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अपना महत्व स्वयम पहिचानो श्रमिक (श्रमिक दिवस पर )

chandravilla
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अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर सभी श्रमिक बंधुओं को बधाई (दिवस को सार्थक रूप से मनाना ही श्रम का सम्मान है )श्रम तो हम सभी किसी  न किसी रूप में करते हैं ही ,अतः  मजदूर तो सभी हैं,हाँ कार्यक्षेत्र भिन्न हैं.अपनी योग्यता,क्षमता और कार्यकौशल के आधार छोटे या बड़े  मजदूर हो सकते हैं.मानव की कामना  सदा समस्त भौतिक  सुखसाधनों के साथ जीवन की रहती है,जिसमें भव्य आवास,सुन्दरवस्त्र ,अच्छा स्वादिष्ट भोजन,और ऐश्वर्य-विलास के साधन आदि मुख्य हैं.आज के भौतिकवादी युग में प्राय व्यक्ति इन्ही समस्त कामनाओं की पूर्ति के जुगाड में लगा रहता है.इच्छाएं अनंत हैं,बढ़ती रहती हैं.एक वस्तु की प्राप्ति होने पर उससे बेहतर वस्तु के विषय में चिंतन और प्रयास प्रारम्भ हो जाता है.आज 1 या 2 कमरे का घर है,तो उससे बड़ा ,बेसिक फोन हो गया तो मोबाईल ,फिर उसके बेहतर माडल,आज हम रिक्शा,लोकल बस या ट्रेनमें सफरकरते हैं,तो स्कूटर बाईक,और फिर कार ,उसके माडल,वस्त्रों में विविधता गुणवत्ता,भोजन में पसंद आदि आदि……………..शेष सभी सुविधाओं के विषय में पसंद ऊंची होती जाती है.अपनी अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप व्यक्ति उनकी प्राप्ति का प्रयास करता है.मध्यम वर्ग ,उच्च वर्ग अपने जीवन स्तर के सुधार में लगे हैं,एक वर्ग और भी है,जिसके कारण ,जिसके अहर्निश परिश्रम से ये सबसुख-सुविधा उपरोक्त सभी वर्गों केलिए सुलभ हो पातीहै.यह वर्ग है ,मजदूर या श्रमिक वर्ग.एक घनिष्ठ सम्बन्ध है,मजदूर वर्ग का शेष सभी वर्गों से ,शेष वर्गों का कोई भी कार्य इनकी अनुपस्थिति में पूर्ण नहीं हो सकता और इनका (मजदूरवर्ग) का जीवन यापन ही शेष वर्ग की आवश्यकताओं और वैभव की सामग्री के निर्माण, एकत्रीकरण, उसकी मरम्मतपर निर्भर करता है.कितनी विचित्र विडंबना है, भव्य आवास,गगनचुम्बी अट्टालिकाएंबनाने वाला , उनको आधुनिकतम सुख-सुविधाओं से सज्जित करने वाला श्रमिक आजीवनअपने लिए एक छत की व्यवस्था नहीं कर पाता .शीत, आतप वर्षा ,आंधी तूफ़ान सभी में उसको प्राकृतिक छत का ही सहारा होता है,जहाँ खड़े होना भी आम  सभी वर्गों के लिए असह्य होता है,उसी गंदगी,कीचड,कूड़े के ढेर के पास अपना टूटा फूटा छप्पर डाल कर रहता है वो,जिसके स्वयं व उसके परिवार की महिलाओं ,बच्चों के लिएशौचालयभी नहीं हैं,स्नानके लिए सरकारी नल यानदी , नहरों रजवाहों ,तालाबों का सुख भी अब छीनता जा रहा है, रौशनी के नाम पर मोमबत्ती या लालटेन भी कठिनता से उपलब्ध हो पाता है.मूल्यवान वस्त्र हाथ से या मशीनों से बनाने की समस्त प्रक्रियाएं जो मजदूर तैयार करता है,स्वयं फटे हाल रहता है, सबको छप्पन प्रकार के व्यंजन से तृप्त करने में जुटा मजदूर पेट पर पट्टी बाँधने को विवश रहता है. जो अपनी जान जोखिम में डालकर खदानों  में काम करता है,पत्थर तोड़ता है, जिसकी आँखें बचपन में ही वेल्डिंग के कारण बेकार हो जाती हैं.,जिनके फेफड़े ,गुर्दे हाथ और पैर सब असमय ही जवाब देदेते हैं.बीमारी के आक्रमण करने पर भी जिसके लिए निजी चिकित्सकों के पास जाना बूते से बाहर की बात है,और सरकारी अस्पतालों में न चिकित्सक ,न औषधियां .सरकार ने विद्यालय तो इस वर्ग के लिए खोल दिए हैं,परन्तु उसमें शिक्षक नहीं ,पुस्तकें नहीं …………………. मजदूर के जीवन पर किसी कवि की चंद पंक्तियों के साथहाथो में छालेचेहरे में बेबसीअश्रुपूरित चक्षुज़माने भर के बोझ से;दबे हुए कंधेऔर कमरझुकी हुईकर्ज के बोझ से;जिम्मेदारीपूरे  परिवार  कीकोई न समझेमज़बूरी मजबूर कीबस यही हैयही है कहानीमजदूर की !!! ……………mzdoorयदि किसी सफल चिकित्सक से पूछा जाय कि वह अपने बच्चों को भविष्य में क्या बनाने का स्वप्न देखता है,तो वह चिकित्सक ही बनाना चाहता है,इसी प्रकार हर सफल व्यक्ति अपनी संतान को अपने ही कार्य में भविष्य बनाता देखना चाहता है,परन्तु किसी श्रमिक से पूछ कर देखें तो वह किसी कीमत पर अपनी संतान को अपनी भांति अभिशप्त जीवन व्यतीत करने की इच्छा नहीं कर सकता.