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गुनाह -भुखमरी और अन्न की बर्बादी (पूर्व प्रकाशित )राजनैतिक आलोचना कांटेस्ट

chandravilla
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गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे ।

स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।।

विष्णु पुराण के इस श्लोक के अनुसार , देवता भी गीत गाते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं,जो स्वर्ग और अपवर्ग के हेतुभूत भारतवर्ष में जन्म लेते हैं (अतः) हमसे भी श्रेष्ठ हैं.

गर्वोन्नत होने का अवसर मिलता है,अपनी भारत भूमि के विषय में इतने सुन्दर भाव पढ़ या सुनकर.निश्चित रूप से हमारी  धरा पावन है,हर पल मनन  करके भी हम इसकी महत्ता का पार नहीं पा सकते . हमारी ये पावन धरा भी संभवतः अपने ऊपर किये गए अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी है,क्योंकि अन्न का अपमान जिस देश की संस्कृति में पाप माना जाता हो,भोजन करनेसे पूर्व अन्न देवता के समक्ष हाथ जोड़े जाते हों ,वहाँ अन्न को कूड़े के ढेर पर डाल दिया जाय तो और आशा भी क्या की जा सकती है.

आज स्थिति ये है कि घर में भंडार भरे  हैं,,परिवार के सदस्य भूख से तडफ तडफ कर मरने को विवश हैं.क्या ये कोई अभिशाप  है? .अभिशाप तो निश्चित रूप से है,परन्तु इसके लिए उत्तरदायी कोई पडौसी नहीं हम स्वयं हैं. और इस विडंबना को भुगत रहे हैं .

ये विडंबना है, हमारे देश और देशवासियों के साथ जहाँ अन्न इतना है कि उसको सम्भालने,उसके भंडारण की व्यवस्था करने में राजकोष खाली होता है,और दूसरी ओर लोग भूखे पेट दम  तोड़ देते हैं, 23 करोड़  लोगों को पेट की ज्वाला शांत करने के लिए अन्न नहीं मिल पाता.sadta-ann-aur-300x183 अन्न के एक एक दाने को तरसते बच्चे या तो असमय  दम तोड़ देते हैं या कुपोषित रहकर माथे पर कलंक का टीका बन जाते हैं..50 लाख टन अन्न गोदामों में भरा पड़ा है,अन्न सड रहा है,दूषित हो चुका है,इन्ही स्थितियों में तो अगले वर्ष तक खराब होने वाले अन्न की मात्रा लगभग 1 करोड़ टन हो जाएगी. 1अप्रैल के सरकारी आंकड़ों के अनुसार बफर स्टाक में 122 लाख टन चावल,40 लाख टन गेहूं अर्थात 1.62 करोड़ टन अन्न का स्टाक अपेक्षित था,परन्तु छप्पर फाड़ पैदावार के कारण अन्न का स्टाक जनवरी 2012 में5.52करोड़ टन  है .(सरकारी आंकड़ों के अनुसार) अन्न को सहेजने के लिए बोरे नहीं हैं.अतः अन्न खुला पडा है.बोरों की व्यवस्था का दायित्व  सरकार का है परन्तु पहले राज्यों द्वारा अपनी  आवश्यकता सरकार तो पहुंचाई जानी जरूरी है,परन्तु विभागों को फुर्सत ही कहाँ है.अतः एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप करने में ही समय निकल जाता है.

इन भरे भंडारों के पश्चात  हमारे देश में गरीबी का नामो-निशाँ नहीं होना चाहिए था परन्तु इसके सर्वथा विपरीत हमारे देश के लगभग 60% से अधिक लोग 35 रुपए दैनिक से कम आय में जीने को विवश हैं.उसमें भी भोजन के नाम पर मात्र 15 रुपए प्रतिदिन.वर्तमान में क्या हम कल्पना कर सकते हैं,कि आज जब महंगाई सुरसा की भांति विकराल मुख फैलाती जा रही है,कोई व्यक्ति पेट भर सकता है.

