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कदम कदम बढाए जा (नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जयंती पर )

chandravilla
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bosआज हमारे देश में कातिल,डकैत,चोर,बलात्कारी ,माफिया सभी राजनीति को सुरक्षित क्षेत्र मानते हुए नेता बनने को आतुर हैं.नेता बनना इनके लिए बहुत सरल है,क्योंकि धन और बाहुबल की इनके पास कमी नहीं,चमचे थोक में  होते हैं अतः नेता बनने से न केवल इनके कुत्सित काले कारनामों को कवर मिलजाता है,अपितु समाज के रक्षक कहलाने वाले समाज की नहीं इनकी रक्षा करने में ही अपने पद की सार्थकता मानते हैं,सभी राजनैतिक दल इनको अपने साथ रखने में ही अपने लाभ -हानि का गणित देखते हैं..चरण वंदना करने वाले चाटुकार,स्वार्थी भी इनके चहुँ ओर मंडराते हैं,जिनकी दिनचर्या का प्रमुख अंग नेताजी की जय -जयकार करना होता है.

आज अधिकांश ऐसे ही नेता राजनीति में सक्रिय हैं. इनको नेता की संज्ञा प्रदान कर हम अपमान करते हैं,अपने उन महापुरुषों को जिन्होंने अपना भविष्य,अपना परिवार,अपनी आजीविका और यहाँ तक कि अपना जीवन भी देश हित में न्यौछावर कर दिया .

भारत माँ को दासता के बंधन से मुक्त करने में यूँ तो असंख्य बलिदानी वीरों का योगदान रहा है जिनका ऋण हम कभी नहीं चुका सकेंगें.,उन्ही में से एक हैं सुभाष चन्द्र बोस जिनकी जयंती  23 जनवरी को है .आईये जानते हैं,  किन विशिष्ठ गुणों ,त्याग,बलिदान और समर्पण के चलते उनके लिए नेता जी नाम सार्थक है.

कहा जाता है,कि बच्चे का पालन-पोषण जिस परिवेश में होता है,वही संस्कार बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.महापुरुषों के जीवन में इनके अपवाद भी कम नहीं .ऐसे ही एक अतुलनीय व्यक्तित्व के स्वामी थे सुभाष चन्द्र बोस,जिनका जन्म ही अन्याय का प्रतिरोध करने हेतु हुआ था.पाश्चात्य रंग में रंगें श्रीजानकी नाथ बोस और आस्तिक विचारों से पूर्ण महिला श्रीमती प्रभादेवी की संतान सुभाष भारत माँ के विलक्षण गुणों से सम्पन्न लाल थे.

5 वर्ष की आयु में सुभाष को एक आंग्ल विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया.सभी माता-पिता अपनी संतान के माध्यम से अपने अधूरे स्वप्न पूर्ण करना चाहते हैं,अतः उनके पिता श्री जानकी नाथ बोस भी मेधावी पुत्र सुभाष को उत्तम शिक्षा प्रदान कर प्रशासनिक अधिकारी बनाने के स्वप्न देखते थे.सुभाष का प्रवेश इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए इस उच्चस्तरीय विद्यालय में कराया गया.तन के उजले मन के काले अंग्रेज अपने भारतीय सहपाठियों को सदा हेय दृष्टि से देखते और अवसर मिलते ही उनके साथ मार-पीट करने से भी नहीं चूकते थे.मध्यान्ह भोजनावकाश में जहाँ गोरों की संतानें खेल रही थी ,सुभाष के भारतीय साथी एक कोने में खड़े उनको ललचाई दृष्टि से देख रहे थे.बच्चों से पूछने पर कि ऐसे क्यों गुमसुम बैठे है,पता चला कि अंग्रेज उनको खेल के मैदान के पास फटकने नहीं देते .स्वाभिमानी बालक सुभाष से सहन नहीं हुआ. अतः उन्होंने अपने साथियों को जोश दिलाया और उनके साथ खेलने लगे.घमंडी अंग्रेज कैसे सहन करते ,परिणामस्वरूप मार -पीट शुरू हो गयी और स्कूल इंचार्ज भी वहां पहुँच गये.मामला शांत कर दिया गया परन्तु अंग्रज बच्चों के दिमाग में खुराफात शेष थी. उन्होंने ३-४ दिन पश्चात सुभाष और साथियों पर योजना बनाकर हमला किया परन्तु सुभाष भी कम नहीं थे ,अपने साथियों के साथ उन्होंने गोरों की धुनाई कर दी.स्कूल से शिकायत घर पहुँची.सुभाष ने अपने पिता को घटनाक्रम से अवगत कराकर कहा कि वो अपने या अपने साथियों के साथ कोई भी अन्याय नहीं सहेंगें और सामना भी करेंगें.

ये नेतृत्व के कुछ गुण है,जो उनमें जन्मजात थे, और वयवृद्धि के साथ उनमें उन सभी गुणों का समावेश हो गया जिनके कारण उनको नेताजी की उपाधि मिली.अपने कालेज में भी अपने सहपाठियों और स्वयं अपने साथ उन्होंने कोई पक्षपात सहन नहीं किया,

.प्रारभ से ही राजनीतिक परिवेश में पले बढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था.मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा आध्यात्मिक गुरु मानते थे स्वामी जी को. भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ. जब १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी.परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया.. अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी .इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे.

पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे राय बहादुर की उपाधि से विभूषित अपने पिता का उनको सिविल सेवाओं में सफल होने का स्वप्न तो उन्होंने पूर्ण किया ,परन्तु मेरिट लिस्ट में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने पर भी सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और , भारत लौट आये.भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे.परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मागांधी से मिलने का परामर्श दिया.सुभाष गांधी जी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया.

देशबन्धु चितरंजन दास बंगाल में स्वराज दल का गठन कर कांग्रेस द्वारा चलाये असहयोग आन्दोलन का काम संभाल रहे थे.अंग्रेजों का विरोध करने के लिए उन्होंने चुनाव लड़ा तथा अपने कार्यों व लोकप्रियता के बल पर महापालिका का चुनाव जीत कर कोलकाता के महापौर बने .सुभाष की कार्यकुशलता से प्रभावित हो उन्होंने उनको महापालिका का कार्यकारी अधिकारी बनाया.इस कार्य को सुभाष ने परिश्रम व दक्षता से संभाला.उन्होंने सभी मार्गों व प्रमुख स्थानों के नाम भारतीय महापुरुषों या विभूतियों के नाम पर निर्धारित किये तथा स्वतंत्रता संग्राम के बलिदानियों को रोजगार प्रदान कराया .सुभाष की लोकप्रियता इतनी चरम पर पहुँची कि उनको कांग्रेस के गुवाहाटी अधिवेशन में अध्यक्ष चुना गया जबकि उनके विरोध में गांधीजी के प्रिय पट्टाभि सीता रमैय्या प्रत्याशी थे. सुभाष बोस की ये विजय गाँधी जी को अपनी पराजय दिखाई दी अतः .इन मतभेदों के कारण सुभाष दुखी थे क्योंकि अंग्रेजों की धोखाधड़ी पर विश्वास न कर वो पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे स्वाभिमानी और अपने सिद्धांतों से समझौता न करने वाले सुभाष ऩे इस पद से त्यागपत्र देने ही उचित समझा.ये एक विलक्षण उदाहरण है,उन स्वार्थी तथाकथित नेताओं के लिए, जहाँ देश के हित के लिए उन्होंने पद लिप्सा के मोह में न पड कर त्यागपत्र दिया..

सुभाष के सत्ता विरोधी कार्यों से त्रस्त ब्रिटिश सरकार ने उनको बंदी बनाकर सर्वप्रथम १९२१ में जेल में डाल दिया.फिर उनको छोड़ा गया. अपने एक क्रांतिकारी साथी गोपीनाथ को फांसी की सजा मिलने से दुखी सुभाष फूट-फूट कर रोये स्वयं उनका अंतिम संस्कार किया ,परन्तु अंग्रेजों को सुभाष बहुत बड़ा खतरा दिख रहे थे .अंग्रेजों के मंसूबे पूर्ण होने में बहुत बड़ी बाधा बन गये थे सुभाष, अतः उन्होंने उनको बंदी बनाकर मांडले कारावास में डाल दिया.

5 नवम्बर 1925 को अपने राजनीतिक गुरु देशबंधु चितरंजन दास का शरीरांत उनके लिए वज्रपात के समान था .सुभाष कई रोगों से ग्रसित हो गये.उनके स्वास्थ्य की गम्भीर अवस्था को देखते हुए अंग्रेजों को उनको मुक्त करना पड़ा. कुछ समय बाद पुनः बंदी बनाये सुभाष को कोलकाता का मेयर बनने पर रिहा करना पड़ा अंग्रेजों उनको मुक्त नहीं रखना चाहते थे अतः 1932 में अल्मोड़ा जेल भेजा गया सुभाष के ,स्वास्थ्य की समस्या को देखते हुए उनको पुनः जेल से रिहा किया गया.इस प्रकार भारत में रहते हुए उनका जेल के अंदर और बाहर की लुकाछिपी चलती रही..इसके पश्चात सुभाष 1933-36 तक यूरोप रहे जहाँ स्वास्थ्य की देखरेख के साथ वो अंग्रेजों को भारत से बहिष्कृत करने के जूनून में अंग्रेजों के कट्टर शत्रु शक्तिशाली मुसोलिनी से मिले.

भारत में रहते हुए यद्यपि गांधीजी द्वारा चलाये विभिन्न आंदोलनों साईमन कमीशन का विरोध,सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही थी ,परन्तु गांधीजी की कार्यप्रणाली उनको संतुष्ट नहीं कर पा रही थी उनके हृदय में अंग्रेजों को अविलम्ब देश से बाहर करने की ज्वाला धधक रही थी और ,उसके लिए कुछ भी करने को कृतसंकल्प थे.विविध पदों पर रहते हुए सुभाष श्रमिकों को तथा युवाओं को तथा अन्य सभी वर्गों को संगठित करने के लिए प्रयत्नशील बने रहे.

विदेश से लौटने के बाद गांधीजी व सुभाष के मतभेद बढ़ते ही रहे गाँधी जी द्वारा समर्थन न मिलने के बाद भी सुभाष पुनः भारी बहुमत से चुनाव जीते.सुभाष का इस बार गांधीजी से प्रबल विरोध भगत सिंह आदि वीरों को फांसी से बचाने को लेकर भी था. ,बापू सुभाष की जीत को सह नहीं पाए और उन्होंने सुभाष की जीत को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. और ये सिद्ध हुआ कि व्यक्तिगत हित ,पूर्वाग्रह,प्रतिष्ठा तथा निजी हठ किस सीमा तक जा सकते हैं.गांधीजी के अनुयायी सुभाष का सहयोग नहीं कर रहे थे,दुखी सुभाष को फिर पदत्याग करना पड़ा.

अब उनके लिए कांग्रेस में रहना संभव नहीं था,क्योंकि देश सेवा के उनके संकल्प में बाधाएं उनका पीछा नहीं छोड़ रही थीं. अतः उन्होंने फारवर्ड ब्लोंक की स्थापना की तथा गांधी जी ने उनको कांग्रेस से निकाल दिया.सुभाष के संगठन ने जी-जान से प्रयत्नशील रहकर अपने अभियान को आगे बढ़ाया.ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बने सुभाष पुनः जेल भेज दिए गए ,परन्तु उनको मुक्त करना अंग्रेजों की विवशता थी एक तो उनका खराब स्वास्थ्य और उनकी लोकप्रियता के भय से.. उनको घर में नजरबन्द कर अंग्रेज राहत की श्वास नहीं ले पाए तथा सुभाष छद्मवेश में अपने साथियों के सहयोग से भारत से बाहर निकल गए तथा अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुंचे. !

“ENEMY OF ENEMY IS YOUR FRIEND“के कूटनीतिक सिद्धांत को मानते हुए ही उन्होंने ये कदम उठाया.यद्यपि हिटलर की भारत में विशेष रूचि न होने के कारण वहां कोई विशेष सहयोग नहीं मिला.इसके पश्चात सुभाष जर्मन पनडुब्बी में अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर अपने साथी के साथ पूर्वी एशिया के लिए निकले तथा 90 दिवस तक अपने प्राणों को अपनी हथेली पर लिए प्राणघातक समुन्द्र में आगे बढ़ते रहे …..उन्हें तो चलते जाना था… और पूर्वी एशिया पहुँच गये. परन्तु इससे पहले जर्मनी में भी अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जनवरी 1942 से रेडियो बर्लिन के माध्यम से उन्होंने नियमित रूप से आह्वान किया भारतीयों का तथा सम्पूर्ण विश्व का अंग्रेजों को भारत से बाहर भगाने का. जिसने भारतीयों में नव उत्साह,नव स्फूर्ती का संचार हुआ

.सुभाष जर्मनी से सिंगापुर आये और रास बिहारी बोस से पूर्वी एशिया में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की बागडोर संभाली और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का गठन किया 7000 सैनिकों के साथ.इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज की महिला टुकड़ी “झांसी की रानी” (जिसकी कमान कैप्टेन लक्ष्मी सहगल के हाथों में थी,) रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे.आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया .उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये थी खतरे की घंटी न केवल गोरोंके लिए थी अपितु देश हित के स्थान पर निजी स्वार्थों को प्रधानता देने वाले अन्य नेताओं के लिये थी.

नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की.जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो.धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी .परन्तु जैसा की पूर्व लेखों में भी लिखा है जिसकी आवश्यकता धरा पर है उसी की पुकार “वह” करता है.

नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए.और शेष सब रहस्य बन गया और खो गए अनंत में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस.आज तक यह रहस्य रहस्य ही है. अंततः वो हमारे मध्य सशरीर नहीं रहे.परन्तु लाख बाधाएं सामने आने पर भी उन्होंने अपने जीवन काल में किसी से हार नहीं मानी और अनवरत चलते ही रहे.”जय हिंद” “दिल्ली चलो ” का नारा लगाकर युवाओं में जोश जगाने वाले नेताजी आज हमारे मध्य नहीं हैं,और ऐसे संकटकालीन समय में भारत माता के ऐसे ही सपूत की आवश्यकता है जो देश में व्याप्त ,वाह्य और आंतरिक दोनों ही संकटों से मुक्ति दिला सके,अपने स्वार्थों की बलि देकर देश हित में ही जियें .ऐसे ही नेताओं का अनुसरण कर जनता में देशप्रेम जाग्रत हो सकता है,और भारत माँ की ओर पुनः बढते शत्रुओं के कदमों में बेडियाँ डाली जा सकती हैं. ………………..

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