Menu
blogid : 2711 postid : 739496

स्वर्णिम तिथि 10 मई 1857

chandravilla
chandravilla
  • 307 Posts
  • 13083 Comments

भारतवर्ष की ही नहीं विश्व की प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं में एक है  1857 की क्रान्ति..विश्व की घटनाओं में एक कहने का कारण ये है कि, जिस देश के विरुद्ध इस संग्राम का श्रीगणेश हुआ था ,यह देश था ग्रेट ब्रिटेन ,जिसके साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, साम्राज्यवादी नीति का पोषक होने के कारण जिसका ध्वज विश्व के प्रत्येक कोने में लहराता था.कभी व्यापार के माध्यम से तो कभी देशों के विवाद सुलझाने के नाम पर गोरों ऩे जहाँ भी पहले एक कदम रखा, धीरे धीरे वहां के स्वामी बन बैठे निरंकुश सत्ताधारी.के रूप में

मुग़ल सम्राट जहाँगीर के काल में 1612 में एक फैक्ट्री के माध्यम से भारत में सूरत में व्यापार की अनुमति लेने वाली अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी हमारी अधिष्ठाता कैसे  बन बैठी,बड़ी विचित्र गाथा है.लोक भाषा की कहावत,”अंगुली पकड़ कर पाहेंचा पकड़ना.” अंग्रेजों के भारत पर अधिकार जमाने का सटीक उदाहरण है. .सूरत के बाद मद्रास , बम्बई और फिर कलकत्ता कम्पनी का व्यापार फलता -फूलता रहा.  अंग्रेजों का    देसी राजाओं की दुर्बलता,पारस्परिक फूट का लाभ उठाते हुए इन रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप  चलता रहा .इसी क्रम में  1757 में प्लासी की हार  और  1764 में बक्सर के युद्ध ऩे उनके  पैर मजबूती से भारत में  जमा दिए.मुग़ल सम्राट शाह आलम के काल में कम्पनी के अधिकारों में वृद्धि होती गयी और कम्पनी का अधिकार क्षेत्र बढ़ता रहा..देश का धन लूटा जाता रहा सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश कंगाल बनता रहा . शासकों की विलासिता ,फूट,अकर्मण्यता का परिणाम दासता के रूप में सामने आया ब्रिटिश कम्पनी की साम्राज्यवादी नीति के कारण देश के सभी राज्य धीरे धीरे इनकी अधीनता स्वीकारते रहे.हमारी सेना के जांवाजों के दम पर ब्रिटिश साम्राज्य बढ़ता गया और बढ़ते गये,आमानुषिक अत्याचार.गोरी कौम को श्रेष्ठ मानेवाले अंग्रेज अब हमारे स्वामी थे और हम थे निरीह दास.जो अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर विरोध करने का साहस करता ,उसको कुचल दिया जाता.
