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मतदाता के लिए संवैधानिक प्रक्रिया की जानकारी आवश्यक है .कांटेस्ट (. भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया की विडंबनाएं)

chandravilla
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किसी भी प्रणाली या व्यवस्था में सुधार की बात करने से पूर्व हमें उन समस्याओं पर भी विचार करना आवश्यक है,जिनके कारण तंत्र रोगग्रस्त होता है. संसदीय लोकतंत्र प्रणाली मेंचुनाव का ही  महत्व है.जनताद्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता के लिए  क़ानून बनाते हैं और संवैधानिक व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने का कार्य करते हैं.इसी लिए कहा गयाहै कि लोकतंत्रजनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए”  शासन होता है.जनप्रतिनिधि सुशिक्षित,ईमानदार,कर्तव्यनिष्ठ ,देश हित को प्रधानता प्रदान करने वाले,प्रगतिशीलतथा कर्मठ हों तो देशवासी सुखी, समृद्ध, स्वस्थ होंगेंऔर देश भीविश्व में सर्वोच्च शिखर पर होगा .इसके सर्वथा विपरीत  निर्वाचित प्रतिनिधियों के अनपढ़,अपराधी,माफिया ,देश द्रोही और देश का सौदा करने वाले होंगें तो नागरिक ही समस्त दुष्परिणाम भुगतेंगें और स्वाभाविक रूप से देश रसातल में चला जाएगा.लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था में निर्वाचित प्रतिनिधियों के जनहित में न होने पर भी उनको पांच वर्ष तक  हर स्थिति में सहन करना ही होता है,.पांच वर्ष का समय किसी भी देश को पतनोन्मुख बनाने हेतु कम नहीं होता.15 अगस्त1947 को  ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के पश्चात आवश्यकता थी ,देश को अपने संविधान की . डॉ भीमराव अम्बेडकर जी की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपने  भागीरथ प्रयासोंऔर चिंतन मनन के पश्चात एक वृहत संविधान को तैयार किया, जिसको26 नवंबर 1949को संविधान निर्मात्री सभा ने पारित कर दिया..26 जनवरी 1950की स्वर्णिम तिथि को इस संविधान के अनुरूप देश की व्यवस्था संचालित होनी प्रारम्भ हुई.भारतीय संविधान यद्यपि किसी एक संविधान से प्रभावित नहीं परन्तु पर्याप्त सीमा तक इसपर ब्रिटिश प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है.ब्रिटिश दासता की अवधि बहुत लम्बी होने के कारण देश मेंब्रिटिश प्रणाली के अनुरूप ही संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को अपनाया गया,जिसके अनुसार संसद के निम्न सदन लोकसभा तथा राज्यों में विधान सभा के लिए सदस्यों को पांच वर्ष हेतु  प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुना जाता है.इसी प्रकार ऊपरी  सदन राज्य सभा तथा राज्यों में विधान परिषद के सदस्यों को छ वर्ष के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा चुना या मनोनीत किया जाता है. स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था हेतु भी ग्राम सभा,जिला परिषद,नगर पालिका और महा नगर पालिकाओं के चुनाव विशाल देश भारत में कहीं न कहीं चलते रहते हैं.1952 में देश ऩे स्वतंत्रता के पश्चात प्रथम निर्वाचन का आनन्द लिया.1967 तक (आंकड़ों के अनुसार)निर्वाचन प्रक्रिया निर्वाध चली,तुलनात्मकरूपसे कोई विशेष निर्वाचन विषयक अव्यवस्थाएं प्रकाश में नहीं आयीं. परन्तु 1971 के पांचवें  चुनाव में अव्यवस्थाएं और तथाकथित दोष दृष्टिगोचर होने लगे ,जो वृद्धि को प्राप्त होते रहे और 80 के दशक तथा उसके पश्चात सभी आम चुनावों में इस स्तर तक पहुँच गये कि चुनाव खून -खराबे ,बूथ केप्चरिंग ,हिंसा,रक्तपात ,बेईमानी,पैसे का खुला खेल ,विधायकों और सांसदों की खरीद फरोख्त के लिए भारतीय निर्वाचन प्रणाली सुर्ख़ियों में आ गयी .स्थिति इतनी विकट हो गयी कि सज्जन राजनीति से किनारा करने लगे और मतदाताओं की मतदान में अरुचि हो गयी ,मतदान का प्रतिशत गिरता हुआ चिंताजनक स्तर पर पहुँच गया और संसद व विधान सभाएंजघन्य अपराधियों और धनपतियों का अड्डा बनने लगीं.वर्तमान संसद में भी 200के लगभग  सदस्य जघन्य अपराधों के दोषी हैं. जनप्रतिनिधियों के इसस्तर से जन हित की आशा कैसे की जा सकती है.संसद, विधान सभाओं में सर्वत्र यही स्थिति है, विधि निर्माण और उनका क्रियान्वयन पूंजीपतियों या माफियाओं के हित में होता है,न कि आमजन के हितार्थ.

