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अब नहीं जन्म लेते माँ के ऐसे लाल (स्वामी विवेकानंद की जन्मतिथि पर विशेष)

chandravilla
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शतवर्ष तक जीवित रहने का आशीर्वाद देना एक परम्परा है,परन्तु अधिक आयु का आशीर्वाद प्राप्त करने पर भी यदि मानवजीवन का सदुपयोग न किया जाये तो………….? कहा गया है जीवन की लम्बाई से महत्वपूर्ण है जीवन की गहराई और ये सिद्धांत स्वामी विवेकानन्द पर पूर्णतया सटीक है.


मकर सक्रांति के पावन पर्व पर 12  जनवरी 1863 को एक संभ्रांत परिवार में अधिवक्ता विश्वनाथ दत्त तथा भगवद भक्ति में अपना समय व्यतीत करने वाली माता भुवनेश्वरी देवी को भगवन शिव के आशीर्वाद से इस विलक्षण पुत्र की प्राप्ति हुई.(उनके जीवन परिचय में ऐसा उल्लेख मिलता है) पाश्चात्य व पूर्व की विचारधारा का संगम था उनका परिवार. पिता यदि  आधुनिक विचारधारा के पोषक थे तो  माँ आस्तिकता की मूर्ति थीं.

माँ के संस्कारों का ही प्रभाव था किविलक्षण गुणों से सम्पन्न नरेंद्र नाथ धार्मिक विचारों को ध्यान से सुनते थे और ध्यानस्थ भी प्राय हो जाते थे .छुआछूत से कोसों दूर,निर्भीक नरेंद्र के हृदय में भय का कोई स्थान नहीं था. नरेन्द्र के ये संस्कार ही उनको ईश्वर की प्राप्ति के लिए संन्यास लेने को प्रेरित करते थे.प्रभु की विशेष अनुकम्पा उनपर थी जिसके कारण उनका अलौकिक शक्तियों से साक्षात्कार होता रहता था.स्वयं तो वे बलिष्ट शरीर के स्वामी थे ही,योग में उनकी रूचिथी .इसी प्रकार शिक्षा पूर्ण करते हुए आपने मात्र 18 वर्ष की आयु में स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की .

पिता का देहावसान हो जाने के कारण उनके परिवार पर आर्थिक संकट के बादल भी मंडराने लगे,चिंता तो नरेंद्र को  अपने परिवार की  बहुत थी और परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने के प्रयास भी उन्होंने किये .परिजन  उनको विवाह बंधन में भी आबद्ध करना चाहते थे परन्तु उनकी स्पष्ट नकार को देखते हुए शांत हो गये. .वास्तव में उनका संसार में जन्म महान कार्यों के लिए हुआ था.उनको खोज थी प्रभु से साक्षात्कार की,चिंता थी दलित,दमित शोषित वर्ग की उनकी पीड़ा एवं कष्ट देख एवं अपनी बंदिनी भारतमाता को पराधीनता की बेड़ियों मे जकड़े देख कर उनका मन विचलित हो उठता था. ..