भारत की हस्तकला,सूती,रेशमी वस्त्र ,मसाले तथा सूखे मेवे और अन्य वस्तुओं की विदेशों में बहुत मांग थी परन्तु हमारे अशिक्षित तथा भोले उत्पादकों से सस्ते दामों पर सामान खरीद कर कई गुनी कीमतों पर उस सामान को विक्रय कर विदेशी विशेष रूप से अंग्रेज धनी बनते रहे,और फिर अंग्रेजी सत्ता ऩे ऐसे क़ानून बना दिए कि अपने देश में यहाँ के बुने वस्त्र खरीदने पर प्रतिबन्ध लगाते हुए,बहुत भारी अर्थदंड लगाने की घोषणा कर दी.परिणाम वस्त्र बिकने बंद हो गये तथा शिल्पी बेरोजगार हो गये उनको .कृषि क्षेत्र में मजदूरी करने के लिए बाध्य होना पड़ा.परन्तु गोरों की रग रग में शोषण करने की प्रवृत्ति थी. अपनी नस्ल को श्रेष्ठ मानने वाले अंग्रेज सदा दूसरों को निरीह देखना चाहते थे,चाहे उसके लिए किसी भी सीमा का अतिक्रमण करना पड़े.उन्होंने मालगुजारी व कृषि के क्षेत्र में भी ऐसी दमनकारी नीति बनायीं कि कृषकों को भी पाई पाई का मोहताज बना दिया.मालगुजारी इतनी बढ़ा दी गयी कि इस मद में 1764-65  में जो राशि एकत्र हुई थी ,1765-66 में वो दोगुने से भी अधिक हो गयी.
वास्तव में अधिकांश अंगेरजी गवर्नर जनरल की नीति  देश  हड़पने की थी,अर्थात देसी जागीरदारों द्वारा राजस्व नहीं चुकाया गया तो जागीर हड़प ली गयी,,इसी प्रकार रियासतों को भी कभी उतराधिकारी न होने के नाम पर,कभी उत्तराधिकारी अवयस्क होने के नाम पर तथा कभी शासक अयोग्य होने का बहाना बनाकर अपनी साम्राज्यवादी नीति का परिचय देते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया.अतः आर्थिक, राजनैतिक शोषण,साम्राज्यवादी नीति के रूप में अंग्रेजों ने अपने चक्रव्यहू में देश को उलझा दिया. ऐसे में विवश जागीरदारों तथा रियासतों के स्वामियों में असंतोष बढ़ रहा था.1757 -1857  के मध्य कम्पनी की सेनाओं ऩे 20 से अधिक युद्ध लड़े और मैसूर,महाराष्ट्र,कर्नाटक,तंजौर ,बुंदेलखंड रूहेलखंड ,हरियाणा पंजाब आदि राज्यों को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया.
इन सबके साथ ईसाईयत का प्रचार भी उनके कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग था. ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करते हुए अंग्रेज अधिकारियों ऩे घोषणा की ,कि राजाओं द्वारा  ईसाई धर्म अपनाने पर उनकी  छिनी हुई जागीर वापस कर दी जायेंगी.धर्मपरायण हिन्दुओं तथा मुस्लिमों के लिए यह सह्य नहीं था कि धर्म पर आघात हो.और ये प्रत्यक्ष रूप से धर्म के मामले में हस्तक्षेप किया जा रहा था,ये  उनको ईसाई बनाने का षड्यंत्र था,धर्म पर आघात ने अंग्रेजों के विरुद्ध  विद्वेष को और बढ़ावा दिया.