दुर्भाग्यजनक स्थिति तो यह है कि आम नागरिक अव्यवस्थाओं ,दैनिक समस्याओं,भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध त्राहि त्राहि तो करता है,स्वयं उस व्यवस्थाको चुनौती देने में समर्थ होते हुए भी चूक जाता है, कोई भी हितकारी या सकारात्मक कदम नहीं उठा पाता,इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए मेरी दृष्टि में जो तथ्य सामने आते हैं,उनमें प्रमुख हैं.नागरिक को देश की संवैधानिक व्यवस्था की जानकारी न होना;विधान सभा चुनाव से पूर्व ,चुनाव की अवधि में चर्चा करने पर ये जानकार दुखद आश्चर्य हुआ कि पढ़े लिखे वर्ग को भी हमारी संवैधानिक व्यवस्था की पूर्ण जानकारी नहीं है.कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोगों की तो बात ही छोड़ दी जाय.उदाहरणार्थ बहुमत दल किस प्रकार सरकार बनाएगा ,वोट न देने से क्या हानि है,लोकसभा के चुनाव से या विधान सभा के चुनाव के पश्चात देश और प्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ता है. आदि आदि.एक पब्लिक स्कूल की अवकाशप्राप्त (उच्चतर माध्यमिक स्तरीय ) शिक्षिका से चर्चा चल रही थी तो उनका कथन था कि मैं तो इस बार सारे बटन दबाकर आऊँगी.आक्रोश तो उनके वाक्य में झलक रहा था कि व्यवस्था से त्रस्त हैं परन्तु उनका ये वाक्य ! अंतत उनको बताया कि ऐसा करने का कोई लाभ नहीं और ना ही ऐसा संभव है.तो भीवोकितना समझ पायीं,ये नहीं कह सकती .शिक्षित वर्ग की ये बहुत बड़ी विडंबना है कि पूर्ण ज्ञान न होने पर किसी से जानकारी लेना उसको अपमानजनक लगता है.ये तो मात्र एक उदाहरण है,शेष जन भी इसी व्याधि से ग्रस्त हैं.अशिक्षित जन या अर्धशिक्षित को तो बस इतना ही ज्ञात होता है कि चुनाव होने हैं,कौन से चुनाव हैं,इनसे क्या लाभ हानि होगी कुछ पता नहीं होता.आज भी ऐसे मतदाताओं की ही अधिकता है,जो जाति,सम्प्रदाय,क्षेत्रवाद तथा अन्य क्षुद्र लाभों से प्रभावित हो कर वोट देते हैं. महिलाओं और बच्चों को तो आदेश का पालन करते हुए उसकी प्रत्याशी को वोट देना होता है,जिसको घर के पुरुष या अभिभावक पसंद करते हैं.अतः मेरा मानना यही है,कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए सर्वप्रथम आवश्यक और महत्वपूर्ण है, देश की संवैधानिक प्रणाली से परिचित कराना.इसके लिए सरकारी रूप से तथा राजनीतिक दलों की ओर से भागीरथ प्रयास किये बिना वांछित परिणाम कभी नहीं आ सकते और देश का उद्धार नहीं हो सकता.हम बात तो करते हैं कि व्यस्क मताधिकार 18वर्ष से भी कम आयु में मिल जाना चाहिए,परन्तु ये विचार कभी नहीं किया जाता कि नागरिक कर्तव्यों या अधिकारों और संवैधानिक व्यवस्था के ज्ञान के अभाव में सब व्यर्थ है और ये और भी बड़ी विडंबना होगी देश के लिए .ये ज्ञान तो सबको ही दिया जाना आवश्यक है,आप अपने आम परिचितों ,मित्र मंडली में चर्चा करके देखिये तो ये अनुभव आपको स्वयं ही हो जाएगा.