उनके किसी अपने को भूख से बिलखना नहीं पड़ता. जिन्होने सपने में भी भूख नहीं देखी उन लोगों को दो जून की रोटी को तड़पते लोगों की व्यथा कभी समझ नहीं आएगी। न जाने क्यों सरकार के नीति नियंता ये नहीं समझ पाते कि कि भारत में कुपोषण के कारण विकास की दर में 2-3 प्रतिशत की कमी आ जाती है। शायद सरकार को इस मद में पर्याप्त धन व्यय करने की आवश्यकता इसलिए भी अनुभव नहीं होती कि बच्चों से उनको वोट तो लेना नहीं है,इसलिए उनके प्रति उदार होने की आवश्यकता नहीं है.सरकार ये भूल जाती है कि कमजोर नींव पर खड़ा भारत सशक्त कभी नहीं बन सकता,.
(समस्त आंकडें व चित्र नेट से साभार)
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