कम्पनी को  शक्ति सम्पन्न मानने वाले देसी राजाओं का  साहस और आत्मबल क्षीण सा हो गया था, ऐसे ही समय में जब अंग्रेज सेनाओं को कुछ युद्धों में पराजय का सामना करना पड़ा तो भारतीय सैनिकों में यह भावना उत्पन्न हुई कि अंग्रेज अपराजेय नहीं और उनको यह भी अनुभव हो रहा था कि अंग्रेज अपने हितों के लिए भारतीय सैनिकों को मृत्य के घाट उतरवा रहे हैं,क्योंकि अंग्रेज  सदा भारतीय सैनिकों को ही खतरे में झोंकते रहते थे. भाईयों -भाईयों को भिडा कर स्वार्थ सिद्ध करना  कुटिल अंग्रेजों का मूलमंत्र बन चुका था.

आर्थिक,राजनैतिक,सामजिक धार्मिक तथा सैन्य सभी क्षेत्रों में अंग्रेजों की दमन नीति के शिकार भारतीय जनता व नरेशों,कृषकों,जागीरदारों की भावनाओं में उफान आ ही रहा था कि कारतूसों वाली घटना के रूप में चिंगारी भड़क उठी.

विद्रोह का सन्देश स्थान स्थान पर पहुंचाने के लिए रोटी व कमल को प्रतीक के रूप में विविध रूप धरे हुए लोगों ऩे गुप्त रूप से दूर दूर तक पहुँचाया.गुप्त बैठकों में कार्यवाही तय होती रही  तथा 31 may 1857  को विद्रोह की तिथि को तय किया गया.तैयारी 31  मई की तारीख के हिसाब से चल रही थी.
सही कहा गया है “होई है वही जो राम रची राखा”कलकत्ता के दमदम में बैरकपुर छावनी में क्रांतिवीर मंगल पाण्डेय ऩे इस क्रान्ति का श्रीगणेश कर दियाMANGAL PANDEY. तथा कट्टर ब्राहमण होने का परिचय दिया अंग्रेज अधिकारी की अवेहलना करते हुए .मंगल पाण्डेय ऩे कारतूसों को मुंह से खोलने को मना कर दिया सेना ऩे उसका साथ दिया तथा बौखलाए गोरों ऩे उसपर शक्ति प्रदर्शन करना चाह तो उसने दो अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण कर दिया.मंगल पाण्डेय झुका नहीं और अंग्रेजों को उस जुझारू वीर का प्राणांत करना ही एक मात्र उपाय दिख रहा था,अतः उसको फांसी की सजा सुनायी गयी.कायर अंग्रेजों ऩे फांसी भी निर्धारित तिथी से पूर्व ही दे दी क्योंकि उनको विद्रोह भड़कने की चिंता सता रही थी.
6 may 1857  को 90  भारतीय सैनिकों को यही  कारतूस मेरठ में प्रयोग करने के लिए दिए गये ,परन्तु जोशीले सैनिकों को मंगल पाण्डेय के बलिदान की लाज रखनी थी उनका स्वाभिमान जागृत हो गया था.अतः उन्होंने आदेश मानने से मना कर दिया,अंग्रेज दमनकारी नीति अपना रहे थे सैनिकों के धर्म का अपमान किया जा रहा था.,भारतीयों सैनिकों को कड़ी सजा देने की घोषणा की गयी . 10 may 1857  की ऐतिहासिक तिथी  को सैनिकों ऩे विद्रोह कर दिया. अंग्रेज अफसरों को मार दिया गया “मारो फिरंगियों को “के नारे के साथ विप्लव बढ़ता गया तथा विद्रोही दिल्ली पहुँच गये.मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र को अपना नेता घोषित कर दिया क्रान्तिकारियों का जोश पूर्ण ज्वार पर था उनके स्वाधीनता संग्राम में उनका साथ देने के लिए आम नागरिक भी उनके साथ जुट गये.दिल्ली के किले पर क्रांतिवीरों का अधिकार हो गया,.अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अंग्रेज इस किले को सितम्बर में ही मुक्त करा सके.
कानपुर में नेतृत्व के लिए नाना साहब कमर कसे हुए थे,अंग्रेज जनरल को पराजय का सामना करना पड़ा ,उनके परिवारों को बंदी बना लिया गया,उदारवादी नैतिकता के पोषक क्रान्ति नेता परिजनों को सुरक्षित निकालना चाहते थे परन्तु जनरल नील के द्वारा इलाहाबाद व बनारस में भारतीयों के नरसंहार का समाचार पाकर विद्रोही आक्रोशित हो गयेऔर नेताओं की इच्छा के विरुद्ध अपना आक्रोश उन परिजनों को मार कर ही निकाला. अंग्रेजों ऩे भारी सैन्य सहायता से कानपुर पर कब्ज़ा पुनः कर लिया और नाना साहब को वहां से नेपाल जाना पड़ा.तांत्या टोपे,वीरतापूर्वक अंग्रेजों से लोहा लेते रहे और अंग्रेज तथा भारतीय वीरों के मध्य इसी प्रकार जीत-हार चलती रही.5630bharat ke amar krantikari tatyan tope m