वांछित की खोज में विभिन्न साधू संतों से नरेंद्र की  भेंट हुई परन्तु  तार्किक बुद्धि सम्पन्न नरेंद्र कभी संतुष्ट नहीं हुए.इसी श्रृंखला में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई .परमहंस जी माँ काली के उपासक थे और उच्च कोटि के संत थे. नरेन्द्र व परमहंस जी ने एक दूसरे को प्रभावित किया .रामकृष्ण जी ने तो उनके आद्वितीय गुणों को एकदम पहचान लिया परन्तु स्वामी जी उनके शरणागत हुए ,जब, उन्होंने स्वयं उनकी महानता का साक्षात्कार कर लिया .और अपने सतगुरु का शिष्य बन कर उन्होंने उनके दिव्यत्व का साक्षात्कार भी कर लिया था.
सांसारिक संकटों से घिरने पर उनका मन ईश्वर की ओर से विचलित भी हुआ परन्तु सतगुरु उनकी ढाल थे,उन्होंने उनको पुनः संभाल लिया .रामकृष्ण परमहंस जी ने  उनको समझाया कि उनका संसार में जन्म विशिष्ठ कार्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है . गुरु मृत्यु शैय्या पर थे, परन्तु नरेंद्र को लक्ष्य प्राप्ति के लिए तैयार करना उनका दायित्व था. अंतत नरेंद्र समाधि में चले गए ओर जागने पर कहा बहुजन हिताय बहुजन सुखाय कर्म करूंगा ओर उपरोक्ष अनुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूंगा15 गस्त 1886  को परमहंस जी चिर समाधी में विलीन हो गए .नरेन्द्र अपने सोलह साथियों गुरु भाइयों के साथ स्वामी विवेकानंद बन गए अर्थात पूर्ण रूप से सन्यासी बन गए.विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए कुछ विशिष्ठ मित्रों के सहयोग से 31 मई 1893को अमेरिका के लिए प्रस्थान किया, शिकागो में होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए. अपनी भारत भूमि से विदा लेते समय उनके हृदय में बहुत कष्ट था .देश के प्रति विशेष रूप से भारत माता की पराधीनता को लेकर वे बहुत ही दुखी थे. .एशिया की आध्यात्मिक उन्नति के रूप में मंदिरों,बौद्ध मठों के दर्शन करते हुए कनाडा हो कर वे शिकागो पहुंचे वहां की भौतिक उन्नति ओर अपने देश की दुर्दशा से उसकी तुलना कर स्वामी जी बहुत दुखी हुए . धन राशि उनके पास अधिक नहीं थी.साधन कम थे परन्तु कुछ करने की भावना उनका संबल था . अपने अगाध ज्ञान व मधुर व्यवहार से उनको वहाँ कुछ विशिष्ठ हितैषी  मित्र भी मिले. यद्यपि शिकागो धर्म सम्मेलन में पहुँचने के लिए उनके मार्ग में बहुत बाधाएं आयीं.परन्तुजहाँ चाह वहां राह“.भूखे प्यासे अनेकानेक कष्टों को सहन करते हुए,विघ्न बाधाओं को पार करते हुए अपने प्रेमी मित्रों की सहायता व दिव्यशक्तियों के आशीर्वाद से से स्वामीजी 11 सितम्बर को सम्मेलन में भाग ले सके.SWA
यही वो अवसर था जब गेरुए वस्त्रों में एक धर्मयोद्धा के रूप में उन्होंने अत्यधिक प्रेम से मेरे भाइयों व बहनों कहकर उपस्थित समस्त विश्व समुदाय को संबोधित किया.मन्त्र मुग्ध से लोग स्वयं को भूल गए और दत्तचित हो कर स्वामीजी को सुनने लगे यही वो  भारतीय संस्कृति का मूल  मन्त्र विश्वबंधुत्व का सन्देश था जो उन्होंने विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था.उनकी सुमधुर वाणी,ओजस्वी वक्तृता,वैचारिक स्पष्टता तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से सभी श्रोता उनके प्रति एक सहज आकर्षण से बंधे जा रहे थे.हिन्दू धर्म के विरुद्ध विदेशी प्रचारकों द्वारा प्रचारित दुर्भावनाओं का खंडन करते हुए उन्होंने यही सन्देश दिया कि सब धर्मों का सम्मान करना हमारी प्रकृति है परन्तु हमारी संस्कृति का दुष्प्रचार किया गया है वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत है.इस अमृतवर्षा में सब भीगे ओर स्वामीजी ने अपनी व अपनी संस्कृति की अमित छाप छोडी.इसके बाद इसी श्रृंखला में22सितम्बर,25  सितम्बर तथा 27  सितम्बर को अपने व्याख्यानों में उन्होंने अपने विरोधियों को अपने अकाट्य तर्कों से शांत किया.
लगभग तीन साढ़े तीन वर्ष तक स्वामी जी इसी प्रकार विविध स्थानों पर भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म के प्रति सन्देश देते रहे .

.साम्राज्यवाद की नीतिके अनुसार स्वयं को श्रेष्ट बताकर दूसरे देशों पर अधिकार, दूसरे देशों की भोली जनता का शोषण करने का विरोध करते हुए उच्च मानव आदर्शों की स्थापना पर बल दिया .अमेरिका के अतिरिक्त फ़्रांस,लन्दन,स्विटज़रलैंड ,इटली आदि अनेक देशों में उनसे प्रभावित उनके प्रेमी जनों ने उनको आमंत्रित किया.स्वामी जी की  विशेषता थी कि उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति  को श्रेष्ठ तो बताया परन्तु ………..
किसी भी धर्म का उन्होंने अपमान नहीं किया ,किसी का उपहास नहीं उड़ाया परन्तु जब किसी ने उनके देश,उनकी संस्कृति का मजाक बनाया या तिरस्कार करना चाहा तो उसको बख्शा  नहीं इससे सम्बद्ध २उदाहरण रखना आवश्यक है
लन्दन में उनसे कहा गया आपके देश ने आज तक कुछ भी हासिल नहीं किया किसी देश पर अधिकार नहीं कर सके तो उन्होंने शांत भाव से उत्तर दिया मेरा देश किसी पर अपना अधिकार भौतिक रूप से करने में विश्वास नहीं करता वैसे भी आप लोगों के पास ऐसा था ही क्या जिसके लिए मेरा देश आप पर अधिकार करता .हमारी संस्कृति जियो और जीने दोमें विश्वास करती है.