इन्हीं मजदूरों के लिए एक विशेष दिन अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है उपलब्ध वृत्तांत के अनुसार मजदूर दिवस मनाने की परम्परा का प्रारम्भ संयुक्त राज्य अमेरिका से हुआ जब वहां 1866में ये मांग रखी गयी कि मजदूरों के कार्य करने के घंटे 8 (प्रतिदिन)से अधिक न हों,क्योंकि मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.धीरे धीरे ये आन्दोलन सम्पूर्ण अमेरिका में फैलता गया.1886 में शिकागो में मजदूरों ने व्यापक रूप से प्रदर्शन किया.प्रदर्शन में नारों के कारण बौखलाई वहां की सरकार ने दमन चक्र चला दिया ,परिणाम स्वरूप 6 मजदूर मर गये और लगभग 40मजदूर घायल हो गये.इस रक्तपात ने मजदूरों को जोश से परिपूरित कर दिया और एक कपडे को इसी रक्त से लाल बनाकर ध्वज के रूप में मान लिया ,तभी से मजदूरोंके संगठनों के झंडे लाल होते हैं .धीरे धीरे इस आन्दोलन में आम जनता ने भी मजदूरों का साथ दिया और निरंतर संघर्ष रत रहे.जनता के सडकों पर उतरने से विवाद में कुछ उग्रता हो गयी और ऐसी ही एक घटना में एक पुलिस कर्मी की मृत्यु हुई,.ये घटना1 मई को हुई थी अतः तभी से मजदूर दिवस मनाने की परम्परा 1मई को पडी.यद्यपि सरकार ने ये क़ानून जून 1886 में पारित कर दिया .यद्यपि इस क़ानून केव्यवहारिक रूप से लागू होने में समयलगा परन्तु अंततः इसको लागू भी कर दिया गया.हमारे देश में यद्यपि विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है,परन्तु मजदूर दिवस मनाने का प्रचलन भी है,इसका कारण ये नहीं कि हमारे नेताओं को उन मजदूरों की कोई चिंता है,उनकी स्थिति में सुधार का प्रयास करना है,अपितुझंडों से पटे मैदान में ,भीड़ का रेला जुटाया जाता है ,बड़े बड़े नेताओं के भाषण सुनने को ,जो राजनीति चमकाने का  चमकीला  अवसर होता है.क्या आश्चर्य है, जिनके लिए ये दिवस मनता है,उनको इस विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं होता ,या होने नहीं दिया जाता .यदि उनकोन हो गया तो वो जागरूक होंगें और उनका शोषण करना असंभव हो जाएगा.कोई भी कार्य में छोटी सी त्रुटि होने पर मजदूर की  पिटाई कर देना,आवाज उठाने पर उनको दुनिया से ही उठवा देने ,उनकी मजदूरी न देने ,विशेष रूप से माफियाओं और दबंगों द्वारा उनका शोषण आदि घटनाओं के विषय में प्राय समाचार सुनते हैं,घटनाएँ देखते हैं.बंधुआमजदूरों की स्थिति तो बहुत ही शोचनीय है,उनकी तो पीढियां भी अभिशप्त रहती हैं.,बस आधे पेट जीने के लिए .मजदूरदिवस  मनाते हुए इतने वर्ष व्यतीत हो गये,परन्तु श्रमिक के रहन -सहन, दिनचर्या ,स्थिति में कोई विशेष अंतर आज तक नहीं दीखता.ये सत्य है कि उनको पहले के तुलना में धन अधिक मिल जाता है,परन्तु आसमान छूती कीमतें उनके जीवन स्तर में सुधार नहीं आने देतीं. सरकार द्वारा योजनायें लागू की जाती हैं,जिनमें उनको  राशन आदि सस्ते मूल्यों पर उपलब्ध  कराना,उनके शोषण को रोकना,श्रमिकों की सुरक्षा के लिए लेबर कोर्ट,अस्पतालों ,विद्यालयों आदि में उपचार व शिक्षा की व्यवस्था ,कुछ स्थानों पर आवास भी प्रदान करना ,मनरेगा आदि योजनायें लागू करना ,फिर भी   उनकी स्थिति जस की तस रहने के प्रधान कारण मेरे विचार से हैं…………….अशिक्षा के कारण योजनाओं की जानकारी न होना ,बिचौलियों और भ्रष्ट कर्मचारियों द्वाराबड़े स्तर पर लूट खसोट और योजनाओं का लाभ उनतक न पहुंचना.(योजनाओं की राशि का 10%भी वांछितों तक कठिनता से पहुँचता है )आवश्यकता पड़ने पर लिए गये कर्जों को वसूलनेमें जमीदारों और महाजनों द्वारा उनका रक्त चूसना.शराब का चस्का ,जिसके कारण उनके बच्चे भले ही भूखे मरते रहें ,परन्तु अपनी अधिकांश कमाई वो देसी शराब के ठेकों पर घटिया शराब पी कर अपने शरीर को कंकाल बनाने में उड़ाते हैं.आप इन ठेकों पर ध्यान दें तो रिक्शा वाले,मजदूर ,मिस्त्री और इसी श्रेणी के लोग आपको उन ठेकों पर मिलेंगे .