आन्दोलन का चरम दिखाई दिया अवध में.जनता,जागीरदार,सेना ,जाति- धर्म का भेद भुला कर एकजुट हो कर लड़े और अंग्रेजों को जीवित नहीं निकलने दिया.अंग्रेज अधिकारी मारे गये निरंतर सेना के बल पर लड़ते हुए अंग्रेज लखनऊ को मार्च 1858 में ही दोबारा अपने नियन्त्रण में ले सके.पूर्णतया त्रस्त व बौखलाए अंग्रेजों ऩे निरीही ग्रामीणों व अन्य देशवासियों को फांसी देकर अपना रोष उतारा.
झांसी और ग्वालियर में भी रानी लक्ष्मीबाई तथा तांत्या टोपे ऩे अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए ,यद्यपि देशद्रोहियों के कारण झांसी महारानी के हाथ से निकल गयी परन्तु वह स्वयं उनकी पकड़ में नहीं आयीं.अपने प्राणों को  मातृभूमि पर न्यौछावर करते हुए ,उनकी इच्छा के अनुरूप उनके एक स्वामिभक्त साथी ने उनकी मृत देह को अग्नि के सुपुर्द कर दिया .
इसी प्रकार बिहार में कुंवर सिंह तथा फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्लाह ऩे अंग्रेजों को खूब छकाया. इंदौर में भी आन्दोलन का रंग चरम पर था, देश के अन्य भागों में भी कहीं कम तो कहीं अधिक विद्रोह अग्नि धधकती रही और अपनी सैन्य शक्ति व छल बल के सहारे गोरे उसको दबाते रहे और अंततः यह संग्राम कुछ विशिष्ठ उपलब्धियों के साथ दब गया
इस महत्वपूर्ण क्रांति को अंग्रेज जहाँ अपनी श्रेष्ठता के दम्भ में मात्र सिपाही विद्रोह mutiny, मानते हैं परन्तु अग्रांकित मानचित्र दर्शाता है कि देश के बड़े भाग में इस क्रान्ति का प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव था.Important centres of 1857 revolt in north india-thumbहमारी दृष्टि में यह घटना, यह क्रान्ति, यह आन्दोलन बहुत महत्वपूर्ण है.यह सत्य है कि आन्दोलन अंग्रेजों को बाहर खदेड़ने में सफल न हो सका परन्तु अंग्रेज शासकों को  यह स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा    कि अब भारत को सदा के लिए अपना गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता.
आन्दोलन ऩे भारतीय जनमानस के मस्तिष्क में  भी एक आशा किरण जगा दी कि संगठित हो कर गोरों को देश से बाहर निकालना असम्भव कार्य नहीं.समय तो लगा परन्तु स्वाधीनता की भूख जगाने में सफल रही क्रान्ति और अंतत 1947 में अंग्रेजों को भारत से बाहर भागना पड़ा.
उपरोक्त सफलता के साथ क्रान्ति ऩे हमें ये भी दिखा दिया कि भाइयों ऩे ही भाईयों को मरवाया और अंग्रेजों का साथ देने वाले हमारे भाई थे,जिनके सहयोग से अंग्रेज इतने लम्बे समय यहीं जमे रहे.अपने क्षुद्र स्वार्थों , कुछ विलासी,अकर्मण्य व निष्ठुर मुग़ल राजाओं से परेशान हो कर सिखों के एक वर्ग ऩे गोरखों और कुछ अन्य लोगों ऩे अंग्रेजों का साथ दिया.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी कुछ कमियों के बाद भी आन्दोलन एक मील का पत्थर था तत्कालीन परिस्तिथियों में इतना व्यापक नेटवर्क बनाना एक या दो दिन का काम नहीं हो सकता था.आन्दोलनं और अधिक सफल होता यदि अपनी पूर्व निर्धारित तिथि 31 मई को ही प्रारम्भ होता.परन्तु केवल एक ही नेता न होना इस तर्क को भी प्रमाणित करता है कि विद्रोह की अग्नि स्थान स्थान पर प्रज्वलित हो चुकी थी.

