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नारी की सबसे बड़ी विडंबना बलात्कार ,जिस पर मैं अपना आक्रोश व्यक्त करने से स्वयम को रोक नहीं पाती और विवश हो जाती हूँ लिखने को. बलात्कार एक ऐसा घातक (वर्तमान में )राज रोग जो पीडिता को शारीरिक रूप से ही नहीं ,मानसिक रूप से भी यंत्रणा पहुंचाता है उसका जीवन ही अभिशप्त बना डालता है..उसका व्यक्तित्व उपहास का विषय बन जाता है बच्चे बच्चे के लिए ,मीडिया उसको मसालेदार कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है ,और पीडिता को या तो दरिन्दे ही मार डालते हैं,अन्यथा वो जीते जी रोज मरती है जिन्दा रहने तक .
अभी बदायूं का काण्ड ,चार साल की बच्ची का रेप काण्ड,मुज़फ्फरनगर की वृद्धा ,बिहार ,दिल्ली के काण्ड ही टीस पहुंचा रहे थे, कि फिर खून खौल उठा ,लखनऊ के इस बर्बर काण्ड के विषय में सूचना मिलते ही.मीडिया की सुर्खियाँ बनने का एक और विषय,राजनीति की चाले खेलने का अवसर नारी संगठनों की चीख -पुकार ! पर कब तक बस कुछ ही दिन ,कोई नियंत्रण नहीं लगेगा,नारी न कभी सुरक्षित रही ,न आज है और न हो सकेगी.
नारी पाशित
आसुरी भुजपाश
मुक्ति की आस
उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ का समाचार पढ़ा ऊफ सच में कैसे दरिन्दे भरे पड़े हैं ,दिल्ली की निर्भया काण्ड की पाशविकता को भी मात करती घटना.अभी बदायूं की लटकती लाशों ने ये प्रमाणित किया था ,सच में जिन्दा लाश ही तो बन रही है नारी .दिन -रात,सुबह-शाम,घर-बाहर स्कूल,कार्यस्थल कहाँ नारी स्वयम को सुरक्षित मान सकती है.
कहाँ तक गिनेंगें ,उन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का क्या जिनकी जानकारी भी नहीं मिलती चुप्पी साध ली जाती है ,मुहँ पर पट्टी बाँध ली जाती है. आखिर इज्जत का सवाल है ,कौन सी इज्जत और किसकी इज्जत .क्या भविष्य है निश्चित रूप से कितनी ही शिक्षित ,आत्मनिर्भर हो जाय नारी इस विषैले दंश से उसकी रक्षा करने वाला कोई कृष्ण नहीं है.
दुशासन तो समाज में सदा ही रहे हैं वो दुशासन भी कोई गैर नहीं था ,पांचाली का देवर ही था और समाज मूक दर्शक बना रहा था. आज ये दुशासन घर घर हैं और कृष्ण कोई नहीं. नारी कैसे मुक्त हो दरिंदों से .
एक अबोध बालिका जो शायद इस जघन्य,क्रूर कर्म बलात्कार के शब्दार्थ को समझती भी नहीं,कोई वहशी,विकृत मानसिकता वाला पापी,कदाचारी उसका जीवन नष्ट कर दे तो क्या होगा उसका भविष्य?,बलात्कार ऐसा निकृष्ट दुष्कर्म,है, जो हैवानियत की पराकाष्ठा है. एक युवती जिसके माता-पिता उसके विवाह के स्वप्न संजो रहे हों,ऑफिस से लौटती कोई लडकी ,विवाहित महिला जो ट्रेन में यात्रा कर रही हो खेतों में काम करती ,पहाड़ों पर लकड़ी या घास काटने जाती महिला ,प्रौढ़ा जो स्वयं को सुरक्षित समझती हो परन्तु इन नराधमों के चंगुल में फंस दुष्टों को हंसने और स्वयं नारी के जीवन को अभिशाप बनाकर घुट घुट कर जीने को विवश कर देता है ? क्या हम आदिम युग में जी रहे हैं?
प्राय पढ़ते हैं कि ५ वर्ष से भी कम की बच्ची को किसी वहशी ऩे अपनी हवस का शिकार बना लिया.कितना लज्जास्पद और घृणित होता है,यह सुनना, पढना या पता चलना कि रक्षक ही भक्षक बन बैठे. शराब के नशे में पिता या पितृवत चाचा,भाई,मामा ,श्वसुर,ज्येष्ठ अपने कलेजे के टुकड़े को ,,अपनी गोदी में खिलाकर अपनी ही बच्ची ,छोटी बहिन,भतीजी,वधू का जीवन बर्बाद करने वाले बन गये.
कठोरतम क़ानून ,त्वरित न्याय,जिसके अंतर्गत ऐसी व्यवस्था हो कि न्याय अविलम्ब हो. सशस्त्र महिला पुलिस की संख्या में वृद्धि,अपनी सेवाओं में लापरवाही बरतने वाले पुलिस कर्मियों का निलंबन ,सी सी टी वी कैमरे ,निष्पक्ष न्याय मेरे विचार से सरकारी उपाय हो सकते हैं.जब तक हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया इतनी सुस्त रहेगी अपराधी को कोई भी भय नहीं होगा,सर्वप्रथम तो इस मध्य वो गवाहों को खरीद कर या अन्य अनैतिक साधनों के बल पर न्याय को ही खरीद लेता है .अतः न्यायिक प्रक्रिया में अविलम्ब सुधार अपरिहार्य है., अन्यथा तो आम स्मृतियाँ धूमिल पड़ने लगती हैं और सही समय पर दंड न मिलने पर पीडिता और उसके परिवार को तो पीड़ा सालती ही है,शेष कुत्सित मानसिकता सम्पन्न अपराधियों को भी कुछ चिंता नहीं होती.दंड तो उसको मिले ही साथ ही उस भयंकर दंड का इतना प्रचार हो कि सबको पता चल सके
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