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आत्मग्लानी (एक लघु कथा)

chandravilla
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कैलाश जी के  पुत्र संदीप को घर से गये हुए आज पांच दिन बीत चुके थे.कैलाश जी बहुत दुखी थे और संदीप की माँ के तो रोते रोते आंसू भी सूख चुके थे.एक बेटा और एक  विवाहित बेटी के पिता कैलाश जी का परिवार अनुशासित और संस्कारी था.

बेटी का विवाह हुए 3 वर्ष हो चुके थे .संदीप ने भी ग्रेजुएशन पूरा कर लिया था.12 वी कक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उसने इंजीनियरिंग की तैयारी की थी. किसी अच्छे संस्थान में  ही प्रवेश लेना चाहता था संदीप .परिश्रम तो उसने पर्याप्त किया था,कोचिंग भी ली थी पर दुर्भाग्य से सफलता नहीं मिली उसको और किसी निजी  संस्थान में मोटी धनराशि देकर प्रवेश लेने का वह इच्छुक नहीं था.

एक आयु के पश्चात स्वाभिमानी बच्चे अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते हैं.संदीप  भी सलेक्शन न होने के कारण अब किसी  व्यवसाय  से ही जुड़ना   चाहता था अतः उसने सकुचाते हुए पिता से कुछ धन माँगा.कैलाश जी भी कोई बहुत धनवान तो थे नहीं और थोड़े बहुत धन में  महंगाई के युग में कोई व्यवसाय करना बहुत कठिन है.  कैलाश जी ने 60 हजार रुपए का प्रबंध कर उसके प्रस्तावित  व्यवसाय के विषय में जानकारी लेते हुए , कुछ विशिष्ठ बातों का ध्यान रखने की सलाह देते हुए सौंप दिए.

संदीप ने अपने एक मित्र के साथ  व्यवसाय को चलाने में कड़ी मेहनत की परन्तु कभी कभी भाग्य भी साथ नहीं देता और संदीप को जबर्दस्त हानि उठानी पड़ी.दुखी तो संदीप भी बहुत था.हर समय उसके चेहरे पर उदासी रहने लगी थी.

कैलाश जी को व्यवसाय का कोई अनुभव नहीं रहा था. वो स्वयम शिक्षक ही रहे थे.लेकिन  अपने धन की हानि वो सह नहीं सके  और अब हर समय  परिचित ,घर में आने वाले के सामने संदीप के संदर्भ में टिप्पणी करते रहते.संदीप पहले ही आत्मग्लानि अनुभव कर रहा था,पिता का नकारात्मक व्यवहार उसको और भी दुखी कर देता.

संदीप की उदासी बढ़ती जा रही थी ,माँ के कहने पर ही वह थोडा-बहुत भोजन  कर  लेता था. माँ भी  संदीप के पिता को भी समझाने की कोशिश करती कि वो संदीप से ऐसा व्यवहार न करें.उसने किसी गलत कार्य में तो धन नहीं गंवाया,परन्तु कैलाश जी नहीं समझ पाए . अभी पांच दिन पूर्व ही संदीप के दो मित्र  उससे मिलने आये थे,पिता पुनः वही विषय छेड़ बैठे.संदीप बिलकुल गुमसुम ही रहा. उसकी सहनशक्ति उसका साथ छोड़ चुकी थी.मित्रों के जाते ही वह जिस हाल में बैठा था  ,माँ से कहकर अभी आता हूँ ,घर से निकल गया और उस दिन से घर नहीं आया.पुलिस में भी सूचना दे दी गयी थी ,सभी रिश्तेदारों ,–परिचितों  और मित्रों के यहाँ  भी फोन करके पूछा गया परन्तु संदीप नहीं मिला.

सभी लोग परेशान थे, संदीप की बहिन नम्रता भी आ पहुंची थी अपने पति के साथ.भाई के लिए बहुत दुखी थी वो भीअपने पुत्र से  एक पिता के रूप में प्यार तो कैलाश जी को भी बहुत था ,परन्तु व्यवहारिकता की कमी के कारण संभवतः ये स्थिति आयी थी.

सातवे दिन पुलिस की और से सूचना मिली कि एक लडका मूर्छित अवस्था में निकटस्थ रेलवे   स्टेशन पर मिला है. .तुरंत वहाँ पहुंचे कैलाश जी अन्य  लोगों के साथ. वो संदीप ही था मैले कुचैले कपड़ों में .लोगों ने बताया कि ये लड़का स्टेशन पर ही छोटे मोटे काम कर रहा था  हर समय यही बडबडा रहा था,”मुझको पैसा  कमाना है पापा को बहुत दुखी किया है मैंने “

कैलाश जी फूट फूट कर रोने लगे संदीप को होश आ गया था डाक्टर के प्रयास से. कैलाश जी ने उसको गले से लगा लिया ,संदीप पिता के चरणों में पड़ा था ,और कैलाश जी उसको उठा रहे थे,उनको अपने नकारात्मक व्यवहार के द्वारा की गयी गलती का अहसास हो गया था, धन ही सब कुछ नहीं है,गलती उनकी थी कि उन्होंने बेटे को कुछ सकारात्मक सुझाव देकर निराशा की स्थिति से बाहर निकालने के स्थान पर उस पर हर समय टीका टिप्पणी ही करते रहे, , उनको ऐसा व्यवहार पुत्र की मनस्थिति को देखते हुए नहीं करना चाहिए था. सभी लोग घर पहुंचे,माँ को तो बेटे को देख कर जीवन दान ही मिल गया .

(एक सच्ची घटना पर आधारित )

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