अन्न की दुर्गति का ये प्रथम अवसर नहीं. यथार्थ तो ये है कि अनाज भंडारण की समस्या साठ के दशक के बाद शुरू हुई जब हरित क्रांति के कारण भारत ने अन्न उत्पादन में कुछ सीमा तक स्वयं को सुरक्षित कर लिया. विपरीत परिस्थितियों के अतिरिक्त देश  में अन्न उत्पादन पर्याप्त  होने लगा  और आपातकाल  के लिए अनाज को भंडारित करके उसको संरक्षित करने की भी व्यवस्था बनी,इसको ‘बफर स्टॉक’ कहा गया. यह उपलब्धि  अपने साथ एक समस्या भी लेकर आई.  हरित क्रांति का मुख्य असर केवल पंजाब और हरियाणा में पड़ा जहां अनाज का अंबार लग गया, लेकिन अन्य भागों में अन्न की कमी से पार नहीं पाया जा सका.wasteoffood2_630_271x181

एतदर्थ अन्न का भंडारण कर उसको  सड़क या रेल मार्ग द्वारा पूरे देश में वितरित करने की व्यवस्था विकसित की गई और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था प्रारम्भ हुई . लेकिन इससे अनाज के परिवहन और वितरण पर भारी खर्च आने लगा. साथ ही, जैसे-जैसे अनाज का उत्पादन बढ़ा, भंडारण की समस्या गहराती गई.

.न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अनाज की देशव्यापी खरीद,उसका  भंडारण और वितरण का उत्तरदायित्व भारतीय  खाद्य निगम (एफसीआई) को सौंपा गया. अनाज के गोदामों यानी वेअरहाउस के निर्माण और विकास का कार्य सेंट्रल वेअरहाउसिंग कारपोरेशन का था,राज्य स्तर पर भी  इनकी व्यवस्था तो है,परन्तु उसको सुचारू बनाने में ढील और लापरवाही का परिणाम सबके समक्ष है.

सन् 2010 में अनाज के सड़ने की खबरें उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गयी थी और  सर्वोच्च न्यायालय को कड़ी भाषा का प्रयोग करते हुए कहना पड़ा ”We cannot have two Indias. You want the world to believe we are the strongest emerging economy, but millions of poor and hungry people are a stark contrast,” ये समाचार टाईम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित हुआ कि सरकार इस  अनाज को सड़ाने के बजाय गरीबों में बांट दे . परंतु सरकार ने ये उत्तरदायित्व अपने ऊपर ने लेते हुए तर्क दिया कि अनाज को सही जगह तक पहुंचाने में बहुत ऊंची परिवहन लागत चुकानी पड़ेगी जिसका भार वहन करना कठिन है. सरकार का एक तर्क यह भी था कि गरीबों को पहले से ही अनाज खरीदने के लिए सब्सिडी दी जा रही है.दूसरे शब्दों में भूखों को अन्न वितरण करना संभव नहीं भले ही भुखमरी बढ़ती रहे. और दूसरी ओर अन्न सड़ता रहे. यथार्थ तो यह है कि स्वयं सरकार   नीतिगत स्तर पर अन्न की बर्बादी को  एक नियति के रूप में स्वीकार कर चुकी है.. यद्यपि  सत्यता यह भी है कि देश के 20 करोड़ लोगों को बहुप्रचारित खाद्य सुरक्षा हासिल नहीं है.(ये लेख इस विवादित बिल  के पूर्व का है )

सरकारी प्रयासों से इतर भी यदि चर्चा की जाय तो हमारे देश में अपना खून पसीना बहा कर खेती में फसल के रूप में स्वर्ण उत्पन्न करने कृषक (आम) प्राय समृद्ध नहीं हो पाता ,एक ओर तो ऋण के बोझ तले दबा रहता है,ऊपर से प्राकृतिक प्रकोप,(कभी सूखा,कभी अतिवृष्टि तो कभी ओलावृष्टि आदि अन्य समस्याएं ) और यदि कभी प्रकृति की कृपादृष्टि बनी रही तो भी वह खिलखिला नहीं पाता.कारण उसके परिश्रम का फल अर्थात उपज संग्रहित करने के जो पारम्परिक साधन उसके पास हैं वो सामान्य परिस्तिथियों के लिए भले ही ठीक हों, परन्तु प्राय उपरोक्त कारणों से वो लाभान्वित नहीं हो पाता.

सरकारी योजनायें जो कृषकों के लाभ के लिए बनी भी हैं,कृषक के अशिक्षित होने या उन योजनाओं का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण आम कृषक को उनका लाभ नहीं मिल पाता और रहा सहा काम भ्रष्टाचार निगल जाता है,बीजों का वितरण,ऋण की सुविधाएँ आदि पर एजेंट्स का कब्जा है,बहुत ही कम लाभ वास्तविक लोगों तक पहुँच पाता है,और फटेहाली किसान का पीछा नहीं छोडती..
हमारी दोषपूर्ण नीतियों के परिणामस्वरूप एक ओर तो भुखमरी में विश्व में हमारे देश का स्थान नीचे की ओर से देखा जा सकता है जो उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार विश्व में 20 -22 देश ही हमारे से निम्न स्तर पर हैं.कृषि क्षेत्र में पर्याप्त धन व्यय करने के पश्चात फसलोत्पादन में वृद्धि के आंकडें तो ऊपर वर्णित हैं परन्तु अन्न की दुर्दशा का हाल  ऊपर दिए  चित्र दर्शा रहे हैं,


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अन्न के बर्बाद होने के  आरोप किसी विपक्षी दल द्वारा  नहीं स्वयं सरकार के प्रमुख सिपहसालार शरद पंवार की स्वीकारोक्ति थी ,जब उन्होंने  संसद में स्वीकार किया था  कि 11700 टन अन्न जिसकी कीमत 6.86 करोड़ से अधिक थी वर्षा में भीग कर बर्बाद हो गया.इस पर भी सरकार तो सारे मामले को रफा-दफा ही करना चाहती थी परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ऩे ही सरकार को आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई कि यदि गेहूं को रखने के साधन आपके पास नहीं तो गरीबों में बाँट दो.जितना अन्न हमारे यहाँ व्यर्थ हो जाता है उतनी कनाडा जैसे देश की सम्पूर्ण उपज है.

आरोप तो यह भी है कि अन्न की इस बदहाली का कारण सरकार की नियत में खोट होना है,क्योंकि यह  अन्न शराब माफियाओं के काम आता है,और उनकी सांठ गाँठ सरकार से सदा रहती है.

समस्या से निबटने का जहाँ तक प्रश्न है,सिद्धांत रूप से भारत सरकार ने 2012-13 के बजट में5हजार करोड़ रुपये भंडारण सुविधाओं की व्यवस्था हेतु   रखे हैं.परन्तु  आवश्यकता तो उस राशि के समुचित उपयोग की है.

गोदामों के निर्माण में निजी क्षेत्र को जोड़ना एक  उत्तम विकल्प हो सकता है, परंतु इसके लिए लालफीताशाही से पैदा होने वाली अड़चनों को दूर करना जरूरी है.. हमें अनाज भंडारण और वितरण के लिए एक ऐसी कारगर राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है जो किसानों से लेकर उपभोक्ताओं और गरीबों तक के हितों का खयाल रखे. हमारे देश में जिस तरह खाद्यान्न की अनुपलब्धता के चलते अधिसंख्य आबादी भुखमरी से पीड़ित है, अन्न का संरक्षण वृहत स्तर पर किया जाना जरूरी है.

गत तीन वर्षों से स्थिति विकराल होती जा रही है,अन्न के  मूल्य में भयंकर उछाल आया है,दालें  तो मध्यम वर्ग की  पहुँच से बाहर होती जा रही हैं,और गरीब के लिए सपना .सत्ताधारी वही परन्तु गलती में कोई सुधार नहीं , अपितु और भी विकट है तो दंड का भागी कौन ?


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