कि शिक्षित वर्ग भी देश की संवैधानिक व्यवस्था की पूर्ण जानकारी नहीं रखता.अशिक्षित अंगूठा छाप लोगों को संसद ,विधायिकाओं में भेजने और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौपने से पूर्व उनके लिए शिक्षित होना और शिक्षित होने पर भी उनको विधिवत प्रशिक्षण दिया जाना अनिवार्य होना चाहिए (भले ही इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़े.)अपराधी, माफिया आदि के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना भी मेरे विचार से किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य होना चाहिए .जब तक इन लोगों का विधायिकाओं ,सांसदों और स्थानीय प्रशासन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध नहीं होगा देश की राजनीति में सुधार की आशा करना ही बेमानी है.चुनाव लड़ने से पूर्व सभी प्रत्याशियों का अपनी आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाना और प्रतिवर्ष प्रत्याशी और उसके परिजनों की आय-व्यय की पूर्ण जांच की व्यवस्था किये बिना राजनीति से भ्रष्टाचार दूर होने की कोईसंभावनानहीं हो सकती.मेरे विचार से उनकी किसी पद पर रहने की अवधि पूर्ण होने पर भी उनकी जांच समय समय पर होनी चाहिए.दल -बदल क़ानून को संशोधित कर कठोरतम बनाये बिना सांसदों और विधायकों की खरीद फरोख्त पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया जा सकता.इसी प्रकार निर्दलियों के चुनाव लड़ने और बिकने पर कठोरतम नियम होना चाहिए क्योंकि आवश्यकता के अनुरूप उनके भाव चढ़ते जाते हैं,परिणाम स्वरूप जनता द्वारा अस्वीकृत प्रतिनिधि उनके साथ मिलकर  ही सरकार बनाकर स्वेच्छाचारी बन जनता को रुलाते हैं.राईट टू रीकाल और राईट टू रिजेक्ट लागू करना भी तभी उपयोगी हो सकता है,जब जनता शिक्षित हो,अन्यथा तो इस व्यवस्था का दुरूपयोग होगा और राजनीतिक दल जनता को मूर्ख बनाते हुए अव्यवस्था बनाये रखेंगें.नैतिकता स्वयं में एक बहुत ही पावन शब्द है,परन्तु वर्तमान राजनीति में नैतिकता की बात करना दिवास्वप्न देखना है,राजनीति का अर्थ ही राज की नीति है और राजनीति में साम-दाम-दंड-भेद सब सम्मिलित है.राजनीति के प्रकांड पंडित चाणक्य ऩे भी भारत को अखंड साम्राज्य बनाने के लिए इसी सूत्र को अपनाया था,शिवाजी ,भगवान् कृष्ण सभी को राजनीति के इन महामंत्रों को अपनाना पडा था.स्मरणीय है की ये सब सूत्र देश धर्म की रक्षार्थ अपनाए गये थे.आज देशों को ऐसे ही भारत निर्माताओं की आवश्यकता है.जनता तो स्वयं ही शासकों की अनुगामी होगी क्योंकि “यथा राजा तथा प्रजा “ (कृपया मेरे आलेख को कोई व्यक्तिगत रूप से लेने का कष्ट न करें और परीक्षण के लिए आम मतदाता से चर्चा करें )

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