श्रमिकों के ठेकेदार भी उनका शोषण करते हैं.प्राय  देखा जाता है कि मालिकों से पूर्ण धन लेकर वो उनसे अपना कमीशन लेते हैं.मंदी आदि विभिन्न कारणों सेबंद होते उद्योग भी उनकी स्थिति को शोचनीय बना देते हैं. उद्योगों मेंआधुनिकतम संसाधनों के प्रयोग केकारण अब मजदूरों की आवश्यकता भी पहिले कीतुलना में घट गई है.शारीरिक श्रमिकों को (विशेष रूप से अकुशल )  हेय दृष्टि से देखना भी एक बहुत बड़ा कारण है,उनकी स्थिति में सुधार न होने का.कितनी दुखद स्थिति है,कि जिनपर सभी वर्गपूर्णतया आश्रित हैं, उनको कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता.इस विषय में महान निबंधकार सरदार पूर्ण सिंह की उनके निबन्ध “मजदूरी और प्रेम” की ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं,जिनमें उन्होंने मजदूरी के महत्त्व पर प्रकाश डाला है– ”जब हमारे यहाँ के मजदूर, चित्रकार तथा लकडी और पत्थर पर काम करने वाले भूखों मरते हैं तब हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ कैसे सुंदर हो सकती हैं ? ऐसे कारीगर तो यहाँ शूद्र के नाम से पुकारे जाते हैं। याद रखिए बिना शूद्र-पूजा के मूर्ति-पूजा, किंवा, कृष्ण और शालिग्राम की पूजा होना असंभव है। सच तो यह है कि हमारे धर्म, कर्म बासी ब्राह्मणत्व के छिछोरेपन से दरिद्रता को प्राप्त हो रहे हैं। यही कारण है कि जो आज हम जातीय दरिद्रता से पीड़ितहैं।एक तरफ दरिद्रता का अखण्ड राज्य है, दूसरी तरफ अमीरी का चरम दृश्य। परन्तु अमीरी भी मानसिक दुःखों से विमर्दित है। मशीनें बनाईं तो गयी थीं मनुष्यों का पेट भरने के लिए-मजदूरों को सुख देने के लिए, परन्तु वह काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं … भारत जैसे दरिद्र देश में मनुष्यों के हाथों को मजदूरों के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा।”इतना ही नहीं वो पुनः लिखते हैंआदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है। सोने और लोहेके बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हजारों रुपये है, परन्तु मनुष्य कौडी के सौ-सौ बिकते हैं। सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाए तो फिर स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य पूजा ही सच्ची ईश्वर पूजा है, ….. मजदूर और मजदूरी का तिरस्कार करना नास्तिकता है। बिना काम,बिना मजदूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के। सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादरियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर-चिन्तन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुँह पर मजदूरी की धूल नहीं पडने पाती वे धर्म और कला-कौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते”इसतथ्य को हम आत्मसात नहीं कर पातेयही कारण  है कि भरी गर्मी की दोपहरी में हमें  ढो  कर लाने वाले रिक्शा वाले से हम सौदेबाजी करते हैं 2 रुपए के लिए,अपने घरेलू सहयोगियों (कर्मचारी ) जिनके अनुपस्थित रहने पर परेशान हो जाते हैं एक ही दिन में उनके पैसे बढ़ाने का नाम आते ही असहज अनुभव करते हैं ,ब्रांडेड कपड़ों पर होटल रेस्टोरेंट्स में हजारों रुपए चुटकी में उड़ा देते हैं,आदि आदि ……….अपने स्तर पर बस यही प्रयास हम कर सकते हैं कि स्वयम उनका शोषण न करते हुए श्रम का महत्व समझें और सम्मान करें.खेलने खाने की उम्र में बाल मजदूरी से बच्चों को बचाया जाय तथा उनके हित में बने कानूनों का पालन सुनिश्चित किया जाय.यदि प्रशासन प्रयास करे तो इनमें से कुछ भी असंभव नहीं .मजदूरों के जीवन और स्वास्थ्य की दशाओं का ध्यान रखना अनिवार्य किया जाय.मजदूर यूनियन की सार्थकता तभी है जब वो नेतृत्व के लिए नहीं मजदूरों के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष करें.

तज दो निंद्रा

जानो निज महत्व

धरा गौरव

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