1857  की क्रान्ति में मेरठ जिले का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा  और यह देश के किसी छोटे भाग में घटित हुई strong>iln1857मेरठ में क्रांति के श्रीगणेश का चित्र (नेट से साभार)
ऐतिहासिक प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम ने मेरठ जिले को अन्तराष्ट्रीय महत्ता प्रदान की,क्योंकि क्रान्ति का वास्तविक श्री गणेश यहीं हुआ था.मंगल पाण्डेय के बलिदान को स्वर्णाक्षरों में अंकित कराने में महत्पूर्ण भूमिका का निर्वाह मेरठ छावनी के वीरों ने ही किया.मंगल पाण्डेय को फांसी के तख़्त पर लटकाकर अंग्रेजों को शांति या चैन मिलना और भी दुष्कर हो गया. मंगल पाण्डेय तो क्रांति के नायक बने ही परन्तु उनके द्वारा बोये गये .असंतोष के बीज प्रस्फुटन की प्रतीक्षा कर रहे थे, और इसके लिए सर्वाधिक उर्वर भूमि मिली मेरठ में..
24 अप्रैल को गोरों द्वारा अपनी कुटिल चाल पुनः चली गयी .इस बार ये कुचक्र मेरठ में चलाया गया जब 90 सैनिकों की टुकड़ी को पुनः वही कारतूस प्रदान किये गये.हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही अपने धर्म के प्रति निष्ठावान थे और उनको अपमानित करने की या उनका धर्मभ्रष्ट करने की भावना से अंग्रेजों ने उन सैनिकों को सूअर व गौ की चर्बी वाले कारतूस दिए जिनको प्रयोग करने से पूर्व मुख से खोलना अनिवार्य था.धर्म पर प्रहार न सहन करते हुए लगभग 85 रण  बांकुरों ने उनको प्रयोग करने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया.अहंकारी व स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले अंग्रेज अपनी अवज्ञा कैसे सहन कर सकते थे ,अतः उन सैनिकों को 10 वर्ष का कठोर कारावास,कोर्टमार्शल तथा अन्य कठोर दंड घोषित किये गये.9 मई के दिन उन सभी लोगों का सरे आम न केवल अपमान किया गया,उनकी वर्दी उतरवाई गयी,अपितु अमानवीय रूप से जेलों में ठूंस दिया गया,
अग्नि में घी डालने वाली इस घटना ने सैनिकों को आग बबूला कर दिया और 10 मई को जब अंग्रेज चर्च जा रहे थे,अन्य कार्यों में लगे थे इन सैनिकों ने , जहाँ भी अवसर मिला जो भी अंग्रेज मिला मार गिराया.जेल तोड़ दी गयी और अपने साथियों को मुक्त कराया गया.इस कार्य में भरपूर सहयोग दिया जेल रक्षक ,कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने.उसने इन विद्रोहियों को जेल से भागने में भरपूर सहायता दी.
310px-KotwalDhanSinghGurjarMeerut( कोतवाल धन सिंह गुर्जर.)
स्वाधीनता संग्राम में मेरठ के वीरों का यह अभियान द्रुत गति से आगे बढ़ा और क्रान्ति की यह मशाल अपने पथ के अग्रिम पड़ाव दिल्ली पहुँच गयी 11मई को.जहाँ अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफ़र को अपना नेता घोषित कर दिया.

यह   अध्याय   स्वर्णिम है,निश्चितरूप से  भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए    90 वर्ष की प्रतीक्षा नहीं करनी , यदि देशद्रोही और  स्वार्थ में लिप्त कुपुत्र  नहीं होते .आज फिर जागृत होने का समय है एक हो कर देश के कल्याण के  मार्ग पर चिंतन करने का.

पाठ्य पुस्तकों में से ऐसे महत्वपूर्ण अध्याय हटाना उन क्रांतिवीरों और इतिहास के प्रति अक्षम्य अपराध है.आवश्यकता है,आने वाली पीढ़ियों को आज़ादी का महत्व और वीरों के वलिदान से परिचित कराने की .




Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to sadgurujiCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh