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वादे जो तोड़ोगे विश्वास कैसे जीत पाओगे (जागरण जंक्शन फोरम)

chandravilla
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यथा राजा तथा प्रजा” राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है.इसीलिये कहा गया है कि राजा को  सत्चरित्र.नैतिक मूल्यों का अनुसरण करने वाला होना चाहिए. नागरिकों का उज्जवल चरित्र किसी  भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूंजी है,  | जनता का चरित्र बल जितना ऊंचा  होता है ,राष्ट्र की उन्नति होती है और इसके सर्वथा विपरीत जनता का चरित्र बल क्षीण होते ही राष्ट्र का पतन अवश्यम्भावी होता है. |व्यक्ति के संदर्भ में चरित्र धर्म का पर्याय होता है,तो राष्ट्र और समाज के संदर्भ में वही नैतिकता का बाना धारण कर लेता है.

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌ ।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

धर्म और नैतिकता की ये आधारशिलाएं तो बस अब धर्मग्रंथों तक ही सीमित  हैं.शासक और शासित नैतिकता के मानदंड सभी के लिए बदलते जा रहे हैं.नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है, नीति के अनुरूप आचरण .राजनीति में नैतिकता का अर्थ भी राज्य को  नीति के अनुरूप संचालित करना है,परन्तु आज राजनीति में नीति की परिभाषाएं बदल चुकी हैं.येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना और अपने और अपनी भावी पीढ़ियों के लिए राजसी सुखों का प्रबंध करना (भले ही उसके लिए देश को बेचना पड़े ) ही धर्म और लक्ष्य बन चुका है.,अंतरात्मा तो राजनीतिज्ञों में है ही नहीं.

पिता के वचन का मान रखने वाले मर्यादापुरुषोत्तम राम और वृहत साम्राज्य को ठोकर मार चरण पादुकाओं को सिंहासनासीन कर राज्य की सेवा करने वाले कैकयी नंदन भरत,पंच ग्राम मिलने पर राज्य को अपने भाईयों के लिए छोड़ने वाले धर्मराज के उदाहरण तो सदा ही हमारी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं,परन्तु सुईं की नोक के बराबर भी भूमि  न देने की कसम खाने वाले दुर्योधन ,और पुत्र -मोह में पति की काल बनी कैकयी सदृश उदाहरण यही शिक्षा देते रहे हैं कि सत्ता का मोह.लोभ कोई नवीन अवधारणा नहीं .हाँ,अंतर है तो जहाँ ऐसे उदाहरण अँगुलियों पर गिने जाने योग्य थे, अब दुर्योधन,कंस ,दशानन ,भस्मासुर ………………..गिनते गिनते थक जायेंगें पर गणना पूर्ण नहीं होगी.इतिहास के पन्ने पलटने पर सत्ता और धन के लोभ ने न जाने कितनों को डिगाया है.वर्तमान में भी  नैतिक मूल्यों की धज्जियां  ही  उडती दिख रही हैं.

राजनीति में नेताओं .राजनैतिक दलों ने सदा ही जनता के विश्वास को ठगा है.इसका एक ताजा उदाहरण है आम आदमी पार्टी नेता मेगसेसे पुरस्कार विजेता  श्री  अरविन्द केजरीवाल, जो वर्षों से  सुविख्यात तो रहे, ईमानदारी का प्रतीक माने गये ,अन्ना के आन्दोलन में जिम्मेदारी अपने कन्धों पर संभालने वाले और देश के प्रमुख राजनैतिक दलों कांग्रेस और बी जे पी की  निरंतर आलोचना करते हुए इन दलों से मुक्त भारत निर्माण का आह्वान कर रहे थे.बहुत थोड़े समय में ही ईमानदारी का डंका बजाते हुए ,कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर निरंतर प्रहार करते हुए और निरंतर कोसते हुए नया इतिहास बनाने में सफल हुए ,उन्होंने वो कर दिखाया जिसकी कल्पना भी प्रमुख राजनैतिक दल नहीं कर पाए थे .अरविन्द केजरीवाल को भले ही हल्के में न लिया गया हो पर टक्कर तो बी जे पी और कांग्रेस की ही मानी जा रही थी ,पर ये क्या ! कांग्रेस का तो पत्ता ही साफ़ हो गया ,न सोनिया का करिश्मा काम आया और राहुल गाँधी  भी चेहरा दिखाने योग्य प्रत्यक्ष में नहीं रहे

भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ा दल के रूप में शिखर पर तो रही स्थान प्राप्त करने में परन्तु सत्ता प्राप्त करने योग्य बहुमत से दूर रही और अरविन्द केजरीवाल के रूप में त्रस्त दिल्ली वासियों को एक नेता मिला  जिन्होंने सभी आकलनों को मिथ्या सिद्ध किया ,परन्तु  बहुमत से दूर रहने के कारण सत्ता मोह में वो कदम उठा लिया, जिसने उनको अवसर वादी और सत्ता का भूखा आदि विशेषणों से विभूषित कर दिया.

कैसा विचित्र सा खेल और विरोधाभास है सत्ता ,सर्वप्रथम तो वो सदा कहते रहे कि वो सत्ता में नहीं आयेंगें फिर उन्होंने सत्ता में आने का निर्णय लिया (लेकिन ये कदम आलोचना करने के योग्य नहीं.)दुखद तो है ……….

अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से पहले कहा था, ‘मैं अपने बच्चों की कसम खाकर कहता हूं कि कांग्रेस और बीजेपी से कोई गठबंधन नहीं करूंगा। और दिल्ली वासियों को उनके बच्चों की कसम खिलाई थी कि वो कांग्रेस को वोट नहीं देंगें .

परन्तु जहाँ त्रस्त जनता ने अपने बच्चों की कसम का मान रखा और कांग्रेस को वोट न देते हुए उसको  धूल चाटने को विवश कर दिया ,दूसरी और केजरीवाल के   बच्चे सत्ता के मोह के सामने महत्वहीन हो गये जब उन्होंने उसी कांग्रेस की शरण ली जो उनको सबसे घटिया ,भ्रष्ट,लुटेरी और चोर पार्टी दिख रही थी.

यद्यपि नाक बचाने के लिए कहा जा रहा है कि वो समर्थन बाहर से ले रहे हैं ,जबकि उनकी तथाकथित प्रतिद्वंदी पूर्व मुख्य मंत्री शीला दीक्षित स्पष्ट शब्दों में बार बार दोहरा रही है कि उनका समर्थन बिन शर्त नहीं ,साफ़ है कि वो जिन वादों के आधार पर सत्ता पा सके हैं उनको कांग्रेस पूरा नहीं होने देगी .अपने पांव पर कुल्हाड़ी कौन मूर्ख मारेगा ?

राजनीति एक पंकिल दरिया है, जिसमें स्वच्छ जल की आशा करना आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त कुछ नहीं ,राजनीति में  कोई भी स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होते,परन्तु  एक ऐसा व्यक्ति जो निरंतर जिस आधार पर सत्ता हासिल कर पाया ,उसका  और इतने शीघ्र चोला बदल लेना! कुछ जमता नहीं.

बच्चों की सौगंध खाना सार्वजनिक रूप से  और उसको तोडना ,ऐसा कार्य तो शायद कोई पतित पिता भी नहीं कर सकता और वो तो एक छोटे से आदर्श परिवार के सदस्य हैं,फिर इसको सत्ता मोह के अतिरिक्त क्या संज्ञा देंगे आप ?

अतः मेरे विचार से क्षणिक लाभ की आशा  में अरविन्द का ये कदम उनकी प्रतिष्ठा को धूल धूसरित करने के समान ही है .राजनीति के इस दुश्चक्र में पहले भी बहुत से उदाहरण हैं जिनमें अवसरवादिता खुले आम सामने आई है सभी प्रमुख दलों की और फिर उन्होंने मुहं की खायी है. अतः अरविन्द का कथन कि आम आदमी की सरकार बनेगी और वो भ्रष्ट लोगों को दंड देंगें , कैसे मान लें जब बैसाखी उस कांग्रेस की है जिसके विरुद्ध अरविन्द का मोर्चा था.

प्रत्यक्ष उदाहरण है अरविन्द का वादा …………….

जनलोकपाल का वादा पूरा करने पर केजरीवाल ने हाथ खड़े किए………

गौरतलब है कि ‘आप’ ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में रामलीला मैदान में विशेष सत्र बुलाकर 29 दिसंबर को जनलोकपाल बिल पास कराने का वादा किया था। बाद में सरकार गठन को लेकर हो रही देरी के मद्देनजर उन्होंने कहा था कि 29 को जनलोकपाल बिल पास कराना संभव नहीं है। हालांकि, अब यह बात सामने आ रही है कि इसमें महीनों लग सकते हैं।

अरविंद जी….. आशा है कि अन्य वादों को घोषणा पत्र मे शामिल करने से पूर्व आपने उनकी व्यावहारिकता की पूर्ण जांच की हो…… और शायद दिल्ली की जनता को आपके घोषणा पत्र के अन्य वादों पर ऐसी विवशता न सुननी पड़े….और आप जनता के विश्वास तोड़ने के गुनाहागार न बने फिर जनता न छली जाय.

(अंतिम पेराग्राफ जानकारी स्त्रोत्र इन्टरनेट )

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