इसी प्रकार एक स्थान पर सब   धार्मिक ग्रंथों को एक स्थान पर रखकर गीता को सबसे नीचे रखा गया उनका अपमान करने के लिए.और कहा गया तुम्हारी गीता तो सबसे नीचे है उनका उत्तर था हमारी गीता सब धर्मों का मूल है ,विविध धर्मों पर उसका प्रभाव है अतः गीता सबका भार वहन करने में समर्थ है .

अमेरिका को समाचार पत्रों ने उनके विषय में टिप्पणी करते हुए लिखा-

“उन्हें भेजने के लिये अमेरिका भारत का आभार व्यक्त करता है और अनुनय करता है कि ऐसी और विभूतियाँ भेजे।”

उनके विषय में एक तत्कालीन धर्मज्ञ जान हेनरी राइट ने लिखा- “यह व्यक्ति हमारे समस्त पंडित प्रोफेसरों से भी बड़ा पंडित है।”

.इसी प्रकार बहुत धर्म प्रचारक, धनिक लोग उनके शिष्य बनते चले गए .जैसा कि संसार का नियम जहाँ एक ओर उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हो रही थी,उनसे ईर्ष्या करने वाले शत्रुओं की संख्या बढ़ रही थी.विशेष रूप से ईसाई पादरी जिनको अपनी दुकान उजडती नज़र आ रही थी,हमारे अपने देश में भी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को लोग पचा नहीं पा रहे थे और दुष्प्रचार कर रहे थे परन्तु स्वामीजी को तो अपने कर्मपथ पर चलना था,वो तो उस मिटटी के बने थे जिन पर न तो प्रशंसा का प्रभाव होता था और न ही निंदा का. वो तो उस पथ के यात्री थे जिसमें कांटो से उनको जूझ कर आगे चलते जाना था.दूसरी ओर विदेशी समाचारपत्र उनके प्रशस्तिगान में लगे थे. न्यूयार्क हेराल्ड ,प्रेस ऑफ़ अमेरिका तथा अन्य सभी प्रमुख समाचारपत्रों का आकर्षण इस समय स्वामी जी थे.

अन्य शिष्यों के साथ इसी समय स्वामीजी की भेंट मारग्रेट नोबुल से हुई जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से विख्यात हुईं.उनकी भेंट जर्मन विद्वान् मेक्स्मुलर से भी हुई जिन पर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का बहुत प्रभाव था.उन्होंने विवेकानंद जी की सहायता से रामकृष्ण परमहंस के विचारों पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की.
अंतत स्वामीजी अपने प्रेमी शिष्यों से अश्रुपूरित विदा लेकर स्वदेश लौटे.कोलम्बो,जाफना होते हुए रामेश्वरम पहुंचे. जनता बड़े-बड़े राजे महाराजाओं ने उनका भव्य स्वागत किया उनके चरणों में लोट गए स्वयं राजा और जनसाधारण उनकी बग्गी खींच कर आनंदित थे मद्रास,.से कोलकाता पहुंचे स्वामी जी का समस्त भारत में जहाँ भी वे गए भावभीना स्वागत हुआ.कुछ समय बाद पुनः स्वामी जी लन्दन गए. इस बार भारत लौटे समय उन्होंने व्याख्यान नहीं दिए.उनका स्वास्थ्य इतनी थकान के बाद बिगड़ रहा था,शायद एक सीमा तक अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे स्वामी जी.धीरे धीरे उन्होंने अपना कार्य शिष्यों व अन्य गुरु भाइयों को सौंप दिया था,4  जुलाई 1902 को उन्होंने पार्थिव देह का परित्याग कर दिया.इतनी अल्पायु में उन्होंने वह कार्य कर दिखाया जो उस युग में कल्पनातीत था. स्वामी जी ने भारतीय धर्म व संस्कृति का डंका बजाया था,उनके समक्ष जो हमारे देश को दलित पिछड़ा समझते थे..समस्त धर्मों के प्रति सम्मान,सभी के सदुपदेशों को ग्रहण कर मानवमात्र को शांति,प्रेम व आत्मसम्मान का उपदेश देने वाले महा मानव काश!  थोडा समय उनको और मिल पाता. परन्तु सुना है जिसकी जरूरत पृथ्वी पर है उसी को प्रभु अपने निकट रखते हैं. .उनके शब्द थे “जब भारत का सच्चा इतिहास लिखा जायेगा,तब यह सिद्ध होगा कि धर्म व ललित कलाओं के विषय में भारत सारे विश्व का गुरु है.”
आज उनके जन्मदिवस पर उनको हमारी सबसे महत्वपूर्ण श्रद्धांजली यही हो सकती है कि अपने देश,अपनी संस्कृति को विश्व में पुनः प्रतिष्ठा दिलाने का संकल्प लें.यह न भूलें कि हम उस  देश के वासी   हैं जिसने विश्व को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया है ,पुनः भारत के लिए सम्पूर्ण विश्व से ये स्वर गूंजे  “वही भारत है गुरु हमारा.”

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